चौहान शासक विग्रहराज द्वितीय का इतिहास
चौहान शासक सिंहराज के बाद उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय (Vigraharaj II) चौहान वंश का शासक बना। विग्रहराज द्वितीय ही अपने वंश का स्वतंत्र शासक था। हर्ष लेख में कहा गया है, कि उसने अपने वंश की राजलक्ष्मी का उद्धार किया था।
विग्रहराज द्वितीय की उपलब्धियाँ
पृथ्वीराजविजय तथा प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है,कि उसने गुजरात के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम के ऊपर आक्रमण किया। मूलराज पराजित हुआ तथा उसने भाग कर कंथादुर्ग में शरण ली। विग्रहराज उसके राज्य से होता हुआ भृगुकच्छ गया, जहाँ उसने आशापुरी देवी का मंदिर बनवाया।
प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है, कि इसी समय तिलंग देश के तैलिप (कल्याणी के चालुक्य नरेश तैल द्वितीय) की सेना ने वारप्प के नेतृत्व में गुजरात पर आक्रमण किया था। मूलराज दोनों का सामना करने में विफल रहा तथा उसने भागकर कंथादुर्ग में शरण ली थी।
हम्मीर काव्य से पता चलता है, कि मूलराज तथा उसके पुत्र चामुंड ने वारप्प पर आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा मार डाला। ऐसा प्रतीत होता है, कि मूलराज ने विग्रहराज के सम्मुख आत्मसमर्पण किया तथा इसके बाद दोनों ने मिलकर लाट प्रदेश के शासक वारप्प पर आक्रमण कर उसे मार डाला। इसी विजय के उपलक्ष्य में विग्रहराज ने भृगुकच्छ में मंदिर का निर्माण करवाया। इस प्रकार विग्रहराज एक शक्तिशाली राजा था, जिसने दक्षिण की ओर नर्मदा तक सैनिक अभियान किया। उसकी अश्वशक्ति काफी बङी थी। आत्मसमर्पण करने वाले शत्रुओं के प्रति वह बङा उदार एवं सहिष्णु था। पृथ्वीराज विजय से पता चलता है, कि उसने श्री हर्षदेव मंदिर के निर्वाह के लिये क्षत्रचर एवं शंकरंक नामक दो गाँव दान में दिये थे।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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