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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल पाटलिपुत्र

बिहार की वर्तमान राजधानी पटना का प्राचीन नाम ही पाटलिपुत्र था। यह प्राचीन समय का सर्वप्रमुख नगर था। 5वीं शता. ईसा पू. से लेकर 6वीं शता. के ईस्वी के उत्तरार्ध तक यह विभिन्न राजनैतिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। पाटलिपुत्र नगर की स्थापना गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर मगध के हर्यकवंशी राजा उदायिन् या उदयभद्र (460-444 ई. पू.) ने की तथा अपना राजधानी राजगृह से बदलकर यहाँ स्थापित किया।

मगध के केन्द्र में स्थित होने के कारण यह नगर राजधानी के निर्मित अधिक उपयुक्त था। इसके बाद इसकी उन्नति प्रारम्भ हुई। बुद्धकाल में यह भारत का महानगर माना जाता था। यहाँ से अनेक व्यापारिक मार्ग होकर गुजरते थे जिससे व्यापार-वाणिज्य का भी प्रमुख केन्द्र बना। मौर्य युग में इस नगर की महत्ती उन्नति हुई। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज इस नगर का विस्तृत वर्णन करता है। यह 9.5 मील लम्बा तथा 7/4 मील चौड़ा था। नगर के बीचोंबीच चन्द्रगुप्त मौर्य का विशाल राजप्रसाद स्थित था जो विशालता एवं भव्यता में सूसा और एकबतना के महलों से भी बढ़कत था। नगर का प्रबन्ध पाँच-2 सदस्यों वाली छः समितियाँ करती थी।

अशोक के समय में इस नगर में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ था। उसने यहाँ कई स्तूप तथा विहार भी बनवाये थे। मौर्यों के बाद शुंगों के समय में भी पाटलिपुत्र ही मगध साम्राज्य की राजधानी बनी रही।पतंजलि ने इसके प्रासादों का उल्लेख किया है। यवनों के आक्रमण से इस नगर की भी क्षति हई। कुछ अन्तराल के बाद गुप्तवंश के समय में पाटलिपुत्र को पुनः अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया।

चीनी यात्री फाहियान इसकी प्रशंसा करते हुए बताता है कि यह मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा नगर था यहाँ के लोग सुखी एवं समृद्ध थे। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रसाद का वर्णन करते हुए लिखा है कि इसका निर्माण देवताओं द्वारा किया गया लगता था। अशोक का स्तूप भी उसने देखा था। यहाँ दो मठ थे जिसमें 700 भिक्षु निवास करते थे। पाटलिपुत्र में अनेक विद्वान निवास करते थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में यहाँ नौ लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों की मण्डली (नवरत्न) निवास करती थी।

उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि पाटलिपुत्र निवासी वीरसेन व्याकरण, न्याय, राजनीति, का प्रकाण्ड पण्डित था तथा सुप्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी आर्यभट्ट भी यहाँ निवास करते थे। सांस्कृतिक केन्द्र होने के साथ-2 पाटलिपुत्र गुप्तयुग में एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र भी था। उत्तरारथ के व्यापारिक मार्ग में इसका सम्बन्ध था। यहाँ से व्यापारी विभिन्न देशों को जाते थे तथा यहाँ की बाजारें बिक्री की बहुमूल्य वस्तुओं से सजी रहती थीं। गुप्त-साम्राज्य के पतन के बाद पाटलिपुत्र नगर का गौरव क्रमशः घटने लगा। परवर्ती राजवंशों ने अपनी राजधानी इसके स्थान पर कन्नौज में स्थापित कर लिया।

7वीं शती में हुएनसांग के आगमन के समय यह नगर वीरान हो चुका था और यहाँ के मठ, मन्दिर, स्तूप आदि नष्ट हो गये थे। कनिंघम ने इस नगर के विनाश के लिए गंगा नदी की बाढ़ को उत्तरदायी बताया है। चीनी तथा बौद्ध साधनों में भी गंगा के जल-प्लावन के कारण पाटलिपुत्र के नष्ट होने का विवरण सुरक्षित है।

स्पूनर महोदय ने पटना के समीप कुमराहार नामक स्थान से खुदाइयाँ करके विशाल मौर्य प्रासाद के अवशेष प्राप्त किये है। अशोक-स्तम्भ के कुछ भाग भी मिलते है। कुछ विहारों तथा मन्दिरों के अवशेष भी मिलते है। इन सबके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन पाटलिपुत्र इसी स्थान पर रहा होगा। साहित्य में पाटलिपुत्र के कुछ अन्य नाम – कुसुमपुर, कुसुमध्वज, पुष्पपुर आदि भी मिलते है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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