इतिहासफ्रांस की क्रांतिविश्व का इतिहास

फ्रांस की क्रांति का प्रारंभ कहाँ से हुआ

पृष्ठभूमि

फ्रांस यूरोप का एक शक्तिशाली देश था और संभवतः इंग्लैण्ड के बाद उसी की गणना की जाती थी। चौदहवें लुई के शासनकाल (1643-1715 ई.) में फ्रांस यूरोप में सबसे अधिक शक्तिशाली देश हो गया। उसने युद्धों के माध्यम से फ्रांस की सीमाओं का विस्तार किया, सामंतों की अवशिष्ट शक्ति का दमन किया और राज्य की संपूर्ण शक्तियों को अपने हाथों में केन्द्रित किया।
राज्य में कोई भी शक्ति ऐसी न रह पाई, जो किसी तरह उसका विरोध कर सके। परंतु लुई चौदहवें के युद्धों ने राज्य की आर्थिक स्थिति को बिगाङ दी। सरकार पर भारी कर्जा हो गया। उसकी मृत्यु के बाद पन्द्रहवें लुई ने लगभग साठ वर्षों तक शासन किया, वह स्वयं तो अयोग्य, आलसी और विलासी था ही, उसके मंत्री भी वैसे ही अयोग्य निकले। दरबार के विलासी जीवन तथा युद्धों के कारण उसके शासनकाल में फ्रांस की आर्थिक स्थिति निरंतर बिगङती गई, परंतु उसे सुधारने का प्रयास नहीं किया गया।

लुई सोलहवा
रानी आन्त्वानेत
तुर्गो के सुधार कार्य
नेकर का कार्यकाल
केलोन के कार्य
इस्टेट्स जनरल की माँग
इस्टेट्स जनरल
क्रांति के कारण
क्रांति के लिये उत्तरदायी घटनाएँ
  • इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन

5 मई, 1789 ई. को इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन शुरू हुआ। इसके सदस्यों की संख्या 1200 के आस-पास थी। (पादरी 308,कुलीन 285 और जन साधारण के प्रतिनिधि 631) पादरियों के प्रतिनिधियों में लगभग 20 साधारण पादरी थे, जिनकी सहानुभूति तीसरे वर्ग (जन साधारण) के साथ थी।
इससे सर्व साधारण के प्रतिनिधियों को जबरदस्त बल प्राप्त हुआ। सोलहवें लुई के सुझावानुसार प्रत्येक प्रतिनिधि अपने साथ शिकायतों के स्मृति पत्र (कैहियर) लेकर आए थे। इन शिकायी पत्रों के विश्लेषण से पता चलता है, कि इस समय तक किसी के मन में क्रांति की कोई बात न थी।
उन सबमें राजा के प्रति गहरा प्रेम भाव प्रकट किया गया था। उनकी शिकायतें मनमानी तथा अनियंत्रित शासन व्यवस्था से संबंधित थी। सबकी माँग थी, कि एक संविधान बनाया जाये। इसके द्वारा सरकार की शक्तियों को सीमित कर दिया जाये, राजा और जनता के अधिकार निश्चित कर दिये जायें और संविधान को सभी पर समान रूप से लागू किया जाये। स्पष्ट है, कि क्रांति की इच्छा का कहीं कोई संकेत नहीं था।
5 मई को लुई सोलहवें ने जो उद्घाटन भाषण दिया, उसमें उसने संविधान अथवा सुधारों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। उसने केवल इसी बात पर जोरर दिया कि देश की विषम आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये इस्टेट्स जनरल को बुलाया गया है। राजा को विश्वास था, कि इस्टेट्स जनरल उसे नए करों की स्वीकृति प्रदान कर शांतिपूर्वक अपना अधिवेशन समाप्त कर देगी।
उसने यह कल्पना भी नहीं की थी कि इस्टेट्स जनरल का अधिवेशन क्रांति का प्रत्यक्ष कारण बन जायेगा। राजा की गलती यही थी कि उसने उन लोगों को एक साथ बैठने का अवसर प्रदान किया, जो सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से सुधारना चाहते थे।
उसने विशेषाधिकार प्राप्त पादरी और कुलीन वर्ग को बिना किसी अधिकार वाले साधारण वर्ग के सामने खङा कर दिया। इसके अलावा अधिवेशन के समय उसके पास न तो कोई स्पष्ट योजना थी और न निर्देश देने का दृढ संकल्प।

इस्टेट्स जनरल तीन सदनों वाली संस्था थी। कुलीन श्रेणी का सदन, पादरियों का सदन और तीसरे वर्ग का साधारण सदन। परंपरा के अनुसार प्रत्येक सदन बहुमत से निर्णय लेता था, परंतु पूरे सदन के निर्णय को केवल एक मत माना जाता था। आबे साइस नामक एक प्रमुख विधिवेता ने अधिवेशन के पूर्व एक पुस्तिका छपवाकर इस्टेट्स जनरल के सभी सदस्यों में बाँटी।
इस पुस्तक में यह सवाल उठाया गया कि तीसरा सदन क्या था? उसने स्वयं ही पुस्तक में उत्तर भी दिया, यह लगभग सब कुछ था और फिर भी इसका कोई महत्त्व नहीं रह गया। यह पूरे राष्ट्र का पर्याय था, फिर भी राष्ट्र की सरकार से इसे अलग रखा गया था। आबे साइस के विचारों का सदस्यों पर जबरदस्त प्रभाव पङा।

  • मतदान संबंधी विवाद

सोलहवें लुई ने अपने उद्घाटन भाषण के बाद तीनों सदनों को पृथक-पृथक रूप से कार्य करने का आदेश दिया। परिणास्वरूप एक गंभीर विवाद उठ खङा हुआ। प्रश्न यह था, कि प्रत्येक सदन का एक वोट हो अथवा प्रत्येक सदस्य को एक-एक वोट देने का अधिकार हो।
सभा में तीन सदन हों अथवा एक। कुछ पादरी और कुलीन सदस्य पुरानी व्यवस्था को कायम रखना चाहते थे, जबकि तीसरा सदन उनके इस विशेषाधिकार को समाप्त करने पर अङा हुआ था। बिना उचित रूप से संगठित हुए इस्टेट्स जनरल कोई काम नहीं कर सकती थी और इस विवाद को सुलझाए बिना किसी प्रकार का संगठन असंभव था।

दुर्भाग्यवश, इस नाजुक स्थिति में सरकार ने कोई विस्तृत कार्यक्रम नहीं रखा। राजा ने भी अपने उत्तरदायित्व की अवहेलना की और अवसर हाथ से निकल जाने दिया। 6 मई को यह संघर्ष शुरू हुआ जो जून के अंत तक चलता रहा। सर्वसाधारण के प्रतिनिधि इस बात का निर्णय कर चुके थे पादरी और कुलीनों के साथ बैठकर ही अधिवेशन करेंगे। पाँच सप्ताह तक उन्होंने कोई काम नहीं किया।
वे पादरी और कुलीनों के प्रतिनिधियों के साथ बैठकर अधिवेशन करने के लिये बराबर आमंत्रित करते रहे, यद्यपि दूसरी तरफ से उन्हें हमेशा प्रतिकूल जवाब मिलता रहा। 28 मई को पेरिस के प्रतिनिधि भी इस्टेट्स जनरल में सम्मिलित हुए। उनमें बेली और आबे साइस सबसे प्रसिद्ध थे। उनके आगमन से सर्वसाधारण के प्रतिनिधियों का उत्साह दुगुना हो गया।

राष्ट्रीय महासभा के कार्य और उपलब्धियाँ

आबे साइस की सलाह से 13 जून को पादरियों और कुलीनों के पास अंतिम बार निमंत्रण भेजा गया और यह कह दिया कि वे न भी आएँ तो काम शुरू कर दिया जायेगा।तीन पादरियों ने उनके सभा भवन में प्रवेश किया और कहा, बुद्धिमानी की मशाल के प्रकाश में, सर्वसाधारण के कल्याण की भावना तथा अपनी अन्तर्रात्मा की आवाज के कारण, हम अपने साथी नागरिकों एवं भाइयों में सम्मिलित होने आए हैं। उनका शानदार स्वागत किया गया।
दूसरे दिन नौ अन्य पादरी प्रतिनिधि सम्मिलित हो गए। 17 जून को तीसरे सदन ने महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुये अपने आपको राष्ट्रीय महासभा घोषित कर दिया। यह स्पष्ट रूप से एक क्रांतिकारी कदम था। 19 जून को पादरियों ने गंभीर वाद-विवाद के बाद सर्वसाधारण के प्रतिनिधियों से मिलने तथा उनमें सम्मिलित होने का निश्चय किया।
इससे राष्ट्रीय महासभा की स्थिति मजबूत हो गई। कुलीनों की सभा बिना किसी निर्णय के भंग हो गई

टेनिस कोर्ट की शपथ

संयुक्त अधिवेशन

तीसरे सदन की कार्यवाहियों से चिन्तित होकर राजा ने 23 जून को तीनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई। इस बैठक में राजा ने घोषणा की कि अभी हाल ही में तीसरे सदन ने जो कार्य किए हैं, वे अवैध और असंवैधानिक हैं। उसने तीनों सदनों को पुनः पृथक-पृथक बैठकें करने को कहा और इसके बाद सभा-भवन से चला गया।
कुलीन वर्ग के प्रतिनिधियों ने भी तुरंत सभा कक्ष खाली कर दिया। उनके चेहरों पर विजय की मुस्कान थी। बहुत से पादरी भी उनके साथ ही चले गए, परंतु साधारण उत्सवों के अध्यक्ष ब्रेजे ने आकर उनसे कहा, – आप लोग राजा का आदेश सुन चुके हैं। श्रीमानजी की प्रार्थना है कि तीसरे सदन के प्रतिनिधि उठकर चले जाएँ।
इस नाजुक क्षण में मीराबो ने स्थिति को संभाल लिया। उसने दहाङते हुए ब्रेजे से कहा, – जाओ और अपने स्वामी से कह दो कि हम जनता की इच्छा से यहाँ एकत्र हुए हैं और संगीनों की नोंक छोङकर और कोई हमें यहां से हटाने वाला नहीं है। राजा संगीनों का प्रयोग करने का साहस नहीं कर सका।
दो देन बाद बहुत से पादरी और कुलीन भी राष्ट्रीय महासभा में सम्मिलित हो गए। 27 जून को राजा ने तीनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की स्वीकृति दे दी। इस प्रकार यह जन-प्रतिनिधियों की प्रथम शानदार सफलता थी। राजा के झुक जाने से उनका उत्साह दुगुना हो गया

संविधान सभा

तीनों सदनों के साथ बैठने से राष्ट्रीय असेम्बली को अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो गया। अब वह सही अर्थों में राष्ट्रीय सभा बन गयी थी। उसने अब एक संविधान बनाने का कार्य हाथ में लिया और इस दृष्टि से एक संविधान समिति नियुक्त की गयी। चूँकि, राष्ट्रीय सभा संविधान बनाने का काम कर रही थी, अतः उसने अपने नाम को भी बदल दिया। अब वह संविधान सभा के नाम से पुकारी जाने लगी।

भङकाने वाली घटनाएँ

इधर राजा पर कुलीनों और रानी का दबाव पङ रहा था। अंत में राजा ने असेम्बली को दबाने का प्रयास किया। विदेशों से भाङे पर बहुत से सैनिक बुलाए गये और उन्हें पेरिस तथा वर्साय में तैनात किया गया। सीमान्त चौकियों से भी बहुत से सैनिकों को बुलाया गया।
11 जुलाई को अर्थमंत्री नेकर और उसके सहयोगियों को बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि वे सुधारों के पक्ष में थे। नेकर इस समय तक जनता में काफी लोकप्रिय हो चुका था। उसकी बर्खास्तगी का लोगों ने यह अर्थ लगाया कि राजा अब कोई करारी चोट करने वाला है। सारे पेरिस में उत्तेजना फैल गई।
कैमाइल देसमोलाँ नामक एक नेता ने लोगों को भङकाना शुरू किया। उसका कहना था कि, नेकर की पदच्युति खतरे की घंटी है। राजा ने देशभक्तों एवं क्रांतिकारियों को कत्ल करने के लिये विदेशी सैनिकों को बुलाया है। राजा ने देशभक्तों एवं क्रांतिकारियों को कत्ल करने के लिये विदेशी सैनिकों को बुलाया है।
हमें हथियार उठाने होंगे। परिणाम यह निकला कि लोग हथियारों के साथ घूम रहे थे। दूसरी तरफ बङे नेताओं की देखरेख में नागरिक रक्षकों का दल बनाया गया, जिसने शीघ्र ही राष्ट्रीय संरक्षक-दल का रूप ले लिया। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों के अधिकार और संपत्ति की सुरक्षा करना था, क्योंकि इस समय हजारों बेरोजगार लोग पेरिस में घुस आए थे।

बास्तीन के दुर्ग का पतन

संविधान सभा के कार्य
  • विशेषाधिकारों का अंत

अगस्त के महीने में संविधान सभा ने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। 4 अगस्त की रात को कुलीन वर्ग और पादरियों के प्रतिनिधियों ने अपने सामंतवादी विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया। यह काम उन्होंने स्वेच्छा से किया। गाँव के पादरियों ने अपने शुल्कों का त्याग कर दिया।
न्यायाधीशों ने अपनी उपाधियाँ तथा सम्मान छोङ दिये। शिकार तथा धर्मांश वसूल करने के अधिकार भी समाप्त हो गये। रात भर अधिवेशन चलता रहा और लगभग 30 अध्यादेश जारी किए गये, जिनके परिणामस्वरूप अचानक ही एक ऐसी सामाजिक क्रांति हो गई, जिसकी किसी ने कल्पना भी न की थी।
सभी फ्रांसीसी नागरिकों के लिये समान रूप से राजकीय सेवाओं के द्वार उन्मुक्त कर दिये गये। वर्ग-जनित भेदभाव को हटा दिया गया।

  • हिंसा का नया दौर

विशेषाधिकारों के अंत की घोषणा कर दी गयी, परंतु औपचारिक रूप से इसे कानून का रूप देने में समय की आवश्यकता थी। यह साधारण सी बात सामान्य लोगों की समझ में न आ पाई और जब कुछ समय बीत जाने पर भी उन्हें कोई परिवर्तन नजर नहीं आया तो पुनः लङाई-झगङे शुरू हो गये।
लोगों को डर था, कि कहीं उनका संघर्ष और बलिदान व्यर्थ न चला जाये और अब तक जो कुछ प्राप्त हुआ है, उस पर पानी न फेर दिया जाये, क्योंकि राजा का भाई और बहुत से कुलीन फ्रांस को छोङकर दूसरे राज्यों में चले गये थे और वहाँ के शासकों की सहायता से क्रांति को कुचलने की योजना बना रहे थे।
कुछ क्रांतिकारी नेता भी अफवाहें फैलाकर अव्यवस्था बना रहे थे। लोगों की आशंका का मुख्य कारण यह था, कि संविधान सभा द्वारा 4 अगस्त को पारित प्रस्तावों पर राजा ने अभी तक अपनी स्वीकृति नहीं दी थी। लोग सोच रहे थे, कि कहीं राजा भी विदेशी शक्तियों के साथ मिलकर कोई षङयंत्र तो नहीं रच रहा है।
5 अक्टूबर को वर्षा के उपरांत भी पेरिस की 6 से 7 हजार महिलाएँ वर्साय जा पहुँची और हमें रोटी दो का नारा बुलंद किया। 6 अक्टूबर को प्रातः भीङ ने शाही महल के फाटक तोङ दिये, कुछ रक्षकों को मार दिया और महल पर अधिकार जमा लिया। राजा और उसके परिवार कोपेरिस आने पर मजबूर किया।
अब उनका नारा था, अब रोटी पकाने वाला (राजा), उसकी स्त्री और उसका बच्चा हमारे बीच में है, अब हमारी रोटी की समस्या हल हो जाएगी। पेरिस में राज परिवार को ट्यूलरिज के पुराने महल मेैं रखा गया। संविधान सभा भी पेरिस में आ गयी। अब राजा पेरिस की भीङ का बंदी बनकर रह गया, क्रांति का नेतृत्व उसके बूते की बात नहीं रही।

  • मानव अधिकारों का घोषणा पत्र

26 अगस्त को राष्ट्राय असेम्बली ने मनुष्य और नागरिकों के अधिकारों की घोषमा की। यह जरूरी समझा गया कि संविधान से पहले इस तरह की घोषणा हो। स्वतंत्रता, सम्पत्ति, सुरक्षा और अत्याचार का विरोध, ये सब जनता के अधिकार घोषित किये गये। जनता की संप्रभूता को मान्यता दी गयी। घोषणा-पत्र में कहा गया कि आदमी जन्म से ही स्वतंत्र रहता है और अधिकारों की समानता रखता है।
स्वतंत्रता में बाधक न बने। अब किसी भी व्यक्ति को मनवाने ढंग से गिरफ्दार नहीं किया जा सकता था। कानून के सम्मुख सबको समान कहा गया। प्रत्येक नागरिक को बोलने, लिखिने और प्रकाशन की स्वतंत्रता दी गयी, बशर्ते कि वह कानून द्वारा निश्चित सीमा का उल्लंघन न करें।

इस घोषणा पत्र में कुल 17 धाराएं थी, जो 18वीं सदी के राजनीतिक सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व करती थी। इन पर अमेरिकन संविधान की अधिकार संबंधी धाराओं का प्रभाव था। जनता की प्रभुसता को जितना महत्त्व अभी दिया गया, उतना पहले कभी नहीं दिया गया था।
इस घोषणा पत्र के द्वारा क्रांति का एक निश्चित ध्येय और कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। ग्राण्ट टेम्परले के शब्दों में, यह घोषणा क्रांति के उज्जव रूप का परिचायक है, इसके बिना यह यूरोपीय इतिहास की इतनी बङी घटना नहीं होती। वस्तुतः इसमें उन सभी सिद्धांतों पर प्रकाश डाला गया, जिनके आधार पर राष्ट्रीय असेम्बली पूरी फ्रेंच शासन प्रणाली का सुधार करना चाहती थी।

दूसरे, यह अधिकारों की घोषणा थी, कर्त्तव्यों की नहीं। इनमें नई माँगों पर बल दिया गया था और एक अच्छी शासन-प्रणाली की स्थापना करने के लिये जिन राजनीतिक, संवैधानिक तथा सामाजिक अधिकारों की आवश्यकता होती है, उनका उल्लेख किया गया था। तीसरे, यह मनुष्य मात्र के अधिकारों की घोषणा थी।
दुनिया के किसी भी भाग में लोग इसे लागू कर सकते थे। फ्रांस ने अपनी इस घोषणा के द्वारा पङौसी निरंकुश शासकों को बहुत बङी चुनौती दी। पूरी 19 सदी में यह उदारता का चार्टर समझा जाता रहा।

  • अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य

राष्ट्रीय असेम्बली ने अन्य बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य किये। उसने दंड विधान में संशोधन किया तथा प्रेस की स्वतंत्रता की गारंटी दी। क्रांति के शुरू में ही प्रोटेस्टेण्टों को नागरिकता का अधिकार दिया गया और 1791 ई. में यह अधिकार फ्रांस के यहूदी लोगों को भी दिया गया।
धार्मिक सम्प्रदायों को सहिष्णुता की गारंटी दी गयी, परंतु मजदूरों को हङताल करने का अधिकार नहीं मिल पाया। इसी प्रकार, राजनीति के क्षेत्र में स्त्रियों को कोई स्थान नहीं दिया गया। फ्रांस के सभी वयस्क लोगों को मत देने का अधिकार प्राप्त न हो सका। क्योंकि इसके लिये कर देने और संपत्ति के स्वामी होने की सीमित योग्यता रख दी गयी थी।

नया संविधान

1791 ई. में संविधान बनकर तैयार हो गया। फ्रांस के इतिहास में यह पहला लिखित संविधान था। यह अत्यधिक मर्यादित था। इसमें दो बातों पर विशेष जोर दिया गया था – लोक प्रभुत्व का सिद्धांत अर्थात् जनता की इच्छा और अनुमति सरकार की सभी शक्तियों का स्त्रोत है और कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका शक्तियों का पृथक्करण। नए संविधान में संवैधानिक राजतंत्रकी व्यवस्था की गयी।
इस दृष्टि से राजा की उपादि में भी परिवर्तन किया गया। अब वह फ्रांस का राजा न कहा जाकर फ्रांसीसियों का राजा कहा जाने लगा। अब राजा को सरकारी धन को मनचाहे ढंग से खर्च करने का अधिकार नहीं दिया गया। उसका वार्षिक वेतन निश्चित कर दिया गया।
मंत्रियों की नियुक्ति का अधिकार राजा के हाथ में ही रखा गया, परंतु मंत्रियों को व्यवस्थापिका के सामने प्रस्तुत होने की सुविधा नहीं दी गयी। राजा को सीमित निषेधाधिकार भी दिया गया, जिसके द्वारा वह व्यवस्थापिका द्वारा पास किये गये किसी कानून को चार वर्ष की अवधि तक लागू होने से रोक सकता था।
वैदेशिक नीति का संचालन, राजदूतों की नियुक्ति तथा विदेशी राजदूतों का स्वागत आदि कार्य भी राजा के पास ही रखे गयेष परंतु युद्ध और संधि के अधकिार व्यवस्थापिका के पास रखे गये।

नए संविधान के अनुसार भावी व्यवस्थापिका के सदस्यों की संख्या 745 निश्चित की गयी और उनका कार्यकाल दो वर्ष की अवधि तक रखा गया। इसके बाद पुनः चुनावों की व्यवस्था की गयी। नई व्यवस्थापिका में केवल एक ही सदन रखा गया। अपने को भंग करते समय राष्ट्रीय असेम्बली (संविधान सभा)ने अपने सदस्यों के लिये एक बंधन लगा दिया।
इसके सदस्य दूसरी विधानसभा (लेजिस्लेटिव असेम्बली) के सदस्य नहीं हो सकते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक आदर्शवादी कदम था, किन्तु इसके कारण देश को कुछ अनुभवी संसद सदस्यों की सेवाओं से वंचित हो जाना पङा। लुई सोलहवें ने विवश होकर नया संविधान स्वीकार कर लिया।

चर्च संबंधी कानून

राष्ट्रीय असेम्बली ने चर्च के संबंध में चर्च के संगठन को ही बदलने का प्रयास किया गया। सरकार की वित्तीय स्थिति को सुधारने के लिये चर्च की जब संपत्ति को बेचने का निर्णय किया गया। इसके लिये एक आज्ञप्ति पास की गयी, जिसके अनुसार चर्च की भूमि को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित किया गया।
एक अन्य अधिनियम के द्वारा फ्रांस में बिशप क्षेत्रों की संख्या को 134 से घटाकर 83 कर दिया गया। चर्च के अधिकारियों तथा कर्मचारियों के लिये अब राज्य की ओर से वेतन निश्चित कर दिये गये अर्थात् वे भी अन्य लोगों की भाँति राज्य के कर्मचारी बन गये। पोप से नियुक्ति संबंधी अधिकार छीन लिये गये, परंतु निर्वाचित बिशपों को मान्यता देने का अधिकार पोप के पास रहने दिया गया।
सभा ने यह प्रस्ताव पास किया कि चर्च के सभी अधिकारियों को इस संविधान का समर्थन करने की शपथ लेनी पङेगी। 134 बिशपों में से केवल 4 इसके लिये तैयार हुए। इससे धार्मिक कलह खङा हो गया। जिन पादरियों ने अब तक क्रांति का समर्थन किया था, वे भी अब क्रांति के शत्रु बन गये। लुई सोलहवें ने अत्यधिक आत्म ग्लानि के साथ आज्ञप्ति पर हस्ताक्षर किये।

राजा का पलायन और वापसी

पेरिस की घटनाओं से राजा लुई काफी परेशान हो गया था, अतः उसने पेरिस से निकल भागने की योजना बनाई।उसका विचार पूर्वी फ्रांस में जाना था, जहाँ फ्रांसीसी फौजें तैनात थी और जिनकी राजभक्ति में विश्वास किया जा सकता था। 20 जून, 1791 की रात को लुई अपनी पत्नी तथा राजकुमार के साथ भेष बदलकर पेरिस से भाग निलका।
दूसरे दिन लगभग आधी रात के समय वे लोग अपनी बग्घी में वरेन नामक गाँव में पहुँच गए जो फ्रांसीसी सीमा के निकट ही था। वहाँ पर वे लोग पहचान लिये गये और उन्हें वापस पेरिस लाया गया।
अब राजा एक प्रकार से नजरबंद कैदी की तरह रखा गया। लोगों को अपने राजा में विश्वास नहीं रहा। इस घटना ने क्रांति के प्रवाह को एकदम बदल दिया। अभी तक फ्रांस में गणतंत्र की स्थापना कायम करने की बात किसी ने न की थी, लेकिन अब लोगों में गणतंत्र स्थापना की चर्चा होने लगी। इस प्रकार, फ्रांस में गणतंत्रवाद का प्रारंभ हुआ।

नई विधानसभा

नए संविधान के अनुसार नए निर्वाचन हुए और 1 अक्टूबर, 1791 को नई विधानसभा का अधिवेशन शुरू हुआ। उसका चुनाव दो वर्ष के लिये हुआ था पर उसने एक वर्ष से भी कम काम किया। यद्यपि लुई सोलहवें के विरुद्ध लोगों का अविश्वास बढ रहा था, फिरभी नई विधानसभा को राजतंत्र से मोह था, परंतु घटनाओं ने कुछ दूसरा ही चित्र प्रस्तुत कर दिया।
पादरियों ने व्यावहारिक संविधान के प्रति शपथ लेने से इंकार कर दिया और लवां दे नामक प्रदेश में पादरियों के नेतृत्व में हजारों किसानों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय रक्षकों को मार भगाया। फ्रांस में गृह-युद्ध शुरू हो गया। विधानसभा ने पादरियों के विरुद्ध एक आज्ञप्ति निकाल दी, परंतु लुई ने संविधान द्वारा प्राप्त अपने निषेधाधिकार का प्रयोग करते हुये इस आज्ञप्ति को रद्द कर दिया। इससे लुई जनता में बदनाम हो गया।

क्रांति के बाद बहुत से कुलीन फ्रांस को छोङकर भाग गए थे। बाद की घटनाओं से परेशान होकर कुलीनों के साथ-साथ पादरी भी भागने लगे। इन सभी को भगोङा कहा जाने लगा। भगोङों ने फ्रांस की पूर्वी सीमा के उस पार लगभग 20 हजार लोगों की सेना तैयार कर ली।
इतना ही नहीं, उन्होंने आस्ट्रिया और प्रशिया के शासकों की सहानुभूति एवं समर्थन भी प्राप्त कर लिया। इस पर विधानसभा ने भगोङों के विरुद्ध एक आज्ञप्ति जारी कर दी और इसमें यह कहा गया कि वे लोग वापस लौट आयें और सेनाएँ भंग कर दें, अन्यथा उनकी संपूर्ण सम्पत्ति जब्त कर ली जाएगी और उनके विरुद्ध शत्रुओं जैसा व्यवहार किया जाएगा। लुई ने इस प्रकार की आज्ञप्ति को भी रद्द कर दिया। राजा के इस कदम ने क्रांतिकारियों को और अधिक भङका दिया।

जैकोबिन क्लब
कार्देलिये क्लब
जिरोंदीस्त
युद्ध का प्रारंभ

20 अप्रैल, 1792 को फ्रांस ने आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। इस युद्ध की लपेट में धीरे-धीरे समूचा यूरोप आ गया और यह लगभग 23 वर्ष तक चलता रहा। इसका अंत वाटरलू के मैदान में हुआ। युद्ध का कारण था – फ्रांस के भगोङे जिन्हें आस्ट्रिया ने संरक्षण दे रखा था। युद्ध के प्रारंभ में फ्रांस को भारी क्षति उठानी पङी और पराजय का सामना करना पङा।
इसी समय विधानसभा ने दो आज्ञप्तियाँ जारी की। एक विद्रोही पादरियों को सजा देने के संबंध में थी और दूसरी पेरिस की रक्षा के लिये 20,000 सैनिकों की व्यवस्था करने के संबंध में थी। लुई ने दोनों को रद्द कर दिया।
पेरिस की जनता उत्तेजित हो उठी और 20 जून, 1792 को उसने राजमहल पर धावा बोल दिया, और राजा को आज्ञप्तियों पर हस्ताक्षर करने को कहा, परंतु पहली बार लुई ने दृढता का परिचय दिया और हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भीङ राजा को अपमानित करके वापस लौट गई।
घटना-चक्र तेजी से घूम रहा था। प्रशिया भी आस्ट्रिया के साथ फ्रांस के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित हो गया और प्रशियन सेना फ्रांस की सीमाओं में काफी दूर तक घुस आई। प्रशियन सेनापति ब्रुंशविक ने एक घोषणा प्रकाशित की, जिसमें फ्रांसीसी जनता को आदेश दिया गया कि वह राजा को स्वतंत्र कर दे।
राजपरिवार के साथ किसी प्रकार का अभद्र व्यवहार न करे और यदि ऐसा न किया गया तो पेरिस नगर को धूल में मिला दिया जायेगा। इस घोषणा से पेरिस की जनता पुनः भङक उठी और 10 अगस्त, 1792 को पहले से भी अधिक भयंकर विद्रोह हुआ। भीङ ने राजमहल पर धावा बोल दिया। राजपरिवार तो किसी प्रकार बच गया, परंतु 800 स्विस रक्षक मारे गये। भीङ में से लगभग 5,000 व्यक्ति मारे गये।

कम्यून का शासन
कन्वेन्शन
गणराज्य की घोषणा
राजा का वध

जैकोबिन दल लुई सोलहवें को क्रांति का सबसे बङा शत्रु मानता था और उसने माँग की कि राजा को तुरंत बिना अभियोग चलाए ही मृत्युदंड दे दिया जाय, किन्तु अन्य लोगों ने इसका विरोध किया। अंत में उस पर मुकदमा चलाया गया और कन्वेन्शन ने राजा के विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर दिया।
इसके बाद राजा को मृत्युदंड दिया जाये या नहीं, इसस पर मतदान हुआ। कुल 721 सदस्यों ने मतदान में भाग लिया। 387 ने मृत्युदंड के पक्ष में और 334 ने विरोध में मतदान किया। 21 जनवरी, 1793 को लुई सोलहवें को सूली पर चढा दिया गया। राजा के वध के परिणाम बुरे निकले।
क्रांति की क्रूरता ने इंग्लैण्ड, रूस, स्पेन, हालैण्ड और जर्मनी के राज्यों तथा इटली को फ्रांस का शत्रु बना दिया और ये सभी देश फ्रांस के विरुद्ध चल रहे युद्ध में आस्ट्रिया और प्रशिया के साथ हो गये। इस प्रकार, क्रांतिकारी फ्रांस के विरुद्ध प्रथम यूरोपीय गुट अस्तित्व में आ गया। फ्रांस में भी गृह युद्ध की ज्वाला भङक उठी। बाँदे के एक लाख किसानों ने गणतंत्र के विरुद्ध विद्रोह का झंडा फहरा दिया।

जिंरोदीस्त दल का सफाया

जिरोंदीस्त दल सितंबर हत्याकांड के लिये उत्तरदायी लोगों को सजा दिलवाना चाहता था। सितंबर हत्याकांड के लिये जैकोबिन नेता मारा को उत्तरदायी ढहराया गया। जिरोंदीस्त ने कन्वेन्शन में प्रस्ताव पास करके मारा को क्रांति अधिकरण के सामने भिजवा दिया, परंतु अधिकरण ने मारा को मुक्त कर दिया।
अब पेरिस की कम्यून ने जिरोंदीस्तों के विरुद्ध कार्यवाही की । उसकी विशाल भीङ ने कन्वेन्शन भवन को घेर लिया और कन्वेन्शन भवन से मांग की कि जिरोंदीस्त नेताओं को निकाल दिया जाये। असहाय और विवश कन्वेन्शन को तीस जिरोंदीस्त नेताओं की गिरफ्तारी का प्रस्ताव पास करना पङा। परिणाम यह निकला कि फ्रांस के जिलों के लोगों ने सरकार के विरुद्ध हथियार उठा लिये। इस प्रकार, गृह कार्यक्षेत्र व्यापक हो गया।

1793 का संविधान

गृह युद्ध से कन्वेन्शन परेशानी में पङ गया। उस पर पेरिस की कम्यून का प्रभाव कायम हो चुका था, परंतु फ्रांस के प्रांतों को (जो उसके विरुद्ध उठ खङे हुये थे) यह दिखलाने के लिये कि उस पर कम्यून का कोई प्रभाव नहीं है, उसने जल्दी से एक नया संविधान बना डाला, जो 1793 के संविधान के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
नए संविधान में प्रांतों के अधिकारों तथा जनता के अधिकारों को सुरक्षित रखने की ऐसी व्यवस्था की गई, जिससे भविष्य में पेरिस के लिये अपना सर्वस्व कायम करना असंभव हो गया। नए संविधान में सार्वभौम मताधिकार की व्यवस्था की गई तथा शासन के विकेन्द्रीकरण को और अधिक बढा दिया गया।
व्यवस्थापिका की अवधि केवल एक वर्ष रखी गयी और व्यवस्थापिका द्वारा पारित प्रत्येक कानून को जनमत के सामने रखने और जनमत की स्वीकृति के बाद लागू करने का प्रावधान रखा गया।

अस्थायी सरकार की स्थापना

देश को विपत्तियों से मुक्त कराने के लिये कन्वेन्शन की देखरेख में एक अस्थायी सरकार की स्थापना की गई तो इतनी निरंकुश और अत्याचारी सिद्ध हुई कि बोर्बों राजाओं की सरकार भी उसके सामने कुछ न थी। अस्थायी सरकार में दो महत्त्वपूर्ण समितियाँ थी। एक जनरक्षा समिति और दूसरी सामान्य सुरक्षा समिति।
जनरक्षा समिति को प्रारंभ में केवल वैदेशिक मामलों और सेना का प्रबंध सौंपा गया था, परंतु धीरे-धीरे वह शासन का सर्वोच्च शक्तिशाली अंग बन गई और इतने अधिक अत्याचार किए कि गिनती करना असंभव है, परंतु उसने फ्रांस की सेनाओं का पुनर्गठन किया और फ्रांसीसी सेनाएँ शत्रुओं को रोकने में कामयाब रहीं।
जनरक्षा समिति और सामान्य सुरक्षा समिति ने मिलकर फ्रांस के नगरों – लियोंस तथा बाँदे के विद्रोहों का क्रूरता के साथ दमन किया। पेरिस के दो सार्वजनिक चौकों में गिलोटीन खङे किए गये और वहां प्रतिदिन अनेक लोगों का वध किया जाता रहा। 31 अक्टूबर, 1793 को इक्कीस जिरोंदीस्त नेताओं को भी गिलोटीन पर चढाया गया था।

आतंक का राज्य (रॉब्सपियर)
1795 का संविधान
डाइरेक्टरी का शासन
क्रांति का यूरोप पर प्रभाव

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