इतिहासतुर्क आक्रमणमध्यकालीन भारत

तुर्की आक्रमण के विरुद्ध राजपूत राज्यों की हार के कारण क्या थे?

तुर्की आक्रमण – तुर्कों के विरुद्ध भारतीय राज्यों का पतन एक महत्त्वपूर्ण घटना प्रमाणित हुई। इस घटना के ऐतिहासिक महत्व के कारण इतिहासकारों द्वारा इसका समुचित विवेचन अनिवार्य है।

तत्कालीन इतिहास लेखन इस विषय पर लगभग मौन ही है। इसलिए यह सहज स्वाभाविक है कि इस संबंध में विभिन्न इतिहासकार अनेकानेत तर्क प्रस्तुत करते हैं, जिनमें कुछ भ्रामक तथा पूर्वग्रहपूर्ण हैं, कुछ आंशिक रूप से सत्य हैं और इनमें से अनेक तर्क राजपूतों की पराजय को भली-भाँति स्पष्ट करते हैं। इस प्रश्न पर हम वर्तमान शताब्दी के हिंदू-मुस्लिम पूर्वग्रह अथवा आधुनिक राष्ट्रीयता के मतवाद की दृष्टि से विचार नहीं कर सकते, क्योंकि मध्ययुगीन सामाजिक तथा सांस्कृतिक बोध का धरातल सर्वथा भिन्न था। सहधर्मियों के प्रति सहज सद्भाव होते हुए भी महमूद तथा मुइज्जुद्दीन गोरी ने मध्य एशिया तथा भारत के मुस्लिम राज्यों को भी वैसे ही ध्वस्त किया, जैसे राजपूत राज्यों को। किंतु मुहम्मद हबीब के अनुसार महमूद के द्वारा किए गए विध्वंस तथा अत्याचारों के कारण भारत की जनता में इस्लाम के प्रति विद्वेष का संचार अवश्य हुआ। फिर भी पंजाब में गजनवी राज्य का अस्तित्व बना रहा। राजपूत राज्यों ने इसके और विस्तार को तो रोका किंतु, वे इन राज्यों को निर्मूल नहीं कर सके, जो भावी आक्रमणकारियों के लिए मार्गदर्शन के रूप में ही रहे।

राजपूत राज्यों की पराजय के अनेक कारण थे, जो राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सैनिक महत्त्व के हैं। इतिहासकार हसन निजामी, मिनहाज उस सिराज तथा फखेमुदब्बीर में से प्रथम दो ने तुर्की विजय को दैवी कृपा माना है। फखेमुदब्बीर ने अदब-उल-हर्ब नामक ग्रंथ में दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण सैनिक कारणों पर प्रकाश डाला है, प्रथम, तुर्की रण प्रणाली में गतिशील युद्ध तंत्र के रूप में अश्वारोही सेना की प्रमुख भूमिका और दूसरे, भारतीय पक्ष की सामंती ढाँचे की सेना की विशेष दुर्बलता।

जदुनाथ सरकार ने अरब, पठान तथा तुर्क जाति में इस्लाम द्वारा प्रदत्त तीन मूल गुणों को उनकी विजय के लिये मुख्य रूप से सहायक माना है। प्रथम, कानूनी हैसियत तथा धार्मिक अधिकार के मामले में पूर्ण रूप से सामाजिक समानता जिससे उनमें जाति भेद के स्थान पर भाईचारे की भावना का संचार हुआ। दूसरे, अपने भाग्य को पूर्ण रूप से अल्लाह के भरोसे छोङने के नियतिवादी विश्वास के कारण मुस्लिम सैनिक युद्ध में सर्वथा मृत्यु भय से मुक्त होकर लङते थे। तीसरे, नशे से मुक्त होना, क्योंकि शराब पीना कुरान के मुताबित पाप था तथा राज्य द्वारा दंडनीय था। इसके विपरीत राजपूत तथा अन्य हिंदू सैनिक नशे के कारण युद्ध भूमि में दूरदर्शी रणनीति, आकस्मिक आक्रमण के समय युद्ध कौशल प्रदर्शन करने की क्षमता खो बैठते थे। यहाँ तक कि वे अपनी सेना की समुचित सुरक्षा भी नहीं कर पाते थे। आज यह मत एक सीमा तक सारगर्भित प्रीतत होता है, परंतु अब यह सर्वमान्य नहीं रहा। भाईचारे की भावना से तुर्क विजेता कभी भी ओत-प्रोत नहीं रहे, न वे अपना कार्य पूरी तरह अल्लाह पर छोङते थे। और न वे सामाजिक कुरीतियों को पूर्ण तिलांजलि दे सके।

इस प्रश्न पर अँग्रेज इतिहासकारों के मत पर विचार करना अपेक्षित है। एलफिंस्टन का मत है कि मुइज्जुद्दीन की सेना में सिंध तथा आक्सस के बीच के क्षेत्र में रहने वाले युद्धप्रिय जाति के लोग थे जो सल्जुक तथा उत्तर के तातारी जुझारुओं से लङने में अभ्यस्त हो चुके थे। छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त भारत के सज्जन तथा शांतिप्रिय लोगों पर थोपे गए इन युद्धों से न तो उन्हें कुछ लाभ हो सकता था न ही उनका राज्य विस्तार। मुइज्जुद्दीन की सेना के पर्याप्त प्रतिरोध की आशा इनसे नहीं की जा सकती थी। लेनपूल तथा विंसेट स्मिथ का मत है कि तुर्क ठंडे प्रदेश के मांसाहारी होने के कारण अधिक शक्तिशाली योद्धा थे, इसीलिए वे भारत में सफल हुए। गहराई से विचार करने पर पता चलता है, कि इन इतिहासकारों के मत प्रायः पूर्वग्रह से ग्रस्त हैं, उदाहरण के लिए भौगोलिक तथा आहार संबंधी तर्क भ्रामक हैं। राजपूतों में भी मांसाहार की प्रथा थी। ठंडे प्रदेश के सैनिक अच्छे तथा शक्तिशाली योद्धा हों, यह तर्क भी ठंडे मुल्क के इतिहासकार ही प्रस्तुत कर सकते हैं। मुइज्जुद्दीन के ठंडे प्रदेश की सेना भारत में दो बार पराजित हुई। तुर्की आक्रमण के पहले तथा मुगल काल में भी अफगानिस्तान के बङे भूभाग पर भारतीय राज्यों का आधिपत्य रहा है। भारतीय लोग महज शांतिप्रिय ही हों,यह भ्रामक तथा इतिहास विरोधी बात है। मगध साम्राज्य के समय से तुर्कों के आगमन तक भारत का राजनीतिक इतिहास विभिन्न राज्यों के निरंतर युद्ध का इतिहास है, जैसी स्थिति मध्यकालीन यूरोप तथा मध्य एशिया में थी। इस संदर्भ में खालिक अहमद निजामी का मंतव्य समीचीन है कि 1218-1220 ई. में मंगोल आक्रमण के विरुद्ध तुर्की क्षेत्र के राज्य का विध्वंस अँग्रेज इतिहासकारों के तर्क को निरर्थक कर देता है। किंतु यह मत सही प्रतीत होता है कि तुर्कों का आक्रमण यहाँ के राज्यों पर थोपा गया था। किसी विशेष लाभ या राज्य विस्तार की आकांक्षा के अभाव में युद्ध में तुर्कों के मुकाबले अधिक उत्साह होना संभव नहीं था, जब कि वे राज्य यहाँ की भूमि पर युद्ध होने के कारण अनेक प्रकार के विनाश तथा हानि के शिकार होते गए। ऐसी स्थिति में राजपूत राज्यों की पराजय के विशेष्ट कारणों पर प्रकाश डालना सही लगता हैं, जो निम्नलिखित हैं –

राजनीतिक कारण

तुर्की आक्रमण के पूर्व भारत अनेक राज्यों में विभाजित था। इनके शासक अपने राज्य के विस्तार तथा वंश की प्रतिष्ठा के लिये एक दूसरे से निरंतर युद्धरत थे जिसके कारण इनमें आपसी ईर्ष्या-द्वेष भी प्रबल था। हर्षवर्धन तथा कुछ हद तक गुर्जर-प्रतिहारों के बाद उत्तरी भारत की भी राजनीतिक एकता क्यों समाप्त हो गई, यह एक जटिल ऐतिहासिक प्रश्न है। इस प्रश्न का तर्कसंगत उत्तर देने के लिए क्षेत्रीय स्तर के राजवंशों के उदय तथा अस्तित्व के कुछ प्रमुख कारणों की पङताल समीचीन है। इस काल में राजवंशों के प्रशासन तथा राज्य के ढाँचे में एक सीमा तक जनजातीय तत्व विद्यमान थे जो एक लंबे समय से हो रहे सामाजिक वर्गीकरण (वर्णव्यवस्था के आधार पर) की प्रक्रिया का स्वाभाविक परिणाम था। अनेक राजपूत वंशों का उदय इसी सामाजिक प्रक्रिया की देन है। वंश विशेष या समान जाति के लोग ही राज प्रशासन तथा सैनिक शक्ति के आधार थे जो जनजातीय चेतना का अंग है। इसके कारण अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिये वे युद्ध में प्राण निछावर कर देते थे और साथ ही दूसरे राजवंश की अधीनता उन्हें अपमानस्वरूप ही प्रतीत होती थी। इसके साथ ही वर्णव्यवस्था के दोष राज्य को एक स्तर पर खोखला भी कर रहे थे। प्रशासन तथा सेना के उच्च पदों पर ब्राह्मण तथा राजपूतों की अधिकांश नियुक्तियाँ वंशानुगत होती गयी। इससे एक ओर तो अन्य वर्ग तथा जाति के लोग राज्य के प्रति उदासीन होते गए और दूसरी ओर अयोग्य व्यक्ति उत्तराधिकार के रूप में उच्च प्रशासनिक पद प्राप्त करने लगे। निम्न वर्ग में संकट के समय राज्य के लिये उत्सर्ग की भावना का अभाव होना स्वाभाविक था। अनेक राज्यों के अस्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि क्षेत्रीय राज्यों की तुलना में उनकी आर्थिक स्थिति अधिक अच्छी थी, जिसका अधिकांश लाभ उत्पादकों के बजाय राज्य को प्राप्त होता था। बङी संख्या में जुझारू सैनिकों के भरण पोषण तथा अन्य प्रशासकीय व्यय के लिये समुचित आर्थिक आधार के अभाव में राज्य का अस्तित्व, विशेष रूप से अनवरत संघर्ष के युग में, कायम रह पाना संभव नहीं होता। राजनीतिक एकता के अभाव में सामंतीकरण की प्रक्रिया ने भी बङा योगदान किया। एक केंद्रीय राज्य के अंतर्गत अनेक सामंतों तथा इनके नीचे क्रमिक रूप से अन्य छोटे-छोटे सामंतों के अस्तित्व का कारण यह था कि महत्त्वपूर्ण आर्थिक स्त्रोत अर्थात् भूमि सामंतों को हस्तांतरित कर दी गयी थी। ये सामंत अपनी क्षेत्रीय चेतना तथा सैनिक शक्ति द्वारा केंद्रीय सत्ता को अधिकतर निर्बल ही करते थे। राजनीतिक विविधता का एक विशेष कारण राजपूत राज्यों की सैनिक शक्ति में असंतुलन होना है। इस कारण से तुर्की आक्रमण के पहले कम से कम उत्तरी भारत में ही राजनीतिक एकता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य लुप्तप्राय हो चुका था। तुर्कों ने एक-एक करके सभी राजपूत राज्यों को पराजित कर दिया। इसके पूर्व राजपूत राज्यों की जागरुकता के उल्लेखनीय उदाहरण मिलते हैं, जैसे 989 ई. में सुबुक्तगीन के विरुद्ध जयपाल को प्रतीहार, चौहान तथा चंदेल राजाओं ने सहायता दी और 1008 ई. में महमूद के विरुद्ध आनंदपाल को उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, दिल्ली तथा अजमेर के शासकों ने। किंतु भारत की मूल राजनीतिक दुर्बलता पर इसमें कोई अंतर नहीं पङा। राजपूत राज्यों में विदेशों की गतिविधि पर नजर रखने के लिये विदेशी राज्यों से दूतावास के स्तर पर संबंध नहीं था। जनकल्याणकारी कार्यों की उपेक्षा से वे अपने ही देश (राज्य) के सर्वसाधारण से भी दूर होते गए।

सामाजिक कारण

वर्ण तथा जाति व्यवस्था के कारण भारतीय समाज कई वर्गों में बँटा था। छुआछूत, उच्चता की भावना तथा भूस्वामियों द्वारा निम्न वर्ग के खेतिहर तथा अन्य श्रमिकों के पोषण के कारण समाज दुर्बल हो रहा था। शोषित वर्ग में देश या राज्य विशेष की सुरक्षा अथवा विदेशी आक्रमण के प्रतिरोध की भावना का होना संभव नहीं था। राजपूतों में वंशगत श्रेष्ठता की भावना ने जहाँ उनमें एक ओर आत्मविश्वास तथा साहस को बढावा दिया, वहाँ दूसरी ओर उनमें अनेक प्रकार की बुराइयों को भी जन्म दिया। वे झगङालू तथा जिद्दी होते चले गए। इसके अतिरिक्त शराबखोरी, जुआ, बहुविवाह, स्त्रियों की हीन दशा आदि बुराइयाँ समाज को अनेक दृष्टियों से कमजोर बनाती जा रही थी। साथ ही शासक वर्ग की क्षमता तथा चरित्र पर इनका प्रतिकूल प्रभाव पङता था।

उच्च वर्ग की श्रेष्ठता की धारणा के कारण वे विदेशों से भी समुचित संपर्क स्थापित नहीं कर सके और देश में पृथकतावादी प्रवृत्ति ने घर कर लिया। समुद्री यात्रा, धार्मिक अपराध माना जाने लगा। अल-बिलादुरी का कथन है, हिंदुओं को यह विश्वास है कि अन्य कोई देश उनके देश जैसा (श्रेष्ठ) नहीं है, इनके राजा के समान अन्य राजा नहीं है, उनके शास्त्रों के समान कोई शास्त्र नहीं है। यदि वे यात्रा करके अन्य देश के लोगों से मिलें तो उनका मत शीघ्र ही परिवर्तित हो जाएगा। अलबरूनी ने कहा है, कि उनके पूर्वज इतने संकीर्ण नहीं थे, जितनी कि वर्तमान पीढी है। इस अलगाववादी प्रवृत्ति की वजह से बाहरी देशों के नवीन राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा रण-कौशल संबंधी विकास के ज्ञान से भारतीय समाज लाभ नहीं उठा सका। दूसरी ओर विदेशों से भारत का भारी मात्रा में व्यापार होता था और भारत की धन संपदा तथा अन्य बातों का विदेशी आक्रमणकारियों को निश्चित ज्ञान था।

धार्मिक कारण

धार्मिक दृष्टि से भी भारत अनेक संप्रदायों तथा उप-संप्रदायों में विभक्त था। धार्मिक क्षेत्र में समन्वयवादी तथा उदारवादी प्रवृत्ति के कारण विभिन्न प्रकार के धार्मिक विश्वास तथा मान्यताएं यहाँ प्राचीन काल से ही पनप रही थी। भारतीयों की व्यक्तिवादी मनोवृत्ति इन मान्यताओं के मूल में निहित थी। इस्लामी समाज की एकता भारत के धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में असंभव थी। दूसरे धर्म द्वारा पोषित कर्म तथा संसार के दर्शन ने अधिकांश भारतवासियों को दुःख तथा दमन सहने के लिए अभ्यस्त बना दिया था। नियतिवादी तथा भाग्यवादी विश्वास के कारण भी वे विदेशी आक्रमण तथा यातनाओं को पूर्व जन्म के कर्मों का फल मानते थे, जिसकी वजह से जनसाधारण ने एकजुट होकर उनका प्रतिरोध नहीं किया।

सैनिक कारण

राजपूत राज्यों की पराजय के प्रमुख कारण सैनिक महत्त्व के हैं। जयपाल, भीम, गंड, भोज परमार, पृथ्वीराज चौहान आदि अनेक राजपूत शासक बङे योद्धा तथा साहसी सेनानायक थे। किंतु धर्मयुद्ध के आदर्श के कारण वे महमूद तथा मुइज्जुद्दीन गौरी की तुलना में कुशल सेनानायक नहीं माने जा सकते क्योंकि इनकी रणनीति तथा युद्ध प्रणाली राजपूत शासकों से निश्चित ही श्रेष्ठ थी। तुर्की सेना के मुख्य आधार थे गतिशील अश्वारोही सैनिक तथा अस्त्र के रूप में तीरंदाजी। भारतीय घोङों की अपेक्षा तुर्की घोङे कहीं अधिक अच्छी नस्ल के थे। हाथी की सेना पर राजपूतों को अधिक भरोसा था किंतु ये धीमी गति तथा विशाल आकार के होने के कारण आसानी से शत्रु के लक्ष्य बन जाते थे और कभी-कभी तीरों की बौछार से मर्माहत होकर अपनी ही सेना को रौंद डालते थे। तुर्की लोग युद्ध के अंतिम चरण में आमने-सामने की मुठभेङ के समय शत्रु दल को विनष्ट करने के लिये हाथियों का प्रयोग करते थे। तुर्की सेनानायक मध्य एशिया में विकसित विभिन्न प्रकार की रणनीति तथा युद्ध के दाँव-पेच के प्रयोग में प्रवीण थे। महमूद अपनी सेना कई दस्तों में बाँटता था जो बारी-बारी से शत्रु दल पर आक्रमण करते थे। राजपूतों की सारी सेना एक साथ मैदान में उतरती थी। जब वे लङते हुए थक जाते थे तो कोतल सेना के प्रयोग से तुर्की लोग हार की स्थिति को भी अपनी विजय में बदल देते थे। कभी-कभी तुर्की सेना का एक हिस्सा भागने के बहाने शत्रु दल को अपनी सेना के मध्य लाकर उस पर भयंकर प्रहार करता था। तुर्क लोग जहाँ पराजय के समय अपने अधिक से अधिक सैनिकों को रणभूमि से निकालने की कोशिश करते थे, वहाँ राजपूत सैनिक अंतिम क्षण तक लङते-लङते मर जाना पसंद करते थे और यह प्रवृत्ति उनकी सैनिक शक्ति को कमजोर करती थी।

राजपूतों के मुख्य रण केन्द्र किले थे जिन्हें तोङने के लिये तुर्कों के मंजनिक तथा अर्रादा नामक यंत्रों का प्रयोग बङा प्रभावशाली था। जनसाधारण की उदासीनता की मोनवृत्ति के कारण आंचलिक क्षेत्र तुर्कों की अधीनता में शीघ्र ही आ जाते थे। ऐसी दशा में नगर या किले के अंदर से अधिक दिनों तक तुर्कों का प्रतिरोध कर पाना राजपूतों के लिये अत्यन्त कठिन था। साथ ही राजपूतों की जुटाई हुई सामंती सेना राजा के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान नहीं होती थी। तुर्कों के गुप्तचर शत्रुपक्ष के भेद का ज्ञान करके उनकी दुर्बलताओं का पूरा लाभ उठाते थे। आक्रमणकारी होने के कारण युद्ध के समय तथा स्थल का चुनाव अधिकांश रूप से तुर्कों की सुविधानुसार होता था। तुर्कों को विजय से धन, यश, राज्य आदि के लाभ की लालसा थी। इस कारण उनमें युद्ध के समय अधिक उत्साह तथा जोश का होना सर्वथा स्वाभाविक था। इस प्रकार हम पाते हैं, कि राजपूतों की पराजय में तुर्कों की सैनिक श्रेष्ठता की भूमिका मुख्य थी। फिर भी राजपूत राज्यों ने उनका काफी समय तक प्रतिरोध किया। राजपूतों में तुर्की राज्य की स्थापना के बाद भी प्रतिरोध की भावना बराबर विद्यमान रही है।

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