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उत्तरी भारत में स्वतंत्र मुस्लिम राज्यों का उदय | Uttaree bhaarat mein svatantr muslim raajyon ka uday | Rise of Independent Muslim States in Northern India

उत्तरी भारत में स्वतंत्र मुस्लिम राज्यों का उदय – जब दिल्ली सल्तनत का विघटन हुआ उस समय जौनपुर, बंगाल, मालवा, गुजरात और कश्मीर के मुस्लिम राज्यों के इतिहास के बारे में हम आपको इस आर्टिकल में बतायेंगे।

जौनपुर राज्य

मुबारक शाह शर्की एवं इब्राहीम शर्की

उत्तरी भारत में स्वतंत्र मुस्लिम राज्यों का उदय

इस राज्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं में दिल्ली की लोदी सल्तनत से उसके आपसी संबंध का मामला है। अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिये मशहूर नगर जौनपुर की नींव फिरोजशाह तुगलक ने डाली थी। सन् 1394 में मुहम्मद तुगलक द्वितीय ने अपने दरबार के ख्वाजा जहान नाम से प्रसिद्ध प्रभावशाली खुसरो को मलिक-उश-शर्क (अर्थात् पूर्व का स्वामी) बनाया और जौनपुर को उसका मुख्यालय बनाया गया। इन दिनों दिल्ली सल्तनत का नियंत्रण इतना कमजोर पङ गया था कि राज्यों में हर सूबेदार व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गया था। सन 1398 ई. में तैमूर की मारकाट ने जिस समय दिल्ली सरकार को मटियामेट कर दिया उस समय ख्वाजा जहान के पुत्र ने मौके का फायदा उठाया और सन 1399 में मुबारक शाह शर्क के नाम से अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया। नए बने सुल्तान का उत्तराधिकारी जल्दी ही 1400 ई. में उसके छोटे भाई इब्राहीम को मिल गया और उसने चालीस साल तक इस समृद्ध राज्य का शासन अच्छी तरह से चलाया। इब्राहीम के पुत्र महमूद की गणना भी सफल शासकों में की जाती है। स्वतंत्र सुल्तानों में अंतिम शासक हुसैनशाह को सन 1476 में या उसके आस-पास बहलोल लोदी ने पराजित किया और उसे भगाकर बंगाल में अपने ही नामधारी व्यक्ति के पास पनाह लेने को मजबूर कर दिया।

सिकंदर लोदी के शासनकाल के आरंभ में इस बात की कोशिश की गयी कि उसेक बङे भाई बारबकशाह को संपूर्ण प्रभुतासंपन्न के रूप में जौनपुर दे दिया जाए लेकिन यह प्रयास नाकाम रहा। इसी मामले को लेकर लङाई भी हो गयी जिसमें कामयाबी दिल्ली के हाथ लगी।

इब्राहीम लोदी के राज्यारोहण के समय यह प्रयोग पुनः दोहराया गया और वह फिर असफल रहा। इब्राहीम के भाई जलाल खाँ को जौनपुर का सुल्तान बनाया गया पर उसे शीघ्र ही हराकर मार डाला गया। उस समय से इस पूर्वी राज्य ने फिर कभी अपने स्वतंत्र अस्तित्व का दिखावा नहीं किया।

जौनपुर वंश के सभी शासकों ने फारसी-अरबी साहित्य को संरक्षण प्रदान किया। विविध हिंदू स्थापत्य शैलियों के समावेश से विशेष शैली में जौनपुर में बनी मस्जिदों का समूह समकालीन प्रमुख स्मारक है। ये इमारतें प्रायः भारी-भरकम हैं, उनमें मीनारें नहीं हैं और उनकी विशेषता ढलवाँ दीवारों के साथ राजसी दरवाजों का निर्माण है। इन इमारतों का निर्माणकाल इब्राहीम, महमूद और हुसैनशाह का काल था।

बंगाल का राज्य

बंगाल के स्वतंत्र होने का समय सन् 1340 से माना जा सकता है और वह मुहम्मद तुगलक के खिलाफ फखरुद्दीन की बगावत का सीधा नतीजा था। कुछ वर्षों बाद फिरोजशाह तुगलक ने बागी राज्यों के प्रति दिल्ली की प्रभुसत्ता को तिलांजलि दे दी। बंगाल सन 1576 तक एक पृथक शासन के रूप में तब तक कायम रहा जब तक कि अकबर के सेनापतियों ने अंतिम अफगान सुल्तान दाऊदशाह को पराजित कर मौत के घाट नहीं उतार दिया। सन 1340 से 1526 के बीच दिल्ली सल्तनत का राजनीतिक अंत हो जाने और बंगाल में शासन करने वाले विभिन्न वंशों के उतार-चढाव से संबंधित कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हुई जिनमें से कुछ का विशेष महत्त्व है।

अलाउद्दीन हुसैन शाह

बंगाल के मुस्लिम सुल्तानों में श्रेष्ठ और विख्यात अलाउद्दीन हुसैन शाह (1493-1518 ई.) को माना जाता है। वह अरबी मूल का सैयद था और शमसुद्दीन मुजफ्फरशाह के शासनकाल में वजीर था। मुजफ्फरशाह को जब गद्दी से उतारकर मार डाला गया तो मुखियाओं ने सर्व सम्मति से हुसैन शाह को शासक चुन लिया और उसने इस चुनाव को ठीक साबित भी किया। यही कारण है कि उसका नाम आज भी समूचे बंगाल में जाना जाता है। यह अजीब संयोग रहा है कि चौबीस साल तक उसके शासनकाल के दौरान एक भी विद्रोह नहीं हुआ। प्रजा के प्रिय और आसपास के प्रदेश में सम्मानित शासक के रूप में शांतिपूर्वक सुख भोग करके उसने गौर में अंतिम साँस ली। अपने हमनाम जौनपुर के भगोङे का उशने खातिरदारी के साथ स्वागत किया था।

नुसरतशाह

हुसैन शाह के अठारह पुत्र थे। अमीरों ने उसके सबसे बङे बेटे नुसरत शाह को उसका उत्तराधिकारी चुना। उसने अपने भाइयों के प्रति स्नेह और उदारता का व्यवहार किया। उसने तिरहुत पर अधिकार कर लिया और बाबर से सम्मानपूर्वक शांति संधि की। कहा जाता है, कि अपने आखिरी वर्षों में वह दुष्ट और अत्याचारी हो गया था।

गौर और बंगाल के अन्य पुराने नगरों की मस्जिदें पूरी तरह एक विशिष्ट शैली में ईंटों से बनाई गयी हैं। इनमें गौर का हुसैन शाह का मकबरा, उसके शासनकाल में बनी सुनहरी मस्जिद, और नुसरत शाह के समय बनी बङी सुनहरी मस्जिद तथा कदम रसूल समकालीन विशिष्ट स्मारक हैं। गौर से बीस मील दूर पांडुआ की विशाल अदीना मस्जिद सिकंदर शाह ने सन 1368 में बनवाई थी। उसमें करीब चार सौ गुंबद हैं और वह बंगाल की सबसे उल्लेखनीय इमारत मानी जाती है। गौर के विस्तृत खंडहर बीस से तीस वर्गमील के बीच के इलाके में फैले हुए हैं.

मालवा राज्य

बंगला साहित्य के एक प्रसिद्ध पुराने इतिहासकार दिनेशचंद्र सेन ने कहा है कि बंगला में सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ संस्कृत रामायण की कृत्तिवास द्वारा अनूदित बंगला-रामायण है। कृतिवास का जन्म सन 1346 में हुआ था तथा इस ग्रंथ को बंगला की बाइबिल कहा जाता है। बंगाल में इस ग्रंथ का वही स्थान है जैसा कि तुलसी द्वारा रचित रामचरितमानस का उत्तर भारत में है। बंगाल के सुल्तान ऐसे भी थे जो भारतीय साहित्य के सौष्ठव के प्रति उदासीन नहीं थे। नुसरत शाह के हुक्म से महाभारत का एक बंगला संस्करण भी तैयार कराया गया था। इस काव्य का आरंभिक वर्णन चौदहवीं सदी का माना जाता है और दूसरा हुसैन शाह के समय का जो सेनापति परागल खाँ के हुक्म से तैयार किया गया था। पुराने बंगला साहित्य में इस बात के पर्याप्त उल्लेख हैं कि सुल्तान हुसैन शाह के प्रति हिंदू बहुत अधिक आदर और प्रतिष्ठा रखते थे। वस्तुतः सच्चाई यह है कि हिंदू राजाओं के दरबारों में बंगला भाषा को मान्यता मिलने से पूर्व मुस्लिम सुल्तानों और सरदारों ने सबसे पहले बंगला को अपना संरक्षण एवं समर्थन प्रदान किया जब कि हिंदू राजा ब्राह्मण अध्यापकों की प्रेरणावश संस्कृत भाषा को अधिक प्रोत्साहन देना चाहते थे।

इल्तुतमिश ने तेरहवीं सदी के आरंभ में मालवा पर हमला किया था। सन 1310 में अलाउद्दीन खिलजी के एक अधिकारी ने उसे कमोबेस अपने अधिकार में कर लिया और फिर दिल्ली सल्तनत का पतन होने तक मालवा मुस्लिम सूबेदारों के शासन के शासन में बना रहा।

सन् 1398 में तैमूर के हमले के थोङे ही समय बाद गौर के सूबेदार शिहाबुद्दीन मुहम्मद ने सुल्तान शिहाबुद्दीन गोरी का नाम अपनाया और वह नया सुल्तान बन बैठा। किंतु वह अपनी नई स्थिति का उपभोग कुल चार साल तक ही कर पाया। यह विचार भी व्यक्त किया गया है कि उसके सबसे बङे पुत्र ने उसे जहर देकर मार डाला। इस तरह स्थापित स्वतंत्र राज्य सन 1401 से 1531 तक चल सका और बाद में गुजरात ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। चार साल बाद हुमायूँ ने यह देश अस्थायी तौर पर अपने अधीन कर लिया। लेकिन मुगल साम्राज्य का हिस्सा वह पूरी तरह से अकबर के शासनकाल के आरंभिक वर्षों (1561-64ई.) में ही बन पाया। मालवा के मुस्लिम राज्य के राजनीतिक वृत्तांतों में स्थायी दिलचस्पी के तत्व बहुत थोङें है — जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं मांडू की शानदार इमारतें।

धार या धारानगरी मालवा की परमार कालीन राजधानी थी। मालवा के प्रसिद्ध विद्वान और विद्याप्रेमी शासक भोज के शासनकाल में धार एक प्रसिद्ध नगर था। लेकिन होशंगशाह की पदवी धारण करने वाले मालवा के एक मुस्लिम सुल्तान ने अपना दरबार मांडू स्थानांतरित कर लिया। यहाँ उसने अनेक उल्लेखनीय स्मारक बनवाए। इसी बीच गुजरात के साथ लङे गये एक युद्ध में वह पराजित हुआ और साल भर तक गुजरात में बंदी भी बना रहा। लेकिन उसे फिर गद्दी पर बैठा दिया गया। गुजरात के शासकों के अनुग्रह से प्राप्त इस सत्ता पर वह सन 1432 तक बना रहा। बाद में उसका पुत्र और गोरी वंस का तीसरा अंतिम शासक सुल्तान महमूद उसकी जगह गद्दी पर बैठ गया।

खिलजी वंश

सन् 1436 में सुल्तान महमूद गोरी को उसके वजीर खिलजी तुर्क महमूद खाँ ने जहर देकर मार डाला और तख्त पर कब्जा करके खलजी वंश की नींव डाली जो करीब एक शताब्दी तक चलता रहा। वह मालवा के समकालीन सुल्तानों में सबसे अधिक विख्यात हुआ और उसने अपना अधिकांश जीवन गुजरात के सुल्तानों, राजस्थान के विभिन्न राजाओं और बहमनी सुल्तानों जैसे अपने पङोसियों से युद्ध करते रहने में बिताया। फरिश्ता ने महमूद द्वारा अवैध और अनियमित तरीके से गद्दी हासिल करने को नजरअंदाज करके उसके न्याय को प्रशंसनीय बताते हुए उसका सामान्य चरित्र अच्छा बताया है। उसके अनुसार सुल्तान महमूद विनम्र, साहसी, न्यायप्रिय और विद्वान था और उसके शासन में उसकी मुस्लिम और हिंदू, दोनों ही प्रजाएँ सुखी थी और उनमें आपस में दोस्ताना मेल जोल कायम रहता था। ऐसा कोई वर्ष मुश्किल से ही जाता होगा जब कि वह मैदान में न उतरता हो। इस तरह शिविर उसका घर बन गया था और युद्ध का मैदान उसके लिये आरामगाह था। वह अपने फुरसत के क्षण दुनिया के विभिन्न राजदरबारों के इतिहासों और संस्मरणों को सुनने में व्यतीत करता था। उसके समय में हिंदुओं के साथ सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। आगे चलकर उसी सदी में यही विवेकपूर्ण नीति हुसैन शाह ने बंगाल में अपनाई थी। चित्तौङ के राणा के साथ महमूद खिलजी का युद्ध स्पष्टतः अनिर्णीत रहा होगा, क्योंकि राणा ने अपनी तथाकथित विजय की स्मृति में चित्तौङ में विजय स्तंभ बनवाया था। सुल्तान ने भी इसी तरह का दावा करते हुए मांडू में एक सातमंजिली उल्लेखनीय मीनार बनवाई। यह स्मारक दुर्भाग्य से गिर गया और इतनी बुरी तरह से ध्वस्त हो गया कि उसका वास्तविक स्थान निश्चित करने में पुरातत्व विभाग को काफी दिक्कत का सामना करना पङा।

सुल्तान नासिरुद्दीन

अगले सुल्तान गयासुद्दीन (1469-1501ई.) के पुत्र नासिरुद्दीन ने उसे जहर दे दिया। नया सुल्तान जब सत्ता में आया तो दुष्ट साबित हुआ किंतु वह 1512 ई. में बुखार से मर गया और उसकी जगह पर इस वंश का अंतिम सुल्तान उसका पुत्र महमूद द्वितीय गद्दी पर आसीन हुआ। कुछ समय बाद उसे गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने पराजित करके मार डाला। शाही परिवार के अन्य पुरुषों को देश निकाला दे दिया गया और उनमें सिर्फ एक सदस्य शेष रह गया जो सौभाग्यवश उस समय हुमायूँ के दरबार में था। 1531 ई. में मालवा को गुजरात में शामिल कर लिया गया।

मांडू का ध्वस्त किला नगर की ऊँची पहाङी के ऊपर लंबे-चौङे मैदान में फैला है और करीब पच्चीस मील या इससे भी ज्यादा लंबे परकोटे की दीवार से घिरा है। यहाँ मांडू में अभी अनेक सुपरिचित विशाल इमारतें हैं, जिनमें वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूने मौजूद हैं। एक भव्य जामा मस्जिद, हिंडोला महल, जहाज महल, होशंगशाह का मकबरा और बाजबहादुर एवं रानी रूपमती के महलों के अलावा बलुआ पत्थर और संगमरमर से बने अनेक उल्लेखनीय स्मारक शामिल हैं।

गुजरात का राज्य

गुजरात, उत्तर में राजस्थान के अंतर्गत सिरोही के पङोस और भिम्माल से लेकर दक्षिण में दक्कन तक और पूर्व में मालवा की हदों से लेकर पश्चिम में समुद्र और कच्छ के रन तक फैला हुआ माना जा सकता है।

इस राज्य की मुख्य भूमि अनेक अफगान प्राकृतिक सुविधाओं से परिपूर्ण थी। गुजरात में बहुत अधिक उपजाऊ जमीन, तैयार माल की भरपूर आपूर्ति और अनेक बंदरगाह थे। यहाँ अत्यंत प्राचीन काल से समृद्ध समुद्री व्यापार होता आ रहा था। उत्तर और पश्चिम भारत पर विजय प्राप्त करने वाले सभी राजवंशों का ध्यान ऐसे धन-धान्य से संपन्न प्रदेश की और आकर्षित हो जाना स्वाभाविक ही था। सन् 1024 या 1025 में सुल्तान महमूद गजनवी ने अपने प्रसिद्ध सोमनाथ अभियान के दौरान सोमनाथ मंदिर का विनाश करके अपनी सेना को लूट का काफी माल बाँटा था। लेकिन उस समय भी स्थायी विजय का कोई प्रयास नहीं किया गया। बारहवीं सदी के उत्तरार्ध में हुए अन्य मुस्लिम आक्रमण भी किसी भी प्रकार का स्थायी नतीजा प्रदान करने में असफल रहे और इस देश पर हिंदू राजवंशों का शासन बना रहा। सन 1297 में अलाउद्दीन खलजी ने इसी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। इसके बाद दिल्ली सल्तनत के स्थायित्व तक दिल्ली से गुजरात में मुस्लिम सूबेदारों का नियुक्त होना जारी रहा।

सन 1391 में नियुक्त अंतिम सूबेदार जफर खाँ ने, जो कि व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र रहता आया था, सन 1401 में औपचारिक तौर पर दिल्ली सल्तनत की अधीनता त्याग दी और अपने पुत्र तातार खाँ को नासिरुद्दीन मुहम्मद शाह की पदवी देकर सुल्तान के रूप में गुजरात के स्वतंत्र राज्य के सिंहासन पर बैठा दिया। तत्कालीन तथ्यों की छानबीन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इस नए सुल्तान को 1407 ई. में उसके पिता ने ही जहर दे दिया। लेकिन चार साल बाद ही इस बूढे आदमी को, जो कि सुल्तान मुजफ्फरशाह बन बैठा था, उसके पौत्र अलप खाँ ने जहर दे दिया और स्वयं अहमदशाह नाम से तख्त पर आसीन हो गया।

अहमदशाह

अहमदशाह ने सन 1411 से 1441 अर्थात तीस साल तक शासन किया और उसे ही गुजरात के स्वतंत्र राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। अहमदशाह ने अपनी शक्ति और कौशल को अपने साम्राज्य की सीमाएँ बढाने और अपने राज्य का प्रशासन सुधारने में लगाया। अपने पूरे शासनकाल में उसने कभी भी पराजय का मुँह नहीं देखा। उसकी सेनाओं ने मालवा की सल्तनत और असीरगढ तथा राजपूताना तथा आस-पास के अन्य प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। सुल्तान अहमदशाह सुल्तान फीरोजशाह बहमनी का अत्यंत करीबी मित्र था। अहमदशाह ने गुजरात में स्थापत्य के विकास में भी महान योगदान दिया और असावल के निकट अहमदाबाद नगर बसाया। नव स्थापित अहमदाबाद नगर इतना सुंदर था कि समकालीन यात्रियों के अनुसार इतना सुंदर और आकर्षक नगर उन्होंने सारी दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं देखा।

सुल्तान महमूद बेगङा

अहमदशाह का पौत्र सुल्तान महमूद बेगङा तेरह साल की उम्र में सन 1459 में गद्दी पर बैठा और उसने 1511 तकक लगभग आधी शताब्दी तक यशस्वी ढंग से शासन चलाया। वह अपने वंश का सबसे प्रतापी शासक ही नहीं था वरन समकालीन भारत के सर्वाधिक प्रमुख शासकों में उसकी गणना की जाती थी। उसकी उपलब्धियाँ और व्यक्तिगत गुण इतने उल्लेखनीय हैं कि समकालीन पर्यटक उसकी कीर्ति-कथाओं को गाथाओं के रूप में अपने साथ यूरोप ले गए। अपने राज्यारोहण के समय यद्यपि वह बालक मात्र था तथापि ऐसा लगता है कि उसने शासन के आरंभ से ही बहुत समझदारी और योग्यता से शासन करना आरंभ किया और अपने संरक्षक को अलग कर देने में समर्थ हो गया। उसने गुजरात के राज्य को गौरव और महानता प्रदान की। वह गुजरात के अपने पूर्ववर्ती एवं परवर्ती शासकों में सर्वश्रेष्ठ था। वह न्याय के निर्वाह, उदारता के प्रदर्शन, युद्ध में विजय और इस्लाामी कानूनों आदि सबके क्रियान्वयन में शक्ति, साहस और संकल्प की प्रतिमूर्ति था और बचपन से वृद्धावस्था तक उसके श्रेष्ठ व्यक्तित्व में कोई अंतर नहीं आया। अपने अधिकांश युद्धों में वह सर्वत्र सफल रहा। उसने बङौदा के पूर्वोत्तर में स्थित चांपानेर के मजबूत किले और काठियावाङ से जूनागढ तक फैले विशाल भूभाग पर विजय पाई। उसने कच्छ पर सफल आक्रमण किया और अहमद नगर के निजामशाही सुल्तान के साथ-साथ अन्य अनेक समकालीन नरेशों को भी पराजित किया।

अपने शासन काल के अंतिम दिनों में उसकी पुर्तगालियों से लङाई हो गयी थी, किंतु उसने पुर्तगालियों के खिलाफ तुर्की के सुल्तान से संधि कर ली। इस तरह उसने यूरोप के राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रसिद्धि प्राप्त की। 1507 ई. में एक गुजराती अधिकारी ने पुर्तगालियों पर हमले के लिये कुछ तुर्क सेनाओं और दस जहांजों की सहायता प्राप्त की। तुर्की की आटोमन सरकार पुर्तगालियों को भारतीय सामुद्रिक प्रदेशों से बाहर खदेङने के लिये बहुत उत्सुक थी। पुर्तगालियों के विरुद्ध पिछले आक्रमण के दौरान गुजराती सेनाओं को सफलता मिल गयी थी और उन्होंने बंबई के दक्षिण में चोल के पास कीमती माल से लदे एक विशाल पुर्तगाली जहाज को डुबो दिया था। लेकिन दो साल बाद 1509 ई. में काठियावाङ में दीव के पास (जो कि उस समय गुजरात में शामिल था) हुए एक युद्ध में एक गुजराती जहाजी बेङा नष्ट कर दिया गया। इसके बाद 1510 ई. में बीजापुर से गोआ छीन लेने के बाद पुर्तगाली, भारतीय शक्तियों के प्रतिरोध के बावजूद, अपना प्रभुत्व बनाए रखने में सफल हो गये हालाँकि 1535 ई. तक वे दीव का किला नहीं जीत पाए। पुर्तगालियों के विरुद्ध महमूद बेगङा का प्रतिरोध इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है कि अकबर अपने तमाम प्रयासों के बावजूद पुर्तगालियों का पूरी तरह दमन नहीं कर पाया।

महमूद की व्यक्तिगत विशेषताओं को उसके समकालीन शासकों द्वारा बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता था और उसका नाम यूरोप में जाना जाता था। इतालवी यात्री लुदौविको दि वारयमा ने उसकी कीर्ति को यूरोप तक पहुँचा दिया।

सुल्तान बहादुर शाह

महमूद बेगङा के पौत्र बहादुरशाह ने सन 1526 के उत्तरार्ध से 1537 तक शासन किया और उसके बाद ही पुर्तगालियों के हाथों दुःखद मौत से उसके बेचैनी से भरे जीवन का अंत हो गया। मालवा के सुल्तान महमूद द्वितीय खलजी को पराजित कर सन 1531-32 में मालवा का गुजरात में विलय करके उसने अपने महान सैनिक गौरव की स्थापना की। 1534 ई. में उसने चित्तौङ पर आक्रमण किया जिसका विवरण इतिहास में सर्विविदित है।

अगले साल (1535 ई. में) मुगल बादशाह हुमायूँ ने बहादुरशाह को पूरी तरह से पराजित करके उसे गुजरात के बाहर खदेङ दिाय और मालवा में पनाह लेने को मजबूर कर दिाय। चांपानेर के किले पर हुमायूँ ने बङी वीरता के साथ अधिकार किया पर अपने अफगना प्रतिद्वंदी शेरखाँ (बाद में शेरशाह) की आक्रामक गतिविधियों के कारण हुमायूँ को पश्चिमी भारत की अपनी इस विजयस्थली से शीघ्र ही वापस जाना पङा। परिणामस्वरूप बहादुरशाह अपने राज्य में लौट आने में सफल हो गया।

पुर्तगालियों और गुजरात की सरकार के बीच आपसी संबंध आमतौर पर शत्रुतापूर्ण रहे, लेकिन बाद में मुगलों के दबाव के कारण बहादुरशाह को इस बात के लिये विवश होना पङा कि वह बेसिन के क्षेत्र का समर्पण करके पुर्तगालियों से मुगलों के विरुद्ध सहायता का वायदा कराने के लिये विदेशियों के साथ समझौता कर ले। इसी संबंध में उसे व्यापारिक केंद्र के रूप में दीव के अत्यंत महत्त्वपूर्ण बंदरगाह और किले के विषय में समझौते के प्रसंग में उसे पुर्तगाली गवर्नर नुनो दा कुन्हा से समझौता वार्ता के लिये पुर्तगाली जहाज पर जाना पङा। उक्त जहाज पर घटित घटना के बारे में कम से कम आठ तरह के अलग-अलग वृत्तांत मिलते हैं, जिनमें चार पुर्तगाली हैं और चार मुस्लिम। इनमें एक विवरण लगभग स्वीकार किया जाने लगा है कि गुजरात का सुल्तान जहाज से उस समय गिर गया जब कि वह समुद्र में जा रहा था। उसी समय एक नाविक ने उसके सिर पर प्रहार किया। सुल्तान की उम्र उस समय कुल 31 साल की थी। दीव के बंदरगाह के कप्तान मैमुअल डिसूजा को भी इसी समय अपनी जान से हाथ धोना पङा।

सन 1537 में बहादुरशाह की मृत्यु के समय से लेकर 1572-73 ई. में अकबर द्वारा राज्य को हथिया लिए जाने तक का गुजरात का इतिहास जटिल घटना-चक्रों का दस्तावेज है।

गुजरात में एक विशिष्ट कला विधि का विकास हुआ। यह कलात्मक उपलब्धि थी, वास्तुकृतियों में प्रयुक्त लकङी पर बहुत सुंदर नक्काशी । इस नक्काशी से भवन अपूर्व सुंदर हो गए। गुजरात के मुस्लिम शासकों ने थोङे बहुत परिवर्तनों के साथ गुजरात की पुरानी हिंदू और जैन वास्तुकला के आकर्षक रूप को अपनाया और अहमदाबाद, खंभात तथा अन्य अनेक नगरों को ऐसी इमारतों के समूहों से भर दिया, जो वास्तु सौन्दर्य की दृष्टि से अद्वितीय थे और जिन्हें पत्थर की अत्यंत बारीक जाली एवं अन्य अलंकरणों के द्वारा सुसज्जित किया गया था। इन उत्कृष्ट इमारतों की दृष्टि से अहमदाबाद विशेष रूप से समृद्ध है और अपनी स्थापना से लेकर अठारहवीं सदी तक लगभग तीन शताब्दी लंबे अपने गौरवशाली अस्तित्व काल में वह निर्विवाद रूप से दुनिया के सबसे खूबसूरत नगरों में से एक रहा है।

कश्मीर का राज्य

14 वीं शताब्दी के आरंभ में ही शाहमिर्जा अथवा मीर नामक स्वात के साहसकर्मी मुसलमान ने (जो कि कश्मीर के राजा का मंत्री रह चुका था) कश्मीर के सिंहासन पर अधिकार कर लिया और वहाँ एक मुस्लिम वंश की स्थापना की जो लगभग सोलहवीं शताब्दी के मध्य तक स्थायी रहा। अल्पकालिक चाक वंश को अकबर ने 1586 में नष्ट कर दिया।

सुल्तान सिकंदर

सन 1398 में हुए तैमूर के आक्रमण के समय कश्मीर पर इस वंश का छठा सुल्तान सिकंदर (लगभग 1386-1410ई.) शासन कर रहा था। सिकंदर के शासन की सबसे महान सफलता तैमूर के संभावित आक्रमण से कश्मीर की रक्षा थी। सिकंदर साँवले रंग और क्रूर प्रकृति का रौबीला व्यक्ति था।

सुल्तान जैनुल आबिदीन

सन 1417 तक लगभग आधी सदी का लंबा और समृद्धिपूर्ण शासन चलाने वाला आठवाँ सुल्तान जैनुल आबिदीन बिल्कुल ही अलग किस्म का व्यक्ति था। उसने सर्वव्यापी सहिष्णुता की नीति अपनाई, कश्मीर के निर्वासित ब्राह्मणों को वापस बुलाया, जजिया उठा लिया और नए मंदिरों के निर्माण की अनुमति प्रदान की। वह मांस खाने से दूर रहा और उसने गौ हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया। उसे संतों के समान आदर प्राप्त हुआ जो उसके व्यक्तित्व को देखते हुए उचित ही था। उसने साहित्य, चित्रकला और संगीत को भारी प्रोत्साहन दिया तथा संस्कृत, अरबी और अन्य भाषाओं की महत्त्वपूर्ण रचनाओं के अनेक अनुवाद किए। इन गुणों में उसकी अकबर से काफी समानता थी।

कश्मीर के अन्य सुल्तानों के शासनकाल इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं कि यहाँ उनके शासन की घटनाओं को शामिल किया जा सके। इसके कुछ समय बाद ही मिर्जा हैदर गुगलत नामक हुमायूँ के एक रिश्तेदार ने कश्मीर घाटी पर हमला किया और ग्यारह वर्ष (1541-52) तक हुमायूँ की ओर से केवल नाम मात्र के लिये सूबेदार के रूप में (लेकिन व्यवहार में स्वतंत्र राजा के समान) कश्मीर पर शासन करता रहा। किंतु कुछ ही वर्ष ही बीते थे कि वहाँ के सिंहासन पर चाक वंश का अधिकार कर लिया।

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