इतिहासराजस्थान का इतिहास

ब्रिटिश आधिपत्य काल में प्रशासनिक, न्यायिक एवं सामाजिक परिवर्तन

ब्रिटिश आधिपत्य काल में प्रशासनिक, न्यायिक एवं सामाजिक परिवर्तन – ब्रिटिश आधिपत्य काल में प्रशासनिक, न्यायिक एवं सामाजिक परिवर्तन हमें दो अर्थों की सूचना देता है – प्रथम तो, मध्यकाल से भिन्नता और दूसरा, नये दृष्टिकोण का आविर्भाव।

मध्यकाल में राजपूत-मुगल सहयोग के परिणामस्वरूप राजस्थान के राज्यों पर शनैःशनैः मुगल प्रशासन का प्रभाव पङने लगा। धीरे-धीरे लगभग सभी राजपूत राज्यों ने अपने प्रशासन को मुगल प्रशासन के अनुकूल ढाल दिया। मध्यकाल में राजस्थानी शासकों के निजी स्वार्थ, मुगल दरबार में अपना महत्त्व बढाने की होङ, मुगलों के अनुरूप उनका भोग विलासी जीवन, परंपरागत विचारों एवं संस्थाओं के प्रति उनकी कट्टरवादिता, प्रदेश का असंगठित स्वरूप आदि के कारण विकास की प्रक्रिया में राजस्थान बहुत पीछे रह गया। किन्तु एक विशिष्ट ऐतिहासिक घटना चक्र ने परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। मुगल साम्राज्य का पतनोन्मुख होना, राजस्थानी राज्यों में पारस्परिक संघर्ष एवं गृह कलह, राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रवेश, मराठों के हाथों राजस्थानी राज्यों की बर्बादी, पिण्डारियों की लूटमार, शासकों और सामंतों के पारस्परिक झगङे और राजस्थानी राज्यों पर ब्रिटिश आधिपत्य की स्थापना आदि ऐसा विशिष्ट घटना चक्र था जिसने मध्यकालीन जङता का समाप्त कर एक नवीन दृष्टिकोण उत्पन्न किया। राजस्थानी राज्यों पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित हो जाने के फलस्वरूप, ब्रिटिश अधिकारियों के राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप एवं उनके परामर्श से यहाँ पुरातन व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था स्थापित होने लगी। राजस्थानी राज्यों में स्थापित होने वाली इस नई व्यवस्था को ही परिवर्तन अथवा प्रशासनिक विकास कहा जाने लगा।

नई व्यवस्था की पृष्ठभूमि

सन् 1817-18 ई. में राजस्थानी राज्यों और कंपनी सरकार के मध्य हुई संधियों के फलस्वरूप अब राजपूत शासकों को बाह्य आक्रमण का भय पूरी तरह समाप्त हो गया तथा राज्यों के आपसी विवाद, शासकों और सामंतों के आपसी विवाद और नये शासक को मान्यता प्रदान करने में सर्वोच्च सत्ता के रूप में कंपनी सरकार की निर्णायक भूमिका ने राजपूत राज्यों पर कंपनी सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया। राजस्थानी राज्यों के आंतरिक प्रशासन पर अपना वास्तविक नियंत्रण स्थापित करने हेतु कंपनी सरकार ने एक और महत्त्वपूर्ण कदम आगे बढाया। उसने राजस्थानी राज्यों की राजधानियों में अपने रेजीडेन्ट अथवा पोलीटिकल एजेन्ट नियुक्त किये। 19 वीं शताब्दी के अंत तक राजस्थान में तीन रेजीडेन्सियाँ (मेवाङी रेजीडेन्सी, पश्चिमी राजपूताना रेजीडेन्सी और जयपुर रेजीडेन्सी), पाँच ऐजेन्सियाँ (पूर्वी राजपूतान ऐजेन्सी, हाङौती और टोंक एजेन्सी, अलवर ऐजेन्सी, कोटा ऐजेन्सी और बीकानेर ऐजेन्सी) और एक कमिश्नरी (अजमेर कमिश्नरी) स्थापित हो चुकी थी। प्रारंभ में दिल्ली स्थित रेजीडेन्ट को राजस्थानी राज्यों पर नियंत्रण रखने का दायित्व सौंपा गया। किन्तु 1832 ई. में राजस्थानी राज्यों पर नियंत्रण रखने का दायित्व सौंपा गया। किन्तु 1832 ई. में राजस्थानी राज्यों पर नियंत्रण रखने के लिये अजमेर में राजपूताना रेजीडेन्सी स्थापित की गयी और इसकी व्यवस्था के लिये ए.जी.जी. (एजेण्ट टू द् गवर्नर-जनरल) की नियुक्ति की गयी। राजपूताना रेजीडेन्सी की स्थापना और ए.जी.जी. की नियुक्ति का मुख्य उद्देश्य राजपूत राज्यों पर ब्रिटिश आधिपत्य को अधिक मजबूत बनाना था। 1845 ई. में ए.जी.जी. का कार्यालय अजमेर से माउण्ट आबू स्थानान्तरित कर दिया गया। इस व्यवस्था के फलस्वरूप राजस्थानी राज्यों के आंतरिक प्रशासन पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया। अब राज्यों के अव्यवस्थित प्रशासन को व्यवस्थित किया जा सकता था।

राजस्थानी राज्यों पर अपनी सर्वोपरि सत्ता स्थापित करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने राज्यों के आंतरिक प्रशासन पर अपना पूर्ण वर्चस्व स्थापित करने तथा अपने आर्थिक हितों में वृद्धि करने की दृष्टि से राज्यों में अपने समर्थक सामंतों और मुत्सद्दियों को प्रशासन में प्रभावशाली एवं शक्तिशाली बनाने में अत्यधिक रुचि ली, फिर भी ब्रिटिश सरकार को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। उदाहरणार्थ, दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट ऑक्टरलोनी ने जयपुर में ब्रिटिश समर्थक प्रधान मंत्री (दीवान) रावल बैरीसाल से आग्रह किया कि जयपुर राज्य में आयातित ब्रिटिश वस्तुओं पर से चुँगी कर समाप्त कर दे अथवा केवल नाममात्र का कर लगाये। किन्तु रावल बैरीसाल ने ऑक्टरलोनी के इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया।इसी प्रकार, राज्यों में व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करने के बदले व्यापारियों से राहदारी शुल्क वसूल किया जाता था। ब्रिटिश सरकार अँग्रेज व्यापारियों के हितों को ध्यान में रखते हुए इस शुल्क में कमी कराना चाहती थी और इसके लिए ब्रिटिश सरकार को लंबे समय तक संघर्ष करना पङा था। राज्यों में ब्रिटिश समर्थक पदाधिकारियों के होते हुए भी खिराज वसूली के लिये ब्रिटिश सरकार को बार-बार सख्त कदम उठाने पङे थे। तथ्य की बात तो यह है कि शासक विरोधी सामंत वर्ग भी परंपरागत मान्यताओं के विरुद्ध ब्रिटिश सरकार के सहयोग करने को तैयार नहीं था। परंपरावादी सामंतों के भय के कारण शासक वर्ग भी प्रशासन में परिवर्तन करने में हिचक रहा था। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने परंपरागत शासन व्यवस्था पर से सामंतों का प्रभाव समाप्त कर शासन व्यवस्था में परिवर्तन करने का निश्चय किया। किन्तु उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रशासन में परिवर्तन करने में ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य न तो स्वच्छ प्रशासन प्रदान करना था और न राज्यों की उन्नति करना था, बल्कि परिवर्तन की ओट में किसी न किसी रूप में ब्रिटिश हितों को लाभ पहुँचाना था। ऐसी स्थिति में पुरातन व्यवस्था, जिसमें शासक तथा सामंत सत्ता के केन्द्र थे, अब टूटने लगी तथा पोलीटिकल एजेण्ट अथवा रेजीडेण्ट सत्ता का केन्द्र बन गया। सर्वप्रथम न्यायिक सुधारों की तरफ ध्यान दिया गया।

न्याय व्यवस्था में परिवर्तन

राजस्थानी राज्यों की परंपरागत न्याय व्यवस्था में न्याय और शासन विभाग एक ही थे। न्यायालयों में, मुकदमों का लिखित रिकार्ड नहीं रखा जाता था तथा गवाही देने के नियम भी सरल थे।

प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन
रेल एवं संचार व्यवस्था में परिवर्तन
सामाजिक जीवन में परिवर्तन
आधुनिक शिक्षा
References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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