इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजपूतों की पराजय के कारण

राजपूतों की पराजय के कारण

राजपूतों की पराजय के कारण

राजस्थान के विभिन्न राजपूत राजाओं को लंबे समय तक तुर्कों द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत से संघर्ष करना पङा। दोनों के संबंध हमेशा शत्रुतापूर्ण रहे। कई बार राजपूत तुर्कों के बढते हुये प्रभाव को नियंत्रित करने में सफल भी रहे। परंतु वे दिल्ली सल्तनत के राजनीतिक प्रभाव में होने वाले उतार चढाव का समुचित लाभ न उठा सके।

परिणाम यह निकला कि 1300 ई. से लेकर 1312 ई. के मध्य उन्हें एक-एक करके खिलजी सुल्तान के आगे नतमस्तक होना पङा और उनकी स्वतंत्रता का अंत हो गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुल्तान अलाउद्दीन को रणथंभौर, चित्तौङ और जालौर को जीतने के लिये कठोर परिश्रम एवं संघर्ष करना पङा, फिर भी, हमारे सामने अनायास ही यह प्रश्न उठ खङा होता है कि दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध लङे गये

इस दीर्घकालीन संघर्ष में राजपूतों को पराजय का सामना क्यों करना पङा? उनमें शूरवीरता, पराक्रम तथा रणनिपुणता की कमी नहीं थी, फिर भी वे असफल रहे। उनकी असफलता के लिये कई कारणों को उत्तरदायी ठहराया जाता है, उनमें से कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

राजपूत शासकों में एकता का अभाव

प्रारंभिक तुर्क आक्रान्ताओं और दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों के विरुद्ध की असफलता का एक मुख्य कारण उनमें आपसी सहयोग तथा एकता की कमी था। यह ठीक है कि राजपूतों के पास शौर्य की कमी न थी और उन्होंने मुसलमानों का डट कर मुकाबला भी किया

परंतु उनके साधन सीमित थे और अपने सीमित साधनों के सहारे अपने निजी बलबूते पर वे दिल्ली सल्तनत के सामने अधिक समय तक टिक नहीं पाये। दिल्ली सुल्तानों को साधनों का कभी अभाव न रहा था। यदि इन अभियानों के समय अन्य राजपूत राज्यों ने दुर्ग में घिरे राजपूतों की सहायता के लिये मिलजुल कर घेरा डालने वाली मुस्लिम सेना पर आक्रमण किया होता तो मुस्लिम सेना दो पाटों के बीच में पिस जाती और कभी सफलता नहीं मिल पाती।

परंतु राजपूत शासक अपने आपको अपने पर्वतीय दुर्ग में सुरक्षित समझते थे और उन्हें दूसरे राज्यों के संकट से कोई लेना-देना नहीं रहता था। उदाहरण के लिये यदि रणथंभौर की घेराबंदी के समय चित्तौङ अथवा जालौर के शासकों ने हम्मीर की सहायतार्थ घेरा डालने वाली खिलजी सेना पर आक्रमण किया होता तो अलाउद्दीन का वहाँ अधिक समय तक टिके रहना ही असंभव हो जाता। रणथंभौर से चित्तौङ और जालौर अधिक दूरी पर न थे।

राजपूतों की पराजय

वे शत्रु सेना के रसद तथा सहायता मार्गों की सरलता के साथ नाकेबंदी कर उसे संकट में डाल सकते थे। इसी प्रकार, जब अलाउद्दीन ने सिवाना पर आक्रमण किया तो 30-35 मील की दूरी पर बैठा जालौर का कान्हङदेव शाही सेना को परेशान करने के लिये जालौर से सिवाना की तरफ नहीं आया।

खिलजियों के पतन के बाद भी राजपूत शासक दिल्ली सल्तनत की तत्कालीन निर्बलता का लाभ उठाने के स्थान पर अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों को बढाने के लिये अपने ही लोगों पर चढ बैठे। इस प्रकार के अन्य बहुत से उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनमें आपसी सहयोग तथा एकता की कमी थी और मुसलमानों को एक के पश्चात दूसरे राज्य को पराजित करने में सफलता मिलती गयी।

दुर्गों की अभेद्यता में विश्वास

राजपूतों की पराजय का एक कारण उनका यह विश्वास था कि उनके दुर्ग अभेद्य हैं और उनमें रह कर वे लंबे समय तक सुरक्षित रहते हुये शत्रु का सामना कर सकते हैं।इन दुर्गों का निर्माण सामान्यतः पहाङी शिखरों पर किया गया था और वहाँ तक पहुँचने का मार्ग प्रायः दुर्गम होता था। दुर्गों के निर्माण का मुख्य ध्येय संकटपूर्ण स्थिति में राजपरिवार तथा सैनिक स्रियों तथा बच्चों एवं वृद्धजनों को आक्रमणकारियों की लूटमार तथा हत्याकाण्ड से आश्रय देना था।

कुछ सैनिक दस्ते दुर्ग के बाहर रहकर छापामार पद्धति से शत्रु को परेशान करते रहते थे और शेष सैनिकों को दुर्ग की रक्षा के लिये दुर्ग के भीतर नियुक्त कर दिया जाता था। परंतु धीरे-धीरे राजपूत शासकों ने इन दुर्गों को ही अपना मुख्य आश्रय एवं सुरक्षा का आधार मानना शुरू कर दिया । यह आत्मघातक नीति थी।

यह ठीक है कि सीधी चट्टानों को पार कर दुर्ग के चारों तरफ निर्मित खाई को लांघ कर दुर्ग तक पहुँचने में आक्रमणकारी सैनिकों को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पङता था परंतु यह भी सही है कि दीर्घकालीन घेराबंदी के समय दुर्ग का बाहरी संसार से संपूर्क टूट जाता था।

दुर्ग के आसपास के क्षेत्रों पर आक्रमणकारियों का अधिकार हो जाने से दुर्ग में घिरे लोगों को खाद्य सामग्री मिलना भी कठिन हो जाता था और थोङे महीनों की घेराबंदी रे बाद अकाल की स्थिति आ खङी होती। तब स्रियों को जौहर का आदेश देकर अंतिम संघर्ष के लिये दुर्ग के फाटक खोलकर बाहर निकलना पङता। रणथंभौर और जालौर जैसे दुर्गों का पतन तो निश्चित रूप से दुर्ग में खाद्य सामग्री के अभाव का परिणाम था।

दुर्ग के समीपवर्ती नगर तथा बस्तियों के लोग भी आक्रमण के समय आश्रय लने के लिये दुर्ग में चले जाते थे। इससे दुर्ग में संचित खाद्य सामग्री जल्दी ही समाप्त हो जाती थी। यदि राजपूत पहले की भाँति दुर्ग के साथ-साथ छापामार पद्धति को भी जारी रखते तो उन्हें सरलता से परास्त नहीं किया जा सकता था।

देशद्रोहियों की भूमिका

राजपूतों की पराजय में देशद्रोहियों की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण न रही। रणथंभौर अभियान के समय हम्मीर के सेनानायक तथा मंत्री रणमल और रतिपाल ने व्यक्तिगत स्वार्थ के खातिर अपने राजा तथा राज्य के साथ विश्वासघात करके सुल्तान का साथ दिया और एक अन्य देशद्रोही ने खाद्यान्न भंडार में हड्डियाँ फेंककर खाद्य-पदार्थों को अपवित्र करके अकाल की स्थिति पैदा कर दी।

चित्तौङ अभियान के समय भी देवपाल ने विश्वासघात किया और जालौर अभियान के समय दहिया राजपूत सरदार बीका ने सुल्तान की सेना को दुर्ग के असुरक्षित भाग का रास्ता बताकर अपने स्वामी के साथ विश्वासघात किया। शायद यह हमारे राष्ट्रीय चरित्र का सबसे दुःखद पहलू था और इसके लिये हजारों राजपूत नर-नारियों को महँगी कीमत चुकानी पङी।

दिग्विजय की घातक परंपरा

प्राचीन युग के भारतीय शासकों की दिग्विजय की घातक परंपरा का पालन भी राजपूतों की पराजय का एक मुख्य कारण बन गया। जब भी किसी शासक ने थोङी बहुत शक्ति अर्जित कर ली, वह अपने आसपास के राज्यों की दीग्विजय के लिये निकल पङता और इस घातक नीति के फलस्वरूप आसपास के राजाओं को हमेशा के लिये अपना शत्रु बना लेता था।

पृथ्वीराज चौहान और हम्मीर अपने सम्मुख उपस्थित तुर्क संकट के उपरांत भी दिग्विजय के लिये निकल पङे। परिणाम यह निकला कि जब उन्हें स्वयं को तुर्क आक्रमणों का सामना करना पङा तो उनके पङौंसियों ने उन्हें सहायता नहीं दी और उन्हें शत्रुओं से अकेले ही लङना पङा। ऐसे संघर्ष में उनकी सफलता प्रारंभ से ही संदेहास्पद रही।

सैनिक दुर्बलता

अधिकांश इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि राजपूतों की पराजय का एक मुख्य कारण उनके सैन्य संगठन में विद्यमान दोष थे। अर्थात् उनका सैन्य संगठन दोषपूर्ण था और उसमें कई प्रकार की कमजोरियाँ थी अन्यथा शूरवीरता और व्यक्तिगत साहस एवं पराक्रम में वे तुर्कों से किसी प्रकार कम न थे।

परंतु प्राचीन क्षात्र धर्म और आदर्शों का पालन उनके पतन का कारण बना। युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त करने की लालसा राजपूतों को रणनीति के दावपेचों से दूर रखती थी और वे शत्रुपक्ष की दयनीय स्थिति का लाभ न उठा पाते थे। इसके विपरीत तुर्क लोग छल-कपट, विश्वासघात तथा अन्य संभव उपायों से युद्ध जीतने को तत्पर रहते थे। यदि राजपूत भी अवसर के अनुकूल नीति एवं साधनों का प्रयोग करते तो उन्हें परास्त करना इतना सरल न होता।

राजपूतों का दैनिक संगठन भी दोषपूर्ण था। उनके पास स्थायी एवं नियमित सेना का अभाव था और राजपूत शासकों को सैनिक अभियानों अथवा शत्रु के आक्रमण के समय अपने सामंतों के सैनिक दस्तों पर निर्भर रहना पङता था। सामंतों के सैनिकों में उच्चकोटि की सैनिक प्रतिभा एवं गुणों का प्रायः अभाव रहता था, क्योंकि वे नियमित सैनिक नहीं होते थे और न ही उन्हें सही ढंग से प्रशिक्षण मिल पाता था।

इस व्यवस्था का एक दोष यह भी था कि किसी शासक के लिये अपने समस्त सामंतों के सैनिक दस्तों को तत्काल एक ही स्थान पर एकत्र करना भी संभव न था और दूसरा दोष यह कि सामंतों के सैनिक अपने सामन्त के अलावा अन्य किसी व्यक्ति के नेतृत्व में लङने को तैयार न थे।

राजपूत सैनिक दुर्बलता का एक पहलू, युद्धों की अपनी पुरानी परंपराओं से चिपटे रहना था। पिछली दो तीन शताब्दियों में राजपूत शासकों का मध्यएशियाई देशों से संपर्क लगभग समाप्त हो चुका और यही कारण है कि इन देशों में मंगोलों ने जो क्रांतिकारी परिवर्तन प्रारंभ किये थे, उनकी जानकारी उन्हें नहीं मिल पाई।

इसके विपरीत दिल्ली के सुल्तानों को इल्तुतमिश के समय से ही मंगोलों से निपटना पङा और वे मंगोलों के सैनिक सुधारों एवं तकनीक से परिचित होते गये तथा उन्हें अपनाते भी गये। उन्होंने मंगोलों से अचानक हमला करने, शत्रुपक्ष की निगाहों से अपने सैनिकों को कुशलता से छिपाने, झूठमूठ सैनिक पलायन करना आदि बातें सीखीं।

दिल्ली सुल्तानों ने अर्रादा, गरमच, मंजनीक जैसे यंत्र जो शत्रुपक्ष के दुर्गों को भेदने के लिये बङी ही उपयोगी यंत्र सिद्ध हुए, अपना लिये थे। इसके विपरीत राजपूतों को अपनी हस्ती सेना पर विश्वास बना रहा। एक नेता पर निर्भरता, आत्मरक्षीय युद्ध, सुरक्षा की द्वितीय पंक्ति का अभाव, अच्छे घोङों तथा घुङसवारों की कमी आदि कारणों ने भी राजपूतों की पराजय में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। परंतु राजपूतों के पास न तो अच्छे अस्र-शस्र थे, न अच्छे घोङे और न ही गतिशीलता थी।

राजपूत अच्छे निशानेबाज थे, परंतु एक स्थान पर खङे होकर ही वे ऐसा कौशल दिखा सकते थे, जबकि तुर्क सैनिक सरपट घोङों की पीठ पर बैठे-बैठे ही निशाना साधने में दक्ष थे। इस संबंध में डॉ.यदुनाथ सरकार ने लिखा है कि, सीमा पार के इन आक्रमणकारियों के शस्रों और घोङों ने उनको भारतीयों पर विवाद-रहित सैनिक श्रेष्ठता प्रदान की।

सुयोग्य नेतृत्व का अभाव

राजपूतों की असफलता का एक मुख्य कारण अवसर के अनुकूल सुयोग्य नेतृत्व की कमी था। महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी, ऐबक, इल्तुतमिश और अलाउद्दीन खिलजी ये सभी उच्चकोटि के सेनानायक थे और उनमें नेतृत्व ग्रहण करने के जन्मजात गुण विध्यमान थे।

बुरे-से-बुरे समय में भी उन लोगों ने कभी धैर्य, संयम और साहस न खोकर अपने सैनिकों को प्रोत्साहित किया था। परंतु राजपूत राजाओं में उनके मुकाबले का एक भी सेनानायक नहीं था। इसमें संदेह नहीं कि पृथ्वीराज चौहान, हम्मीर और कान्हङदे शूरवीर सेनानायक थे, परंतु उन्हें उपर्युक्त मुस्लिम सेनानायकों की तुलना में नहीं रखा जा सकता।

उस युग में युद्धों का भाग्य प्रायः मुख्य सेनानायकों के व्यक्तित्व एवं योग्यता पर निर्भर करता था। राजपूत इस क्षेत्र में तुर्कों की तुलना में निर्बल सिद्ध हुए। उदाहरण के लिये अलाउद्दीन खिलजी को ही लीजिये। रणथंभौर अभियान के समय उसकी हत्या का षड्यंत्र रचा गया, उसका तख्ता पलटने के लिये उसके विरुद्ध सशस्र विद्रोह हुए, फिर भी अविचलित रहते हुये उसने घेराबंदी के काम में जरा भी शिथिलता नहीं आने दी।

इसी प्रकार का व्यक्तिगत गौरी और ऐबक का था जो पराजयों एवं विपरीत परिस्थितियों से हताश होना नहीं जानते थे।

साधनों की कमी

डॉ.के.एस.लाल के मतानुसार दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध राजपूतों की असफलता का एक प्रमुख कारण उनके सीमित साधन थे। राजपूताने का अधिकांश भाग रेतीला है और वर्षा की कमी के कारण कृषि उत्पादन कम ही होता है। इस क्षेत्र का सौभाग्य है कि इसका कुछ भाग पर्वतीय है और इन्हीं पहाङियों पर उनके अजेय दुर्ग बने हुये थे।

अधिकांश राजपूत राज्यों की आय सीमित थी। इस सीमित आय के सहारे उनके लिए अपनी सैनिक शक्ति को बढाना संभव नहीं था। अकाल के दिनों में तो प्रशासन का सामान्य खर्चा चलाना भी कठिन हो जाता था। इसके विपरीत दिल्ली सल्तनत काफी साधन संपन्न थी।

उसके अधिकार में भारत के सर्वाधिक उपजाऊ प्रदेश पंजाब, अवध आदि थे जो खाद्य-सामग्री तथा अन्य साधनों की पूर्ति करने में समर्थ थे। अतः दिल्ली सुल्तानों से दीर्घकालीन संघर्ष में अधिक समय तक लोहा लेना सरल काम नहीं था। दुर्ग की खाद्य सामग्री के समाप्त होते ही राजपूतों को विवश होकर दुर्ग के फाटक खोलने पङते थे।

गुप्तचर संगठन की कमी

राजपूत राज्यों की पराजय का कारण सुसंगठित गुप्तचर व्यवस्था का न होना था। इस कमी के कारण राजपूत शासकों को अपने शत्रुओं की गतिविधियों की सही जानकारी समय पर अपलब्ध नहीं हो पाती थी। उन्हें शत्रुपक्ष के आगमन का तभी पता चलता था जब वह उनकी सीमा में प्रवेश कर जाता था।

इससे उन्हें पर्याप्त तैयारी का समय नहीं मिल पाता था और अपने दुर्गों में आवश्यक से अधिक खाद्यान्नों, विशेषकर सुल्तान साधुओं, फकीरों और व्यापारियों के रूप में विभिन्न राज्यों में विचरण करते रहते थे और इन राज्यों की गतिविधियों की विस्तृत जानकारी अपने सुल्तान तक पहुँचाते रहते थे।

अन्य कारण

तुर्कों की दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध राजपूतों की असफलता कुछ सीमा तक उनकी दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में निहित थी। डॉ. ईश्वरी प्रसाद शर्मा के शब्दों में, यह वास्तव में दो सामाजिक व्यवस्थाओं में संघर्ष था। एक पुरानी और पतनोन्मुख तथा दूसरी ताजा और गौरवता से भरी हुई थी।

वस्तुतः इस युग में राजपूत समाज ही नहीं अपितु भारत का संपूर्ण हिन्दू समाज पतन की ओर जा रहा था। और उसकी बुनियादें खोखली हो चुकी थी। जाति व्यवस्था, छुआछूत, ऊँच-नीच, स्रियों की हीनावस्था, कन्यावध, सती-प्रथा, अंधविश्वास आदि दोष अपने चरमोत्कर्ष पर थे। पेशेवर एवं निम्न-जातियों की गतिशीलता एवं चेतना का गला घोंट दिया गया था।

भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना का सर्वाधिक प्रभाव इन्हीं पेशेवर एवं निम्न जातियों पर पङा। इन जातियों के अधिकांश लोग इस्लाम धर्म के अनुयायी बनते गये और फिर मुसलमानों के रूप में उन्होंने अपने पुराने हिन्दू भाइयों से, जिन्होंने उनका जीवन नारकीय बना दिया था, बदला लेते गये। तुर्कों की विजय में इन भारतीयों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही।

भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना के समय हिन्दू समाज का नेतृत्व राजपूतों के हात में था और उन्हें अपने आभिजात्य का झूठा घमंड था और वे अपने कुल की कीर्ति, आत्मसम्मान तथा धर्म विजय के नाम पर युद्ध करना अपने जीवन का पवित्र कर्त्तव्य समझते थे।

राजपूत शासकों में व्याप्त बहु-विवाह-प्रथा तथा उससे उत्पन्न उत्तराधिकार समस्यायें, सामन्त प्रथा के विकास और आपसी पारिवारिक युद्धों ने राजपूतों की सैनिक शक्ति को काफी कमजोर बना दिया था। दिन प्रतिदिन बढते हुये भोग विलास तथा अफीम के सेवन ने उनकी शूरवीरता को भी कुण्ठित कर दिया था।

गजनवी और गौरी के हाथों हुई पराजय से भी उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा। परिणामस्वरूप दिल्ली सुल्तानों के हाथों उन्हें बुरी तरह से पराजित होना पङा।अजमेर, जालौर, नागौर आदि कुछ स्थानों पर मुस्लिम शासन की स्थापना ने भी राजपूतों की शक्ति पर नियंत्रण बनाये रखा। गुजरात और मालवा पर भी जब मुसलमानों का अधिकार हो गया तो राजपूतों को उनके आक्रमणों का भी निरंतर सामना करना पङा।

निष्कर्ष

तुर्कों और दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध लङे गये युद्धों में राजपूत हार गये और राजपूताने के अधिकांश भू-भाग पर उनका अधिकार भी कायम हो गया, परंतु दिल्ली के सुल्तान इस भू-भाग पर अपने प्रभुत्व को अधिक समय तक कायम न रख सके। स्वतंत्रता प्रिय राजपूतों ने दिल्ली सल्तनत के प्रान्तीय अधिकारियों के सम्मुख घुटने नहीं टेके।

दिल्ली सल्तनत की विजयी सेनाओं की वापसी के साथ ही वे उठ खङे होते और अपने क्षेत्रों पर पुनः अधिकार जमाने में जुट जाते थे। उलूगखाँ के जाते ही रणथंभौर पर सल्तनत का नियंत्रण ढीला पङ गया और चौहानों ने पुनः इस पर अपना अधिकार जमा लिया।

अलाउद्दीन को अपने जीवन काल में ही खिज्रखाँ को चित्तौङ से हटाना पङा। अवसर मिलते ही हम्मीर ने इस पर अधिकार कर लिया। जालौर पर भी मुसलमानों का शासन ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह पाया। अजमेर और नागौर अवश्य उनके नियंत्रण में बने रहे। इससे स्पष्ट है कि राजपूत हारे अवश्य परंतु उन्होंने कभी भी पूर्ण रूप से दिल्ली सल्तनत को समर्पण नहीं किया।

यह स्थिति तो अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के समय में आई जब राजपूतों के अंतिम स्वतंत्र शासक मेवाङ के राणा को मुगलों की अधीनता स्वीकार करनी पङी।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : राजपूत

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