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1772 से 1793 के मध्य न्यायिक प्रशासन का विकास

1772 से 1793 के मध्य न्यायिक प्रशासन

1772 से 1793 के मध्य न्यायिक प्रशासन का विकास (1772 se 1793 ke madhy nyaayik prashaasan ka vikaas)-

1772 ई. में बंगाल में न्याय पद्धति दो प्रकार की थी,

1.) मुगलकालीन पद्धति – यह पद्धति 1765-72 ई. के दोहरे प्रशासन की अराजकता के बावजूद भी प्रचलित थी।

2.) कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कंपनी के न्यायालय – इनमें से कुछ का कार्य क्षेत्र इंग्लैण्ड सरकार द्वारा दिए गए अधिकारों पर आधारित था तथा कुछ न्यायालय कंपनी की जमींदारी क्षेत्र में स्थापित थे, जिन्हें कंपनी द्वारा अधिकार दिए गए थे। वे सब अंग्रेजी विधि प्रणाली के अनुसार कार्य करते थे। 1772 ई. में कुछ परिवर्तनों द्वारा पहली पद्धति और 1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा दूसरी पद्धति में परिवर्तन किए गए।

प्रचलित परंपरा के अनुसार दीवानी और फौजदारी का न्याय जमींदार द्वारा किया जाता था जो न्यायालय द्वारा लगाए गए जुर्माने को अपनी निजी आय समझता था। 1769 ई. में कलकत्ता कौंसिल ने अंग्रेज सुपरवाइजरों को न्यायालयों पर निगरानी करने के आदेश दिए थे, किन्तु ये सफल नहीं हुए।

न्याय करने का अधिकार सर्वोच्च सत्ता का एक बाह्य लक्षण था। 1772 ई. के बाद न्यायिक व्यवस्था में परिवर्तन आवश्यक था। इस दृष्टि से कार्नवालिस के कार्य को वारेन हेस्टिंग्ज के कार्य की पूर्ति कहा जाता है। वारेन हेस्टिंग्ज ने दीवानी का प्रशासन और कार्नवालिस ने निजामत का प्रबंध अंग्रेज अधिकारियों के अधीन कर दिया था।

1772 से 1793 के मध्य न्यायिक प्रशासन

1772 से 1793 के मध्य न्यायिक प्रशासन का विकास

1772 से 1793 के मध्य न्यायिक प्रशासन के विकास को अलग-अलग बिन्दुओं में बाँटा गया है-

लार्ड वारेन हेस्टिंग्ज के न्याय संबंधी सुधार

लार्ड वारेन हेस्टिंग्ज के न्याय के क्षेत्र में कई तरह के सुधार किये गये जो इस प्रकार हैं-

  • 1772 ई. में प्रत्येक जिले में एक दीवानी और एक फौजदारी अदालत की स्थापना की गयी। दीवानी अदालत का अध्यक्ष कलेक्टर होता थआ। फौजदारी अदालतों में काजी अथवा मुफ्ती कानून की व्याख्या कर अपराधियों को दंड दिया करते थे।
  • दीवानी तथा फौजदारी अदालतों का कार्य क्षेत्र निर्धारित कर दिया गया। दीवानी अदालतों में संपत्ति, उत्तराधिकार, विवाह, ऋण, ब्याज आदि से संबंधित मुकदमे सुने जाते थे।
  • कलकत्ता में एक सदर दीवानी अदालत तथा एक सदर निजामत अदालत की स्थापना की गयी। सदर दीवानी अदालत में कलकत्ता कौंसिल का अध्यक्ष, कौंसिल के दो सदस्य आदि बैठते थे। इस अदालत में जिले की दीवानी अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई की जाती थी। सदर निजामत अदालत का प्रधान दरोगा या सदर काजी होता था, जो गवर्नर द्वारा नियुक्त किया जाता था।
  • न्यायाधीशों को परामर्श देने के लिए हिन्दू व मुसलमान न्यायशास्त्रियों की व्यवस्था की गयी थी।
  • न्यायाधीशों को परामर्श देने के लिए हिन्दू व मुसलमान न्यायशास्त्रियों की व्यवस्था की गयी थी।
  • इन अदालतों में मुकदमों का निर्णय हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों तथा मुसलमानों की कुरान के आधार पर होते थे।
  • प्रत्येक न्यायालय में न्यायाधीशों का पद वैतनिक कर दिया गया जिससे वे ईमानदारी से कार्य कर सकें।
  • वारेन हेस्टिंग्ज ने न्यायाधीशों की सुविधा के लिए हिन्दू और मुस्लिम कानूनों का संग्रह करवाया।

रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा सुप्रीम कोर्ट की स्थापना (1774ई.)

  • रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी जिसके न्यायाधीश (एक मुख्य तथा तीन अन्य) इंग्लैण्ड के राजा के द्वारा नियुक्त किये जाते थे और उसी के द्वारा हटाए भी जा सकते थे।
  • इस न्यायालय का कार्यक्षेत्र अत्यधिक विस्तृत था। बंगाल, बिहार और उङीसा की अंग्रेजी प्रजा इसके क्षेत्र में थी।
  • दीवानी के मामलों में इसके निर्णय के विरुद्ध इंग्लैण्ड के राजा के समक्ष अपील की जा सकती थी और फौजदारी के मामलों में इस न्यायालय की अनुमति लेकर अपील की जा सकती थी।
  • इस न्यायालय को कंपनी के प्रत्येक अधिकारी के विरुद्ध मुकदमे सुनने का अधिकार था। भारतीय नागरिकों की अनुमति से उनके विरुद्ध मुकदमों की भी सुनवाई की जा सकती थी।


रेग्युलेटिंग एक्ट के न्याय संबंधी प्रमुख दोष

सुप्रीम कोर्ट की इस व्यवस्था में कई दोष थे तथा प्रश्नों के उत्तर अस्पष्ट थे जैसे कि-

  • सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का एक लक्ष्य कंपनी के कर्मचारियों के अनुचित कार्यों पर प्रतिबंध लगाना थआ। क्या यह कार्य कंपनी के कर्मचारियों के अधिकारों को प्रभावित किए बिना संभव था?
  • कलकत्ता कौंसिल प्रशासकीय तथा सैनिक कार्यों में और सुप्रीम कोर्ट न्यायिक विषयों में सर्वोच्च थे। इन दोनों में विभिन्न विषयों पर संघर्ष हो जाता था, उदाहरणार्थ, कौसिजुराह घटना में कौंसिल के सैनिकों ने कोर्ट के अधिकारियों को कार्य करने से मना ही नहीं कर दिया था, बल्कि बलपूर्वक बंदी बना दिया था। इस घटना में वाद-विवाद कुछ धन वसूली के प्रश्न पर था कि कौन धन वसूल करे – कौंसिल अपना लगान अथवा कोर्ट के आदेश के अनुसार एक अन्य साहूकार।
  • कौंसिल के सदस्य व्यक्तिगत रूप से अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं थे। क्या कोई उनके आदेशों के औचित्य का परीक्षण कर सकता था।
  • यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि न्यायालय में कौन सी विधि प्रणाली के अनुसार निर्णय किया जाएगा ?
  • अंग्रेज प्रजा में कौन लोग आते थे क्या तीनों प्रांतों की जनता इसमें सम्मिलित हो सकती थी क्या नीलामी के आधार पर लगान वसूल करने वाले व्यक्ति कंपनी के अधीन कर्मचारी कहे जा सकते थे वारेन हेस्टिंग्ज ने कोर्ट तथा कौंसिल के आपसी मतभेदों को कम करने के लिए सदर दीवानी अदालत का कार्य 1774 ई. के बाद प्रायः बंद ही कर दिया था। जब तक 1780 ई. में इंपे (कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश) ने सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष बनना स्वीकार नहीं किया। यह कार्य सर्वथा अवैधानिक था,
    क्योंकि इंपे ने कंपनी द्वारा वेतन स्वीकार कर लिया था। मई, 1782 ई. में हाऊस ऑफ कॉमस ने इंपे को इस अनुचित कार्य का उत्तर देने के लिए इंग्लैण्ड बुलाया और उस पर महाभियोग चलाने का प्रयत्न किया था, लेकिन यह किसी प्रकार टल गया। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कार्नवालिस ने इंपे को पुनः भारत भेजने का विरोध किया था।

1781 ई. का एक्ट

सर्वोच्च न्यायालय के इन सभी दोषों को दूर करने के लिए 1781 ई. में एक एक्ट पास किया गया, जिसमें निम्न प्रावधान रखे गये –

  • इस एक्ट ने कौंसिल तथा न्यायालय के संघर्ष में कलकत्ता कौंसिल का पक्ष लिया और उस कौंसिल को सामूहिक रूप से तथा उसके सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट के नियंत्रण से मुक्त कर दिया।
  • सुप्रीम कोर्ट का भूराजस्व वसूली के मामलों पर अब कोई अधिकार शेष नहीं रह गया।
  • इसके अन्तर्गत कोटा का न्यायक्षेत्र कलकत्ता के समस्त निवासियों तक रखा गया, लेकिन हिन्दू और मुसलमानों को उत्तराधिकार और अन्य संबंधित मामलों में अपनी-अपनी विशिष्ट विधि प्रणाली के अधीन रखा गया।
  • सदर दीवानी अदालत के दीवानी संबंधी कार्यक्षेत्र को स्वीकार किया गया और भू-राजस्व से संबंधित समस्त मुकदमों में उसको सर्वोच्च अधिकार दिए गए। इस प्रकार दोनों न्याय-प्रणालियाँ – सुप्रीम कोर्ट तथा सदर दीवानी अदालत – 1861 ई. तक कार्य करती रही।
  • वारेन हेस्टिंग्ज की वह योजना समाप्त कर दी गयी, जिसके अनुसार सदर दीवानी अदालत को सुप्रीम कोर्ट के अधीन रखने की संभावना थी।


न्याय प्रशासन में पुनः परिवर्तन (1787-1793 ई.)

न्याय प्रशासन में 1787 से 1793 ई. के मध्य जो परिवर्तन किए गए, वे निम्न हैं –

  • दीवानी और निजामत अदालत प्रत्येक जिले में होती थी, लेकिन सदर दीवानी अदालत 1773 ई. के बाद व्यावहारिक रूप में कार्य कर रही थी। बंगाल, बिहार प्रांत में 18 दीवानी और फौजदारी अदालतें थी।
  • 1781-87 ई. के मध्य दीवानी न्यायाधीशों को केवल न्यायिक कार्य ही करने होते थे। उन्हें लगान वसूली से कोई संबंध नहीं था।
  • कलकत्ता कौंसिल के परामर्श पर 1786 ई. में संचालक समिति ने आदेश दिया कि मजिस्ट्रेट, कलेक्टर और जज के कार्यों को एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाए। इसीलिए जून, 1787 ई. में कार्नवालिस ने इन तीनों पदों को एक साथ मिला दिया। यह पद्धति 1793 ई. तक चलती रही।
  • 1793 ई. में स्थायी भूमि व्यवस्था स्थापित हो जाने के बाद जमींदारों पर अधिक नियंत्रण की आवस्यकता नहीं रह गयी थी इसीलिए 1793 ई. में कार्नवालिस ने भू राजस्व वसूल करने के कार्य को न्याय से अलग कर दिया, लेकिन यह कार्य स्थायी बंदोबस्त के बाद ही किया गया था।


लार्ड कार्नवालिस के न्याय संबंधी सुधार

लार्ड कार्नवालिस के द्वारा किये गये न्याय संबंधी सुधार के लिये कई तरह की अदालत बनाई गयी थो जो इस प्रकार हैं-

  • दीवानी अदालत
  • फौजदारी अदालत
  • कलेक्टरों से न्याय संबंधी अधिकार ले लेना
  • सरकार पर मुकदमा चलाने की सुविधा
  • दीवानी तथा फौजदारी कानूनों का आधार
  • कार्नवालिस कोड…अधिक जानकारी

कार्नवालिस द्वारा किये गये प्रशासनिक परिवर्तन

  • कार्नवालिस के भारत आने के समय कंपनी के कर्मचारियों का वेतन बहुत कम था। इस कमी को पूरा करने के लिए वे घूस लेते थे तथा व्यक्तिगत व्यापार करते थे। अतः उसने कंपनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने घूसखोरी को रोकने के लिए भी प्रभावशाली नियम बनाए। उसने कंपनी के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी। कलेक्टरों का वेतन 200 रुपये से बढाकर 1500 रुपये कर दिया गया।
  • कार्नवालिस ने सिफारिशों के आधार पर नियुक्ति की प्रथा को बंद कर दिया तथा योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ की जाने लगी। इससे कार्यकुशलता में वृद्धि हुई तथा भ्रष्टाचार भी बंद हो गया। उसने अयोग्य अधिकारियों का स्थानान्तरण किया तथा भ्रष्ट अधिकारियों को पद मुक्त कर दिया।
  • कार्नवालिस को भारतीयों की अयोग्यता तथा चरित्र पर विश्वास नहीं था। अतः उसने यह नियम बना दिया कि 500 पौंड वार्षिक से अधिक वेतन पाने वाले पदों पर केवल यूरोपियन लोगों को ही नियुक्त किया जायेगा। इससे भारतीयों के लिए उच्च पदों के द्वार बंद हो गये। इससे भारतीयों में तीव्र असंतोष उत्पन्न हुआ।
  • कार्नवालिस ने जमींदारों से उनके सभी पुलिस संबंधी अधिकार छीन लिए। जिले को कई छोटे-छोटे इलाकों में बांट दिया गया तथा प्रति 20 मील के अंतर पर एक पुलिस थाना स्थापित किया गया। प्रत्येक थाने में एक दरोगा तथा कई सिपाही नियुक्त किये गये। दरोगाओं के ऊपर पुलिस अधीक्षक होता था। अंग्रेज मजिस्ट्रेट को पुलिस के कार्य का निरीक्षण करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। कलकत्ता में पुलिस प्रशासन की देखरेख के लिए एक नये संचालक की नियुक्ति की गयी।
  • कार्नवालिस ने बंगाल में 35 जिलों को घटाकर 23 जिले कर दिये। प्रत्येक जिले में एक ब्रिटिश कलेक्टर नियुक्त किया जाता था उसकी सहायता के लिए दो अंग्रेज सहायक नियुक्त किये जाते थे। जिले में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना पुलिस व जेल की निगरानी रखना, राजस्व जमा कराना आदि का उत्तरदायित्व कलेक्टर का था।
  • कार्नवालिस ने कंपनी की सेना में भी सुधार किया। उसने योग्य सैनिकों की भर्ती पर विशेष बल दिया। उसका भारतीयों पर विश्वास नहीं था। अतः उसने सेना में अंग्रेज सैनिकों की संख्या में वृद्धि की।
  • लार्ड कार्नवालिस ने जेलों की प्रथा सुधारने पर भी बल दिया। उसने नये कारावास बनवाये तथा बंदियों की स्वास्थ्य और भोजन संबंधी समस्याओं के निवारण पर बल दिया।

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