अलाउद्दीन खिलजीइतिहासखिलजी वंशदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति – दक्षिणी राज्यों पर विजय प्राप्त करके सुल्तान (अलाउद्दीन खिलजी) ने समस्त भारत को कम से कम एक राजनीतिक सूत्र में बाँध दिया। अलाउद्दीन खिलजी पहला सुल्तान था जिसने विजय के बाद यह नवीन कार्य संपादित किया। उसके शासनकाल से दक्षिण में होने वाले उस नाटक का प्रारंभ हुआ जो औरंगजेब के शासनकाल से दक्षिण में होने वाला उस नाटक का प्रारंभ हुआ जो औरंगजेब के शासनकाल तक चलता रहा।

1296 ई. में जब देवगिरि पर प्रथम आक्रमण किया गया तब उसका उद्देश्य केवल धन प्राप्त करने का था। यह धन कहीं और भी मिल सकता था परंतु जिस सुविधा के साथ दक्षिण में धन मिलता संभव रहा उतना कहीं भी और स्थान से मिलना दुर्लभ था। दक्षिण के मंदिर अपार धन संपत्ति के केंद्र थे और वह इस संपूर्ण एकत्रित संपत्ति के अपहरण का इच्छुक था। मलिक काफूर के अभियानों ने कुछ समय के लिए दक्षिणी प्रायद्वीप की शक्तियाँ एवं व्यवस्था नष्ट कर दी। प्रमुख रियासतें यादव, काकतीय, होयसल और पांड्य विभिन्न प्रकार के आघातों का केन्द्र बन गयी। अपार संपत्ति ले जाई गई। दक्षिण में शाही सेना की सफलता का प्रधान कारण यही था कि उत्तरी राजपूत रियासतों की भाँति दक्षिण के हिंदू राज्य भी आपस में निरंतर संघर्ष करते रहते थे। उनमें इतनी राजनीतिक दूरदर्शिता नहीं थी कि वह अपने हित तथा रक्षा के लिये किसी बाह्य शत्रु के विरुद्ध संगठित हो जाएँ। शत्रु के विरुद्ध एकता से लङना तो दूर वे उन्हें अपने ही पङोसी राजाओं के विरुद्ध सहायता देते थे।

जब 1296 ई. में अलाउद्दीन देवगिरि गया तो सिंघण देव अपनी सेनाओं के साथ होयसल राज्य की सीमाओं की ओर गया था। जब काफूर होयसल राजा के विरुद्ध पहुँचा तो वह पांड्य प्रदेश का कुछ भाग प्राप्त करने के संबंध में सुदूर दक्षिण में था, और राजकुमार सुंदर पांड्य तथा वीर पांड्य एख दूसरे के कट्टर शत्रु थे। रामदेव ने तेलंगाना की विजय में मलिक काफूर को सहायता दी और वीर बल्लाल ने सुदूर दक्षिण में माबर में शाही सेनाओं को सहयोग दिया। सुंदर पांड्य ने अपने भाई के विरुद्ध सुल्तान से सहायता प्राप्त करके देशवासियों के लिये कठिनाइयाँ उत्पन्न की। इस प्रकार दक्षिणी राजाओं की पराजय का कारण केवल आपसी अनैतिकता ही नहीं वरन दिल्ली सेना का सुसज्जित और संगठित होना भी था। साथ ही, तुर्की सेना सैन्य बल तथा युद्ध कला में भी दक्षिणी सेनाओं से अधिक योग्य तथा उत्तम कोटि की थी। अनुशासन, युद्ध कौशल और युक्तियों में तुर्की सेना दक्षिणी सेनाओं से बहुत श्रेष्ठ थी।

इटली के यात्री मार्कोपोलो ने दक्षिणी सेनाओं की अयोग्यता का उल्लेख किया है। उसके अनुसार, इस देश के लोग युद्धभूमि में लगभग नग्न जाते हैं, उनके पास केवल एक भाला और एक ढाल रहती है, वे अत्यंत निम्न स्तर के सैनिक हैं और वे बङे कट्टर होते हैं। उनका भोजन केवल चावल है और युद्ध करने की उपेक्षा नियमपूर्वक स्नान करना तथा छुआछूत आदि धर्म का पालन करना वे अधिक आवश्यक समझते हैं। इस प्रकार के सैनिक यदि मंगोलों को खदेङने वाली सेना से सफतापूर्वक युद्ध नहीं कर सके तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। अलाउद्दीन विंध्य के पार के प्रदेशों को साम्राज्य में मिलाने का कदापि इच्छुक नहीं रहा। अतः उसके दक्षिणी अभियान तो केवल धन प्राप्ति का साधन थे।

अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति का स्वरूप

अलाउद्दीन की दक्षिणी विजय का स्वरूप प्राचीन भारतीय सम्राटों की दिग्विजय के समान था। वह दक्षिण के राज्यों को जीतकर साम्राज्य में मिला लेने अथवा दक्षिण की जनता का प्रत्यक्ष रूप से शासन करने की इच्छा नहीं रखता था। किंतु उसकी दक्षिण नीति राजनीतिक दूरदर्शिता का सीधा परिणाम थी। वह भली भाँति समझ चुका था कि सुदूर दक्षिण को राज्य में मिलाकर उस पर नियंत्रण रखना संभव न होगा। मुख्य रूप से दक्षिण की भौगोलिक स्थिति, यातायात के साधनों का अभाव, दिल्ली से दक्षिण की दूरी और दक्षिण में हिंदुओं की प्रधानता और प्रभाव इन सभी समस्याओं के कारण दक्षिण के विजित प्रदेशों का विलय नहीं किया गया। अलाउद्दीन तो केवल इन रियासतों को कर देने वाले राज्य ही बनान चाहता था। उसकी एकमात्रा इच्छा यह रही कि दक्षिण के राज्य उसकी अधीनता स्वीकार कर लें और नियमित रूप से कर देते रहें। मलिक काफूर को आदेश दिया गया था कि जो शासक सुल्तान का प्रभुत्व स्वीकार करके संधि करना चाहें उनके प्रति वह सदव्यवहार करे और उनसे मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए जाएँ। दक्षिण के पराजित शासकों के साथ भी उदारता का व्यवहार किया गया। देवगिरि का राजा सुल्तान का मित्र और सहायक हो गया। उसी की सहायता से वारंगल तथा द्वारसमुद्र के राजाओं को परास्त किया जा सका। माबर की चढाई में होयसल नरेश बल्लाल तृतीय ने मलिक काफूर का पथ प्रदर्शन किया और उसे हर प्रकार की सहायता दी। अंत में अलाउद्दीन ने देवगिरि को सल्तनत में मिलाने की नीति अपनाई।

इस दक्षिण विजय से उत्तरी भारत में काफी धन आ गया। राजकोष इतना समृद्ध हुआ कि अलाउद्दीन के उत्तराधिकारियों को भारी आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पङा। इसी धन से सुल्तान ने अपनी निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता को सुदृढ बनाया और अनेक योजनाओं को सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया। दक्षिण की इस अपार संपत्ति ने उसकी सफलता, प्रतिष्ठा तथा गौरव को उज्ज्वल बनाया। राजनीतिक लाभ मुख्यतः यही था कि साम्राज्य का क्षेत्रीय विस्तार नहीं हुआ और दक्षिण में प्रभुत्व स्थापित हो गया। सभी शासकों ने उसकी अधीनता को स्वीकार कर लिया और वार्षिक कर देने का भी वचन दिया।

दक्षिण की विजय ने महमूद गजनवी की उत्तर भारत की विजयों को भी मात कर दिया। परंतु काफूर तो लाख चेष्टा करने पर भी वीर पांड्य को पराजित नहीं कर सका और न ही वारंगल के दुर्ग को जीत सका। इस भाँति काफूर की सफलता महमूद की तुलना में उच्च न थी। दक्षिण में काफूर के अभियानों के पीछे वही उद्देश्य थे जो उत्तर में महमूद के थे। इन राज्यों का साम्राज्य में विलय करना दिल्ली सल्तनत के लिये सरदर्द ही सिद्ध होता। महमूद तुगलक की कठिनाइयों ने भी स्पष्ट कर दिया कि दक्षिण को सल्तनत में सम्मिलित करना किसी भी दशा में सुरक्षित न था। उधर दक्षिण में मलिक काफूर की सफलता चिरस्थायी न रही। यादव राज्य पर तीस आक्रमण, तेलंगाना और होयसल जैसे राज्यों पर अनेक आक्रमण स्पष्ट रूप से सिद्ध करते हैं कि विजयी सेनाएँ जैसे ही वापस लौटती थी दक्षिण की रियासतें सल्तनत के प्रति उदासीनता का रुख अपना लेती थी। परिणामस्वरूप अलाउद्दीन की मृत्यु के पूर्व ही दक्षिण के राज्य लगभग स्वतंत्र होने लगे, मुबारक खलजी और मुहम्मद तुगलक को नए सिरे से दक्षिण-विजय का कार्य संपन्न करना पङा। इन निरंतर अभियानों और विजयों से दक्षिण में मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि हुई और इस्लाम धर्म अपनाया जाने लगा, जिसके फलस्वरूप मुस्लिम सभ्यता एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ।

अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद मुबारक शाह खलजी के समय में देवगिरि के शासक हरपाल देव ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। दक्षिण विद्रोहियों का दमन करने के लिये वह खुसरो खाँ को साथ लेकर स्वयं गया। हरपाल देव सुल्तान के आगमन की सूचना सुनकर भाग गया। किंतु सैनिकों ने उसे और उसके मंत्री राघव को पकङ लिया। हरपाल के सिर को काटकर देवगिरि के प्रवेश द्वार पर टाँग दिया गया। देवगिरि के मंदिर और महल लूटे गये तथा मलिक यकलखी प्रांतपति नियुक्त किया गया। इसके बाद सुल्तान ने खुसरो को सुदूर दक्षिण में मदुरा तक के प्रदेशों को जीतने के लिये भी भेजा गया, क्योंकि वारंगल के शासक ने कई वर्षों से अपना खराज नहीं भेजा था। ख्वाजा हाजी इस अभियान का कर्ताधर्ता नियुक्त हुआ। वारंगल की दूसरी घेराबंदी भी पहले की भाँति ही थी। खुसरो खाँ ने अनामकोंडा पहाङियों से वारंगल का सर्वेक्षण किया। खलजी सेना ने वहाँ के निवासियों को बुरी तरह परास्त किया और प्रचुर मात्रा में रत्न और स्वर्ण प्राप्त किया। खुसरो की सेना ने किले की बाहरी दीवार पर आक्रमण करके उसे तोङ डाला। अनेक निवासियों का वध किया गया, जिसमें तेलंगाना के राय का प्रधान सेनापति अनिक महंत भी था। बाह्य भाग पर अधिकार कर लेने के बाद भीतरी किले का घेरा प्रारंभ किया गया। उसने सैनिक टुकङियों को विभिन्न चौकियों में भेजा और खाइयाँ खोदी। ख्वाजा हाजी ने दुर्ग के नीचे एक सौ पचास गज लंबी सुरंग बनवाई। इन बङी तैयारियों को देखकर राव को अधीनता स्वीकार कर लेने के अलावा सुरक्षा का कोई मार्ग न दिखाई दिया और उसने संधिवार्ता के लिये दूत भेजे। खुसरो ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मृत्यु अथवा अधीनता इन दोनों में से एक चुन लीजिए। विपरीत भाग्य द्वारा हताश अवस्था में पङे सुल्तान ने आत्मसमर्पण कर दिया उसने अपने राज्य के पाँच जिले, सौ हाथी, बारह सौ घोङे, अपरिमित मात्रा में स्वर्ण आभूषण और रत्न कर के रूप में देने का वचन दिया।

वारंगल के राजा को पराजित करने के बाद खुसरो खाँ देवगिरि में यकलखी खाँ के विद्रोह का दमन करने के बाद माबर की ओर बढा। मसुल्लीपट्टम पर धावा बोल दिया। उसने ख्वाजा तकी नामक धनी व्यापारी को भी लूटा। इसके बाद ही उसने माबर प्रदेश में प्रवेश किया किंतु भारी वर्षा के कारण उसे रुकना पङा। पर्याप्त सेना और लूट का माल होने से वह अपने स्वामी के विरुद्ध दुष्टापूर्ण योजनाएँ बनाने लगा। इसकी सूचना सुल्तान को मिल गयी। यह खबर सुनते ही खुसरो दिल्ली लौट आया। सुल्तान ने उसका आदर-सत्कार किया तथा शिकायत करने वाले दंडित किए गए, जिनमें बहुत से अमीर खुसरो के साथी बन गए। अवसर पाकर 1320 ई. में सुल्तान की हत्या कर दी गयी।

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