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पेशावर षङयंत्र केस क्या था

बीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद भारत में एक शक्तिशाली वामपक्ष का उदय हुआ।मार्क्सवाद और दूसरे समाजवादी विचार बहुत तेजी से फैले।राजनीतिक दृष्टि से इस शक्ति की अभिव्यक्ति कांग्रेस के अंदर एक वामपंथ के उदय के रूप में हुई, जिसने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की धारा को दलितों – शोषितों की सामाजिक आर्थिक मुक्ति की धारा के नजदीक लाने का कार्य किया।इन नेताओं द्वारा जनता को जागृत किया गया, तथा अंग्रेजी सरकार का बहिष्कार किया गया। जिससे इन आंदोलनों के नेताओं पर केस चलाये गये।उसी समय चलाये गये मुकदमों में से एक मुकदमा पेशावर षड्यंत्र केस था, जो 1922-23 को चलाया गया।

पेशावर षङयंत्र केस

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मार्कसवाद और साम्यवाद का प्रभाव रूसी क्रांति और प्रथम महायुद्ध के बाद से ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। 1917 की रूसी क्रान्ति विश्व के इतिहास की एक महान घटना थी। इस क्रान्ति का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन पर भी प्रभाव पड़ा और अनेक वामपंथी दल बने। रूसी क्रान्ति के प्रमुख नेता लेनिन ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में रूचि ली। विदेशों में साम्यवादी क्रान्ति के विचारों के प्रसार के लिये कम्यूनिस्ट इंटरनेशल की स्थापना की गई।

रूस में बोल्शेविक क्रान्ति की सफलता तथा कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना को देखते हुए भारत में और विदेशों में काम कर रहे कुछ भारतीय क्रान्तिकारियों और बुद्धिजीवियों ने भी कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना करने का विचार किया।

1989 को बंगाल के 24 परगना जिले के उरवलिया गाँव में जन्मे आरम्भिक जीवन में एक क्रान्तिकारी आंतकवादी, ‘‘एम.एन. राय के नेतृत्व में सात भारतीयों ने मिलकर अक्टूबर,1920 में ताशकंद में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की
स्थापना की।’’ इससे पहले एम.एन. राय ने मास्को जुलाई-अगस्त, 1920 को हुई कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में हिस्सा लिया। यह कांग्रेस, औपनिवेशिक देशों यानी यूरोपीय शक्तियों द्वारा शासित एशियाई देशों के सम्बन्ध
में कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की नीतियों का निर्धारण करने जा रही थी। लेनिन के अनुसार, कम्यूनिस्टों को ऐसे देशों में विदेशी साम्राज्यवाद के खिलाफ बुर्जुआ (मध्यम वर्ग यानी धन वर्ग और बुद्धिजीवी) राष्ट्रवादियों द्वारा चलाए जा रहे
क्रान्तिकारी आन्दोलनों को पूरा सक्रिय सहयोग देना चाहिए। उनका विचार था कि महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रवादी, जो कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ आन्दोलन चला रहे हैं, प्रगतिशील हैं। किन्तु राय की धारणा थी कि बुर्जुआ राष्ट्रवादी, प्रतिक्रियावादी (प्रगति के खिलाफ) हैं, साथ ही यह भी कि कम्यूनिस्टों को साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने संघर्ष को मजदूरों तथा किसानों की पार्टियाँ बनाकर स्वतन्त्र रूप से चलाना चाहिए।

राय के जोर देने के परिणामस्वरूप कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने लेनिन के विचारों को निम्न तरीके से संशोधित किया –

कम्यूनिस्टों को जहाँ एक ओर साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में ‘‘क्रान्तिकारी राष्ट्रीय बुर्जुआ को समर्थन देना चाहिए, वहीं उन्हें मजदूरों तथा किसानों के बीच सहयोग के द्वारा अपने संघर्ष को स्वतन्त्र रूप से आगे बढ़ाना चाहिए।’’

ताशकंद में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ ही एम.एन. राय ने वहाँ भारतीय फ्रंटियर जनजाति के लोगों को अंग्रेज सरकार के खिलाफ सशस्त्र क्रान्ति के उद्देश्य से सैनिक प्रशिक्षण देने के लिए सैनिक स्कूल की स्थापना की।
इसी बीच तुर्की के सुल्तान (जो कि खलीफा या मुसलमानों के धार्मिक प्रमुख थे) के प्रति अंग्रेज सरकार के विद्वेष से तंग आकर हजारों मुसलमान हिजरत करके ताशकंद में राय के साथ शामिल हो गए। वहाँ उन्होंने नए स्थापित मिल्ट्री स्कूल में सैनिक प्रशिक्षण लिया। जब मई, 1921 में यह स्कूल बंद हो गया तो मुहाजिर मास्को के पूर्व में स्थित मेहनत कशों की कम्यूनिस्ट यूनीवर्सिटी में पढ़ने चले गए। वहाँ उन्होंने मार्क्स और लेनिन के विचारों का शिक्षण प्राप्त किया। मास्को से प्रशिक्षण प्राप्त करने बाद भारत लौटने पर मुहाजिरों को गिरफ्तार कर पेशावर ले जाया गया जिसमें मियाँ मोहम्मद अकबरशाह और गौहर हमान खान को दो साल की कठोर कैद तथा अन्य लोगों को एक साल की कठिन परिश्रम की सजा दी गई। ‘‘मुहाजिरों के विरुद्ध इस पूरी कार्यवाही को पेशावर षड्यन्त्र केस (1922-23) के रूप में जाना गया।

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