इतिहासराजस्थान का इतिहास

कुम्भा के नेतृत्व में मेवाङ की सत्ता का उदय

कुम्भा के नेतृत्व में मेवाङ – अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौङ पर अधिकार कर अपने पुत्र खिज्रखाँ को वहाँ का शासनाधिकारी नियुक्त किया था। किन्तु राजपूत सरदारों ने उसे इतना परेशान किया कि अलाउद्दीन को विवश होकर खिज्रखाँ को वापिस दिल्ली बुलाना पङा और सोनगरा चौहान मालदेव को चित्तौङ का अधिकारी नियुक्त किया।

मालदेव के बाद बनवीर चित्तौङ का अधिकारी बना। 1336ई. में सरदार हम्मीर ने बनवरी से चित्तौङ छीनकर मेवाङ पर पुनः सिसोदिया वंश का प्रभुत्व स्थापित किया।

हम्मीर की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र क्षेत्रसिंह और उसके बाद में महाराणा लक्षसिंह (लाखा) मेवाङ की गद्दी पर आसीन हुआ। वृद्ध महाराणा ने मारवाङ की राजकुमारी हंसाबाई से विवाह किया तथा महाराणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र चूण्डा को प्रतिज्ञा करनी पङी कि हंसाबाई के पुत्र होने पर वह मेवाङ के सिंहासन से अपना अधिकार त्याग देगा।

इस विवाह के तेरह महीने बाद हंसाबाई ने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम मोकल रखा गया। महाराणा लाखा की मृत्यु के बाद मोकल मेवाङ की गद्दी पर बैठा। मोकल के शासन काल में मालवा के सुल्तान ने मेवाङ के गागरोन दुर्ग पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया।

उधर नागौर के मुस्लिम शासक फिरोजखाँ ने भी मेवाङ की सेनाओं को पराजित किया। बूँदी के हाङाओं ने माण्डलगढ तक का क्षेत्र अधिकृत कर लिया तथा सिरोही के शासक ने गोङवाङ क्षेत्र में अव्यवस्था उत्पन्न कर दी। ऐसी संकटापन्न स्थिति में गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने मेवाङ पर आक्रमण कर डूँगरपुर, केलवाङा और देलवाङा के क्षेत्रों को बुरी तरह से लूटा। महाराणा मोकल उसका सामना करने के लिये रवाना हुआ।

जब वह जीलवाङा में पङाव डाले हुये था, तब उसके दो चाचाओं – चाचा और मेरा ने मोकल की हत्या कर दी। मोकल की हत्या के समय उसका ज्येष्ठ पुत्र कुम्भा शिविर में उपस्थित था। अतः चाचा ने उस पर भी हमला किया किन्तु कुम्भा के शुभचिन्तक उसे किसी तरह बचा कर सकुशल चित्तौङ ले आये।

चित्तौङ पहुँचने पर मेवाङी सामंतों ने उसे मेवाङ का महाराणा घोषित कर दिया। किन्तु नैणसी ने लिखा है कि मोकल की हत्या के बाद चाचा ने अपने आपको राणा घोषित कर दिया था तथा महपा पंवार को अपना प्रधानमंत्री। दूसरी तरफ मेवाङी सामंतों ने कुम्भा को मेवाङ का राजा घोषित कर दिया।

कुम्भा का जन्म परिचय

कुम्भा का जन्म वि.सं. 1460 (1403 ई.)में हुआ था। वह मोकल की परमार रानी सौभाग्य देवी का पुत्र था। वह भी अपने पिता की भाँति अल्पायु में अर्थात् मात्र दस वर्ष की आयु में 1433 ई. में मेवाङ का शासक बना। फिर भी अपनी अपूर्व प्रतिभा का परिचय देते हुये राज्य के समस्त कार्य अपने हाथों में लेकर बङी कार्यकुशलता से उसका संचालन किया।

डॉ.आर.पी. व्यास के अनुसार राणा कुम्भा ने अपनी सहायता के लिये मारवा के शासक रणमल को मेवाङ आमंत्रित कर लिया था और उसकी सहायता से मेवाङ में शांति एवं व्यवस्था स्थापित की थी। तत्कालीन साहित्यिक ग्रन्थों में उसे महाराजाधिराज, रावराय, राजगुरु, हिन्दू सुरताण, अभिनव भरताचार्य आदि उपाधियों से अलंकृत किया गया है।

डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि संपूर्ण गुहिलवंशीय शासकों में कुम्भा या कुम्भकरण ही एक ऐसा शासक था जो अपने अनेक गुणों व विशेषताओं के प्रतीक विरुदों से विख्यात था।

कुम्भा के इतिहास की जानकारी के स्रोत

महाराणा कुम्भा ने 1433 ई. से 1468 ई. तक मेवाङ पर शासन किया। उसके शासनकाल की जानकारी हमें विविध स्रोतों से प्राप्त होती है। अब तक लगभग 60 ऐसे शिलालेख प्राप्त हो चुके हैं जो कुम्भा के बारे में किसी न किसी प्रकार की जानकारी देते हैं। एकलिंग मंदिर से एकलिंग महात्म्य प्राप्त हुआ है।

इसके प्रथम भाग को राजवर्णन के नाम से पुकारा जाता है और इसे कुम्भा ने स्वयं लिखा था। दूसरा भाग भी संभवतः उसी के निर्देशानुसार लिखा गया था। इसलिये विद्वानों की दृष्टि में एकलिंग माहात्म्य कुम्भा के शासनकाल का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साधन है…अधिक जानकारी

कुम्भा की पारंभिक कठिनाइयाँ

मोकल की हत्या के बाद अपने स्वामिभक्त सरदारों की सहायता से कुम्भा मेवाङ का राणा तो बन गया, परंतु उसके सामने अनेक आंतरिक तथा ब्राह्य कठिनाइयाँ उपस्थित थी। राणा मोकल के समय ही मालवा, गुजरात और नागौर के मुस्लिम शासकों ने मेवाङ के क्षेत्र को हथियाने के प्रयास शुरू कर दिये थे और पङौसी राजपूत शासकों ने भी मेवाङ के सीमान्त क्षेत्रों को हङपना शुरू कर दिया था।

मोकल की हत्या तथा कुम्भा की अवयस्कता का लाभ उठाते हुए मेवाङ के कुछ सरदारों ने भी राणा की प्रभुसत्ता से मुक्त होने का प्रयास शुरू कर दिया था। वस्तुतः मेवाङ के सरदारों में दलबंदी उत्पन्न हो गयी थी…अधिक जानकारी

कुम्भा और मालवा

तुगलक वंश के साथ ही दिल्ली सल्तनत की केन्द्रीय सत्ता काफी कमजोर पङ गयी जिसके फलस्वरूप सल्तनत के कई प्रांतीय अधिकारियों को दिल्ली के प्रभुत्व से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना का सुअवसर मिल गया। ऐसे राज्यों में मेवाङ के पङौसी राज्य – मालवा, गुजरात और नागौर मुख्य थे।

इन तीनों मुस्लिम राज्यों के शासकों की मुख्य आकांक्षा थी – मेवाङ की विजय, क्योंकि मेवाङ की बढती हुई शक्ति से उन्हें अपनी स्वतंत्रता को हर समय खतरा प्रतीत होता था…अधिक जानकारी

गागरोण पर महमूद खिलजी का अधिकार

 गागरोण पर खींची राजपूतों का शासन था और उन्हीं के नाम पर इस क्षेत्र को खींचीवाङा कहा जाता था। खींचियों के महाराणा कुम्भा के साथ घनिष्ठ मैत्रीपूर्ण संबंध थे। एक प्रकार से वे मेवाङ की पूर्वी सीमा के प्रहरी थे। गागरोण का राजा अचलदास खींची कुम्भा का बहनोई था और राणा मोकल के शासनकाल में होशंगशाह के आक्रमण के समय लङता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था। उसकी मृत्यु के बाद गागरोण पर मालवा का अधिकार हो गया था…अधिक जानकारी

महमूद खिलजी के अभियान

महमूद खिलजी मालवा के सुल्तान महमूद गोरी (1432-36 ई.) का वजीर था। उसने अपने मालिक को जहर देकर मार डाला और 1436 ई. में उसकी गद्दी छीन ली।महमूद खिलजी को महमूद खलजी भी कहा गया है…अधिक जानकारी

कुम्भा और गुजरात

मेवाङ और गुजरात की शत्रुता एवं संघर्ष की कहानी काफी पुरानी थी और महाराणा कुम्भा को यह शत्रुता विरासत के रूप में मिली थी। 1433ई. में जब गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने मेवाङ पर आक्रमण किया तो महाराणा मोकल ने उसका मार्ग रोकने के लिये चित्तौङ से प्रस्थान किया था और जीलवाङा में अपना शिविर लगाया था। इसी स्थान पर उसकी हत्या कर दी गयी थी…अधिक जानकारी

राजपूत राज्यों के साथ कुम्भा के संबंध

मेरों का दमन

मेर जाति के लोग बदनोर तथा उसके आस-पास के गाँवों में बसे हुए थे। महाराणा लाखा के समय से वे मेवाङ की प्रजा बन गये थे। परंतु कुम्भा के शासन के प्रारंभिक काल में उन्होंने विद्रोह करके स्वतंत्र होने का प्रयास किया। उनका नेता मुनीर था। मुनीर को मेरों के स्वतंत्रता संघर्ष में पङौस की मुस्लिम रियासतों – मालवा तथा गुजरात से सैनिक एवं आर्थिक मदद मिलने की उम्मीद थी और इसी के भरोसे उन्होंने विद्रोह का झंडा फहराया था। कुम्भा ने राव सुरताण को उनका विद्रोह दबाने के लिये भेजा। राव सुरताण ने कठोरता के साथ मेरों के विद्रोह को कुचल दिया और उस क्षेत्र पर मेवाङ की प्रभुसत्ता को पुनः स्थापित किया। मुस्लिम रियासतों से मेरों को कोई खास सहायता नहीं मिल पाई।

डूँगरपुर

डूँगरपुर तथा जावर का क्षेत्र भी मेवाङ राज्य के अधीन था। परंतु महाराणा मोकल की अवयस्कता का लाभ उठाते हुए के शासक रावल गोपीनाथ ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। मोकल के शासनकाल में वह क्षेत्र स्वतंत्र बना रहा। महाराणा बनने के बाद 1446 ई. में कुम्भा ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया। कुम्भा के आगमन की सूचना मिलते ही गोपीनाथ अपना राज्य छोङकर भाग गया और बिना किसी खास प्रतिरोध के इस क्षेत्र पर कुम्भा ने अपना अधिकार जमा लिया।आने वाले कई वर्षों तक डूँगरपुर मेवाङ का एक अभिन्न अंग बना रहा।

पूर्वी राजस्थान

पूर्वी राजस्थान का क्षेत्र दिल्ली के काफी निकट है। इसलिए दिल्ली सल्तनत की सुरक्षा की दृष्टि से इसका विशेष सामरिक महत्त्व था। दूसरी तरफ दिल्ली पर अपना दबाव बनाये रखने की दृष्टि से ग्वालियर के शासक और मालवा के सुल्तान भी इस क्षेत्र को हस्तगत करने की लालसा रखते थे। इस क्षेत्र के स्थानीय कच्छवाह सरदार अपनी स्वतंत्र सत्ता को कायम रखने के लिये उत्सुक थे। चौहानों के पतन के बाद से ही इस क्षेत्र (जयपुर, अलवर, टोंक, सवाईमाधोपुर) में मुसलमानों का प्रभाव काफी बढ गया था। बयाना और मेवात के क्षेत्रों पर तो पिछले कई वर्षों से मुसलमानों का शासन चला आ रहा था। रणथंभौर जैसे महत्त्वपूर्ण दुर्ग पर इस समय मालवा के सुल्तान ने अपना अधिकार जमा रखा था। कुम्भा इस क्षेत्र को मुसलमानों के प्रभाव से मुक्त कराना चाहता था ताकि दिल्ली सल्तनत की ओर से होने वाले संभावित आक्रमण से मेवाङ राज्य की सुरक्षा की जा सके। इसी उद्देश्य से उसने इस क्षेत्र पर कई बार आक्रमण किये और 1442 ई. में उसने मालवा के सुल्तान से रणथंभौर का दुर्ग छीन लिया। यह उसकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस समय कायम खानी मुसलमानों ने कच्छवाहों की राजधानी आमेर पर जोरदार आक्रमण किया जिसमें कच्छवाह शासक उद्वरण परास्त हुआ। आमेर पर कायमखानियों का अधिकार हो गया। जब कुम्भा को इसकी सूचना मिली तो उसने तत्काल आमेर पर चढाई कर दी। रायमखानी बुरी तरह से पराजित होकर भाग खङे हुए। महाराणा ने उद्वरण को पुनः आमेर के सिंहासन पर बैठाया। शायद टोंक एवं अलवर के क्षेत्र भी कुम्भा के अधिकार में आ गये थे।

कुम्भा की मृत्यु

महाराणा कुम्भा के अंतिम दिन रुग्णावस्था में गुजरे। उन्हें उन्माद रोग हो गया और अब वे अपना अधिकांश समय भाभादेव के निकट वाले जलाशय पर बिताने लगे थे। 1468 ई. में एक दिन जब कुम्भा हमेशा की भाँति तालाब के तट पर भगवद् भक्ति में निमग्न थे, तब कुम्भा के बङे पुत्र उदयकरण (उदा)ने उनकी हत्या कर दी। उदा के इस जघन्य कृत्य का कारण शायद उसकी यह आशंका रही हो कि कहीं कुम्भा अपने छोटे पुत्र रायमल को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत न कर दें।

कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

 महाराणा कुम्भा केवल पराक्रमी योद्धा ही नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक उपलब्धियों में भी सर्वोपरि था। कला एवं विद्या की अभिवृद्धि में विशेष अनुराग रखने के कारण उसने साहित्य, कला, नाट्यशास्र, भाषा, दर्शन आदि में नवचेतना का संचार किया। इन विविध विद्याओं में जो उन्नति महाराणा कुम्भा के काल में हुई, वह कई शताब्दियों में नहीं की जा सकी।

कुम्भा के नेतृत्व में मेवाङ -

उसके समय के स्थापत्य के प्रतीक, उसके कला प्रेम का प्रमाण हैं। वह स्वयं उच्च कोटि का विद्वान और विद्वानों का आश्रयदाता था…अधिक जानकारी

कुम्भ का मूल्यांकन

महाराणा कुम्भा की गणना मेवाङ के परम पराक्रमी और तेजस्वी राणाओं में की जाती है। कुम्भलगढ प्रशस्ति में उसे धर्म और पवित्रता का अवतार कहा जाता है। कुम्भा महान प्रजापालक और धर्म सहिष्णु शासक था। उसने आबू तीर्थ पर जाने वाले जैन तीर्थ यात्रियों से लिये जाने वाले कर को समाप्त कर दिया था। कुम्भा का व्यक्तित्व बहुमुखी था। जिस समय वह मेवाङ की गद्दी पर बैठा उस समय मेवाङ आंतरिक अव्यवस्था का शिकार बना हुआ था। सीमान्त क्षेत्र के करद शासक व सामंत स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहे थे तथा पङौसी मुस्लिम शासक मेवाङ को हङपने की योजनाएँ बना रहे थे। लेकिन कुम्भा ने बङे धैर्य और साहस से आंतरिक उपद्रवों का दमन किया, मारवाङ के राठौङों का प्रभाव क्षीण किया तथा मुस्लिम शासकों के आक्रमणों को विफल किया। यह कुम्भा की सैनिक प्रतिभा एवं योग्य नेतृत्व का प्रमाण है।

कुम्भा कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने राजपूतों की लङते हुये मरने की परंपरा का पालन नहीं किया बल्कि परिस्थितियों के अनुकूल कदम उठाया। उसने पङौसी शत्रुओं को कभी संयुक्त मोर्चा बनाने का अवसर नहीं दिया। यही कारण है कि मालवा और गुजरात के सुल्तान कुम्भा के विरुद्ध समझौता करने के बाद भी संयुक्त होकर कुम्भा से नहीं लङ सके। कुम्भा ने सदैव अपनी शक्ति और साधनों की सीमाओं में रहकर कार्य किया और इसीलिए उसने मालवा तथा गुजरात जीतने की कभी योजना नहीं बनायी। अतः कुम्भा को व्यावहारिक राजनीतिज्ञ कहा जा सकता है। उसने अपनी सुरक्षा व्यवस्था को इतना सुदृढ बनाया कि शत्रु अचानक आक्रमण करके मेवाङ की स्वतंत्रता को कोई संकट पैदा न कर सके। उसने कभी अपनी मुस्लिम प्रजा पर अत्याचार नहीं किया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : कुम्भा

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