इतिहासप्रथम विश्वयुद्धविश्व का इतिहास

प्रथम विश्व युद्ध : प्रभाव

प्रथम विश्व युद्ध : प्रभाव

चार वर्षों तक लङे गए प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम कितने घातक रहे, इसकी सहज कल्पना नहीं की जा सकती। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी पक्षों पर इसका गहरा प्रभाव पङा।

प्रथम विश्व युद्ध : प्रभाव

राजनीतिक परिणाम

निरंकुश राजतंत्रों का अंत

प्रथम विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप के अनेक प्रमुख निरंकुश राजतंत्रों एवं राजवंशों का अंत हो गया। जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी, रूस और तुर्की एवं बल्गेरिया के राजतंत्रों का अंत हो गया। इसके साथ ही जर्मनी के होहेनजोलर्न, ऑस्ट्रिया-हंगरी के हैप्सबर्ग, रूस के रोमनॉव और तुर्की के उस्मानिया राजवंशों का भी अंत हो गया। राजवंशों के पतन के साथ ही उन पर आश्रित सामंत प्रथा का भी अंत हो गया।

लघु राज्यों का उदय

1914 ई. के पूर्व यूरोप में विशाल साम्राज्यों का दबदबा था और छोटे-छोटे राज्य इन विशाल साम्राज्यों के अंग मात्र थे।महायुद्ध के बाद यूरोप लघु राज्यों का महाद्वीप बन गया। इनमें मुख्य थे – आस्ट्रिया, हंगरी, तुर्की, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, लिथुआनिया, एस्थोनिया, लेटेविया, पोलैण्ड आदि। संक्षेप में, पूर्वी और मध्य यूरोप की जनता विशाल साम्राज्यों की अधीनता से मुक्त हो चुकी थी।

लोकतंत्र का विकास

प्रथम महायुद्ध के दौरान इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की थी कि वे लोकतंतत्र की रक्षा के लिये युद्ध लङ रहे हैं। इस युद्ध के बाद समस्त पराजित देशों एवं नव-निर्मित राज्यों में लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था कायम की गयी। युद्ध के दौरान ही रूस में क्रांति हो गयी और जारशाही का अंत हो गया। जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय सिंहासन त्यागकर नीदरलैण्ड भाग गया और जर्मनी में गणतंत्र की स्थापना की गयी। आस्ट्रिया के सम्राट चार्ल्स को सिंहासन से च्यूत कर दिया गया। तुर्की के सुल्तान के साथ भी यही हुआ। वहाँ मुस्तफा कमाल पाशा ने गणतंतत्रात्मक सरकार की स्थापना की। चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, हंगरी, लिथुआनिया, एस्थोनिया, लेटेविया आदि में भी जनतांत्रिक शासन व्यवस्था कायम हुई। इस प्रकार, प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप में लोकतंत्र का प्रसार हुआ।

लोकतंत्र की रक्षा

प्रथम महायुद्ध के दौरान इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की थी कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिये युद्ध लङ रहे हैं। इस युद्ध के बाद समस्त पराजित देशों एवं नव-निर्मित राज्यों में लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था कायम की गयी। युद्ध के दौरान ही रूस में क्रांति हो गयी और जारशाही का अंत हो गया। जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय सिंहासन त्यागकर नीदरलैण्ड भाग गया और जर्मनी में गणतंत्र की स्थापना की गयी। आस्ट्रिया के सम्राट चार्ल्स को सिंहासन से च्यूत कर दिया गया। तुर्की के सुल्तान के साथ भी यही हुआ। वहाँ मुस्तफा कमाल पाशा ने गणतंतत्रात्मक सरकार की स्थापना की। चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, हंगरी, लिथुआनिया, एस्थोनिया, लेटेविया आदि में भी जनतांत्रिक शासन व्यवस्था कायम हुई। इस प्रकार, प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप में लोकतंत्र का प्रसार हुआ।

राष्ट्रीयता का विकास

नए यूरोप के राजनीतिक जीवन की आधारशिला थी – राष्ट्रीयता। युद्ध की समाप्ति के बाद नवीन राज्यों की स्थापना राष्ट्रीयता के सिद्धांत पर की गयी। इसी सिद्धांत के आधार पर चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, लिथुआनिया, एस्थोनिया, लेटेविया, हंगरी, फिनलैण्ड नामक नए राज्यों का निर्माण हुआ। राष्ट्रीयता की भावना के कारण ही प्रत्येक देश ने अपने लिये अधिकाधिक उपनिवेशों की स्थापना प्रारंभ की थी। एशिया के पिछङे देशों में राष्ट्रीयता की लहर आई और वहाँ के लोगों ने भी स्वतंत्र होने के लिये आंदोलन तेज कर दिए।

अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास

राष्ट्रीयता की भावना के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। कुछ विद्वानों के अनुसार 19 वीं सदी राष्ट्रीयता की थी और 20 वीं सदी अन्तर्राष्ट्रीयता की है। युद्ध की समाप्ति के बाद अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने तथा विश्व में शांति और सहयोग बनाए रखने के लिये राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी। इस संस्था की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कदम था।

नवीन वादों का उदय

19 वीं सदी के अंत तक यूरोप के अनेक देशों में समाजवाद की लहर पहुँच चुकी थी। 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई, जिसके परिणामस्वरूप साम्यवाद का प्रभाव बढने लगा। शांति-समझौतों से असंतुष्ट देशों – इटली में फासिस्टवाद, जर्मनी में नात्सीवाद और जापान में सैनिकवाद का उदय हुआ। इस प्रकार, युद्ध के बाद अनेक वादों का प्रादुर्भाव हुआ, जिनके कारण विश्व में शीघ्र ही मनुः तनाव का वातावरण बन गया।

साम्यवादी शासन तंत्र का उदय

यह ठीक है, कि रूस में साम्यवादी शासन की स्थापना विश्व युद्ध के दौरान ही हो गयी थी, परंतु मित्र राष्ट्रों तथा उनके द्वारा समर्थित अनेक जारकालीन रूसी सेनानायकों ने साम्यवादी शासन को समाप्त करने का अथक प्रयास किया था, परंतु लेनिन के नेतृत्व में साम्यवादी सफल रहे और रूस में एक सुदृढ साम्यवादी शासन व्यवस्था का उदय हुआ, जिसने विश्व राजनीति को अत्यधिक प्रभावित किया।

अमेरिका के प्रभाव में वृद्धि

प्रथम महायुद्ध ने संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि की और वह यूरोपीय देशों का साहूकार बन गया। यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों पर उसका एक खरब बीस अरब डालर का कर्जा था। युद्ध के दौरान और उसके बाद के काल में अनेरिका का विदेशी व्यापार दिन-दूना और रात-चौगुना हो गया। जर्मनी का व्यापार-वाणिज्य चौपट हो गया। इंग्लैण्ड को अब जर्मनी से भी अधिक भयंकर एवं शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी मिला, जिसने शीघ्र ही संपूर्ण यूरोप के व्यापर-वाणिज्य को अपने नियंत्रण में ले लिया।

साम्राज्यवाद को प्रोत्साहन

महायुद्ध के परिणामस्वरूप फ्रांस में आत्मविश्वास की नई भावना का सृजन हुआ। अल्सेस तथा लोरेन की पुनः प्राप्ति से यूरोप में उसके राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ। मैण्डेट व्यवस्था के अन्तर्गत सीरिया, लेबनान, कैमरून्स और टोगोलैण्ड आदि के मिल जाने से उसके प्रभाव में वृद्धि हुई। इटली का एड्रियाटिक सागर पर नियंत्रण कायम हो गया। ग्रेट ब्रिटेन के संरक्षण में रखे गये तुर्की एवं जर्मन उपनिवेशों से उसके औपनिवेशिक साम्राज्य का भी विकास हुआ। राष्ट्र संघ की मैण्डेट व्यवस्था से बेल्जियम,दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और जापान सभी देशों की औपनिवेशिक सत्ता का विकास हुआ। इसीलिये कहा जाता है, कि महायुद्ध से साम्राज्यवाद को नया प्रोत्साहन मिला। जापान और इटली के साम्राज्य इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

शस्त्रीकरण की होङ

वर्साय संधि के अन्तर्गत निःशस्त्रीकरण वह योजना थी, जिसे जर्मनी सहित अन्य धुरी राष्ट्रों को पूर्ण रूप से शक्तिहीन न रखने क लिये प्रयुक्त किया गया था। इसी के अन्तर्गत यह सुझाव भी दिया गया था कि मित्र राष्ट्र भी इस प्रयोग को उस सीमा तक लागू करें, जिससे सुरक्षा की संभावना स्थापित हो सके परंतु भिन्न-भिन्न राष्ट्रों द्वारा जो रुख अपनाया गया उससे निःशस्त्रीकरण की बजाय शस्त्रीकरण की भावना को ही बल मिला। परिणाम यह निकला कि प्रतिवर्ष उसका युद्ध संबंधी बजट बढने लगा और बहुत से देशों में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के नाम पर अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया जाने लगा। शस्त्रीकरण की इस होङ ने द्वितीय महायुद्ध का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

आर्थिक परिणाम

धन-संपदा की हानि

प्रथम विश्व युद्ध के कारण हुई धन संपदा की हानि का अनुमान लगाना कठिन है। कुछ सर्वेक्षणों के अनुसार लगभग 10 खरब रुपया तो प्रत्यक्ष रूप से ही खर्च हुआ। अमेरिकन फेडरल रिजर्व बोर्ड के अनुमान के अनुसार युद्ध में सम्मिलित राष्ट्रों का संयुक्त व्यय 31 मई, 1918 तक 35,000 मिलियन पौण्ड हो चुका था। हर तरफ आर्थिक असंतुलन पैदा हो गया था, जिसके परिणामस्वरूप नैतिक और राजनीतिक उथल-पुथल होने लगी। युद्धकाल में पोलैण्ड की खानें बर्बाद कर दी गयी, फसलें नष्ट हो गई, रेलमार्ग छिन्न-भिन्न कर दिए गए और मशीनों को तोङ-फोङ दिया गया। फ्रांस का भी यही हाल हुआ। जमीन बियबान हो गई, कारखाने, मकान आदि ध्वस्त हो गए। जर्मनी को रूसी सेना ने रौंद डाला, फिर भी पोलैण्ड और फ्रांस की तुलना में उसको कम क्षति उठानी पङी। इटली, आस्ट्रिया आदि अन्य देशों को भी भारी क्षति उठानी पङी। युद्ध-विराम के बाद पुनर्वास की समस्या आ खङी हुई । संक्षेप में, आर्थिक क्षति से विश्व का आर्थिक संगठन ही डगमगा गया।

युद्ध-ऋणों की समस्या

प्रथम विश्व युद्ध को जारी रखने के लिये दोनों पक्षों के प्रमुख राज्यों को बङे पैमाने पर सार्वजनिक ऋण लेने पङे। 1914 ई. में दोनों पक्षों के देशों पर लगभग 8 हजार करोङ रुपय सार्वजनिक ऋण था, जो 1918 ई. तक बढकर 40 हजार करोङ हो गया। संपत्ति का विनाश अलग था। युद्ध के बाद ऋणों को चुकाना कठिन हो गया। अधिकांश देशों ने अमेरिका तथा इंग्लैण्ड से ऋण लिए थे। स्वयं इंग्लैण्ड ने अमेरिका से कर्ज ले रखा था। इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि देश इन ऋणों को रद्द कराने के पक्ष में थे, परंतु अमेरिका इसके लिये तैयार नहीं था। इससे एक नई समस्या उत्पन्न हो गई और जब मित्र राष्ट्रों (अमेरिका के अलावा)ने युद्धकालीन ऋणों को जर्मनी से प्राप्त होने वाली क्षतिपूर्ती से जोङ दिया तो समस्या और भी अधिक गंभीर हो गयी।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को क्षति

युद्धकाल में दोनों पक्षों को जो आर्थिक क्षति उठानी पङी, उसका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर गंभीर पङा। अब प्रत्येक देश के सामने पुनर्निर्माण, पुनर्वास एवं बेरोजगारी की विकराल समस्याएँ आ खङी हुई। ऐसी स्थिति में प्रत्येक देश ने कम से कम आयात करने और अधिक से अधिक निर्यात करने की नीति अपनाई और तटकरों में भारी वृद्धि की। इससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को काफी धक्का लगा।

मुद्रा स्फीति

महायुद्ध के दौरान दोनों पक्षों का खरबों रुपया खर्च हुआ। यह खर्च किसी उत्पादन कार्य में न लगर विनाश में लगा। इसके साथ ही युद्धकाल में अनेक देशों के औद्योगिक क्षेत्रों एवं प्रतिष्ठानों, संचार एवं यातायात के साधनों को भी भारी क्षति पहुँची। परिणाम यह निकला कि अधिकांश देशों को सार्वजनिक कर्ज लेना पङा। कर्ज के चुकारे के लिये कई देशों ने अंधाधुंध कागजी मुद्रा जारी कर दी, जिससे वस्तुओं के भाव आसमान को छूने लगे। मुद्रास्फीति ने संपूर्ण यूरोप को एक प्रकार के आर्थिक संकट में डाल दिया, जिसे दूर करने के लिये अनेक उपायों का सहारा लेना पङा।

श्रमिकों की स्थिति में सुधार

महायुद्ध के दौरान लाखों श्रमिकों को भी सेना में भर्ती किया गया था और उनमें अधिकांश मारे गए, परंतु इससे प्रत्येक युद्धरत देश में श्रमिकों की भारी कमी हो गयी और उनकी माँग बढ गई। इस स्थिति में श्रमिकों को अपने महत्त्व की नई अनुभूति हुई और उन्होंने मिल-मालिकों तथा पूँजीपतियों के अत्याचारों एवं शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने का निश्चय किया। रूस में साम्यवादी शासन की स्थापना से उन्हें नैतिक बल मिला। पश्चिमी देशों की सरकारों को भी विवश होकर राजनीतिक व्यवस्था में मजदूरों के महत्त्व को स्वीकार करना पङा। अब श्रमिकों की स्थिति को सुधारने का कार्य जोर-शोर के साथ शुरू किया गया। फ्रांस और जर्मनी में मजदूरों से प्रतिदिन आठ घंटे से अधिक काम न लेने का नियम बना दिया गया। कई देशों में बीमारी, आकस्मिक दुर्घटना और वृद्धावस्था के लिये बीमा-व्यवस्था को मान्यता दे दी गयी। श्रमिकों के हित एवं अधिकारों की रक्षा के लिये ट्रेड-यूनियनें स्थापित की गयी। राष्ट्र संघ के अन्तर्गत श्रमिकों की स्थिति को सुधाने के लिये अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन की स्थापना की गई। इन सभी परिवर्तनों ने मजदूरों को जागरूक बना दिया और धीरे-धीरे मजदूर आंदोलन अधिक जोर पकङता गया।

कृषकों की सुरक्षा

विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप जहाँ श्रमिकों की स्थिति में सुधार हुआ, वहीं किसानों की स्थिति में भी महत्त्वपूर्ण सुधार आया। फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि देशों में किसानों को भूमि बाँट दी गयी और उन्हें भूमि का मालिक बना दिया गया। पुरानी सामंती व्यवस्था का अंत कर दिया गया। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार आ गया और अब वे जीवनोपयोगी वस्तुओं को खरीदने में समर्थ हो गए।

बेरोजगारी की समस्या

युद्ध के दौरान अनेक कारखाने, उद्योग-धंधे आदि नष्ट हो गए। युद्ध की समाप्ति के बाद लगभग सभी देशों (धुरी राष्ट्रों में शांति समझौतों के अन्तर्गत) में बङे पैमाने पर सैनिकों की छँटनी की गई। कृषकों की सुरक्षा और बेरोजगारी की समस्या इन दोनों कारणों के परिणामस्वरूप बहुत से देशों में बेरोजगारी की विकराल समस्या उठ खङी हुई। इटली, जर्मनी आदि में फासिस्ट दलों ने इसका भरपूर लाभ उठाया। इस समस्या के समाधान के लिये कुछ देशों ने शस्त्रीकरण का मार्ग पकङा, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में वृद्धि होती गई।

सामाजिक परिणाम

जनहानि

प्रथम विश्व युद्ध मानव इतिहास की एक भयंकर त्रासदी थी। यह अब तक लङे गये सभी युद्धों में सर्वाधिक भयंकर एवं विनाशकारी सिद्ध हुआ। इसमें 36 राष्ट्रों के साढे छः करोङ सैनिकों ने भाग लिया। इस युद्ध में लगभग एक करोङ तीस लाख सैनिक मारे गए और लगभग दो करोङ बीस लाख घायल हुए। सैनिकों के अलावा लाखों नागरिकों को भी अपने प्राणों से हाथ धोना पङा। विश्व इतिहास में इससे भीषण नरसंहार पहले कभी घटित नहीं हुआ था। युद्ध के परिणामस्वरूप यूरोपीय देशों में तो पुरुषों की कमी हो गई, जिससे जनशक्ति की भारी क्षति हुई।

अल्पसंख्यकों की समस्या

पेरिस शांति सम्मेलन में आत्म-निर्णय के अधिकार को मानते हुए बहुत से अल्पसंख्यक बच गए। पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया, रूमानिया, यूनान, तुर्की, यूगोस्लाविया आदि देशों में लाखों लोग ऐसे थे, जो राष्ट्रीयता की दृष्टि से उन देशों के नहीं थे। इन लोगों के हितों की रक्षा का दायित्व राष्ट्र संघ को सौंपा गया। राष्ट्र संघ ने इन राज्यों के साथ अलग-अलग संधियाँ की, परंतु इससे अल्प संख्यक जातियों की समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं हो सका। बाद में हिटलर जैसे अधिनायक ने इस समस्या की आङ में चेकोस्लोवाकिया और आस्ट्रिया को हङप लिया।

स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन

महायुद्ध के दौरान स्त्रियों ने कार्यालयों, दुकानों, उद्योग-धंधों आदि में लगन के साथ काम करके पुरुषों की कमी का अहसास नहीं होने दिया। उन्होंने युद्ध क्षेत्र में घायल सैनिकों की सेवा का महत्त्वपूर्ण काम भी किया। इससे स्त्रियों में राजनीतिक चेतना एवं आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ और अब वे राजनीतिक अधिकारों की माँग करने लगी। परिणामस्वरूप 1918 ई. में इंग्लैण्ड में 30 वर्ष से अधिक आयु की स्त्रियों को मताधिकार मिला। इससे पूर्व 1917ई. में रूस में स्त्रियों को मताधिकार मिल चुका था। 1920 ई. में जर्मनी में भी स्त्रियों को मताधिकार मिल गया। धीरे-धीरे अन्य देशों में भी उन्हें मताधिकार मिल गया और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के साथ उनकी समानता को स्वीकार किया जाने लगा।

सांस्कृतिक हानि

सांस्कृतिक दृष्टि से प्रथम विश्व युद्ध विनाशकारी रहा। लाखों नवयुवकों को महाविद्यालयों को छोङकर सेना में भर्ती होना पङा। शिक्षा के सरकारी व्यय में भारी कमी की गयी, जिससे बहुत सी शिक्षण संस्थाएँ बंद हो गयी। बहुत से विद्वान और वैज्ञानिक युद्ध में मारे गये। बहुत सी ऐतिहासिक इमारतें और कलाकृतियाँ नष्ट हो गयी। स्पष्ट है कि युद्ध के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक विकास को भारी क्षति हुई।

वैज्ञानिक प्रगति

प्रथम विश्व युद्ध में परंपरागत अस्त्र-शस्त्रों के अलावा वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत नवीन यंत्रों का उपयोग किया गया। पहली बार टेंकों, हवाई जहांजों, पनडुब्बियों और जहरीली गैसों का प्रयोग किया गया। इनसे बचाव के लिये भी आविष्कार किए गए। घायलों की तत्काल चिकित्सा के बारे में नई-नई औषधियों तथा उपायों की खोज की गई। इन सभी से वैज्ञानिक प्रगति को बल मिला।

इस प्रकार, प्रथम महायुद्ध के परिणामस्वरूप संसार की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अवस्था पर भारी प्रभाव पङा। इसके परिणामस्वरूप विजेता और पराजित दोनों पक्षों को भारी हानि उठानी पङी, फिर भी भविष्य की सुरक्षा के लिये कोई ठोस उपाय नहीं किया गया। केवल बीस वर्षों के अन्तराल के बाद ही संसार को इससे भी अधिक विनाशकारी द्वितीय विश्व युद्ध का सामना करना पङा।

महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : आस्ट्रिया और सर्बिया की शत्रुता का मूल कारण क्या था

उत्तर : सर्बिया आस्ट्रिया के स्लाव प्रदेशों को चाहता था

प्रश्न : 28 जून, 1914 को युवराज फर्डिनेण्ड की हत्या कर दी गई। वह किस राज्य का युवराज था

उत्तर : आस्ट्रिया।

प्रश्न : जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण क्यों किया था

उत्तर : उसने जर्मनी को रास्ता देने से मना कर दिया था

प्रश्न : बाल्कन क्षेत्र के किस राज्य ने जर्मनी का साथ दिया था

उत्तर : बल्गेरिया।

प्रश्न : प्रथम महायुद्ध का अंत किस दिन हुआ

उत्तर : 11 नवंबर, 1918 को।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

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