इतिहासमध्यकालीन भारत

राजेन्द्र चोल(1012-1044 ई.) का इतिहास

राजेन्द्र चोल को विरासत में एक विशाल साम्राज्य, सुसंगठित शासन और शक्तिशाली जल एवं थल सेना मिली थी। श्रीलंका एवं मालदीव पर जलसेना के कारण चोल नियंत्रण बना हुआ था, जिसके कारण पूर्वी जगत विशेषतः चीन के साथ व्यापार को भी प्रोत्साहन मिल रहा था। राजेन्द्र ने इन अनुकूल परिस्थितियों का अधिकाधिक लाभ उठाकर चोल साम्राज्य को समकालीन भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं सम्मानित राज्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। राजेन्द्र का इतिहास मुख्यतः उसकी व्यापक विजयों का इतिहास है। राजराज की भाँति ही उसके भी बहुत से अभिलेख प्राप्त होते हैं। तिरुवालगाडु एवं करंदाई (तंजौर) अभिलेखों में उसकी उपलब्धियों के सबसे विश्वसनीय विवरण प्राप्त होते हैं।

राजेन्द्र चोल ने पश्चिमी चालुक्यों के विरुद्ध सैनिक अभियान करके अपनी विजयों को प्रारंभ किया। राजराज के शासनकाल में कल्याणी के चालुक्यों ने तुंगभद्रा तक अपनी स्थिति सुदृढ कर ली थी। चोलों और पश्चिमी चालुक्यों के मध्य पारस्परिक शंका और पुरानी शत्रुता ने पुनः युद्ध भङका दिया। तिरुमलाय अभिलेख की प्रशस्ति से विदित होता है, कि राजेन्द्र अपने शासन के तीसरे वर्ष के समाप्त होने से पूर्व रायचूर दोआब, वनवासी, कुल्पक (कोल्लियकाय-हैदराबाद के निकट) एवं मान्य खेत आदि प्रदेश विजित कर चुका था। अभिलेखों के विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि तुंगभद्रा को पार करके चोल सेनाओं ने संपूर्ण रायचूर दोआब पर अधिकार कर लिया और वनवासी (जो कभी कदंबों की प्रसिद्ध राजधानी रह चुकी थी) तथा मान्यखेत भी इस आक्रमण से अछूते नहीं रह सके। संभवतः पश्चिमी चालुक्यों की राजधानी कल्याणी भी इस आक्रमण के कुप्रभाव से बच नहीं सकी थी। इतिहासकारों की मान्यता है, कि यह आक्रमण 1008 ई. में चालुक्य नरेश सत्याश्रय की मृत्यु से पूर्व हुआ होगा।

अपने शासन के पाँचवें वर्ष (1017 ई.) में उसने संपूर्ण श्रीलंका को विजित किया। इससे ठीक बारह वर्ष पूर्व राजराज ने श्रीलंका नरेश महिन्द पंचन की विषम आंतरिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर श्रीलंका के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया था। उस समय से महिन्द का अपने देश के केवल दक्षिणी अंतर्वर्ती भागों पर ही शासन शेष रह गया था। करंदाइ ताम्रपत्र अभिलेखों के अनुसार राजेन्द्र ने विशाल सेना की सहायता से श्रीलंका नरेश पर विजय प्राप्त की और उसके राजमुकुट सहित उसके समस्त कोष पर अधिकार कर लिया। सिंहली इतिवृत्त महावंश में भी इस चोल आक्रमण एवं उससे उत्पन्न संहार का उल्लेख है। महिन्द पंचम को पराजित करके उसे बंदी बना लिया गया और बारह वर्ष तक बंदी जीवन बिताकर तमिल प्रदेश में ही उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार संपूर्ण श्रीलंका पर चोलों का अधिकार हो गया।

राजेन्द्र की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विजय 1035 ई. में कडारम के श्रीविजय साम्राज्य के विरुद्ध सफल सैनिक अभियान था। शक्तिशाली चोल जहाजी बेङे ने बंगाल की खाङी को पार कर कडारन के श्रीविजय नरेश संग्राम कुलोतुंगवर्मन को पराजित किया और निकोबार द्वीपसमूह एवं मलय प्रायद्वीप के मध्य कडारम सहित बारह द्वीपों पर अधिकार कर लिया। श्रीविजय साम्राज्य पर इस चोल आक्रमण के दो कारण हो सकते हैं। एक तो श्रीविजय साम्राज्य संभवतः पूर्वी जगत के साथ चोलों के व्यापारिक संपर्क में बाधा बना हुआ था। प्रस्तुत ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन है कि राजेन्द्र चोल और उसके उत्तराधिकारी सुमात्रा एवं मलय द्वीपों पर अपनी इस विजय को स्थायी रख पाए अथवा नहीं। संभवतः इस विजय से आतंकित होकर कंबुज (कंपूचिया) नरेश सूर्यवर्मन प्रथम ने भी राजेन्द्र से मित्रता की प्रार्थना की थी।

राजेन्द्र के शासन के अंतिम वर्ष बङी अशांति में बीते। उसके साम्राज्य के विभिन्न भागों में विद्रोह उठ खङे हुए। लगभग 1209 ई. में श्रीलंका में महिन्द पंचम के पुत्र के नेतृत्व में मुक्ति युद्ध प्रारंभ हो गया। दूसरी ओर पाड्य और चेर दक्षिणी राज्यों में विद्रोह भङका रहे थे। इन विद्रोहों का तो सफलतापूर्वक दमन कर दिया गया, परंतु कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य नरेश अश्वमल्ल सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी पर आक्रमण कर दिया। राजेन्द्र के पुत्र राजाधिराज ने कृष्णा के किनारे पुंडी में चालुक्य सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया और वेंगी के चालुक्य वंश की पुनः रक्षा की।

राजेन्द्र चोल का शासनकाल चोल इतिहास का महानतम युग था। साम्राज्य विस्तार के क्षेत्र में चोल साम्राज्य की अधिकतर सीमाओं का विस्तार इसी युग में हुआ। उसने तंजौर से गंगैकोंडचोलपुरम् में राजधानी स्थानांनतरित की और सिंचाई के साधनों का विस्तार किया। राजेन्द्र ने वैदिक साहित्य एवं दर्शन की शिक्षा के लिये भी व्यवस्था की। राजेन्द्र के उपरांत उसके उत्तराधिकारियों को चोल साम्राज्य की रक्षा के लिये बङी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पङा।

राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारी (1044-1070 ई.)

राजेन्द्र की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। अपने पिता के शासनकाल में वह युवराज के रूप में अनेक युद्धों में भाग ले चुका था। राजेन्द्र के शासन के अंतिम दिनों में ही चोल साम्राज्य में अशांति और विद्रोह होने लगे थे। अतः राजाधिराज को सिंहासनारूढ होते ही चोल साम्राज्य की रक्षा के लिए अनेक युद्ध लङने पङे और इसी प्रयास में उसके शासन का अंत हो गया। श्रीलंका में राजेन्द्र के शासनकाल में ही मुक्ति संग्राम प्रारंभ हो चुका था और राजाधिराज प्रथम को अपने संपूर्ण शासनकाल में सिंहली संघर्ष का सामना करना पङा। महिन्द पंचम के पुत्र ने श्रीलंका के दक्षिणी-पूर्वी भाग पर अधिकार करते हुए स्वतंत्र रूप से शासन करना प्रारंभ कर दिया था। राजाधिराज के कठोर प्रयासों एवं हर संभव उपाय के बावजूद श्रीलंका पर चोल शासन स्थायी नहीं रह पाया और 1070 ई. में कुलोत्तुंग के शासनकाल में लगभग संपूर्ण श्रीलंका विजयबाहु प्रथम के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गया। चोलों ने सिंहली मुक्ति-संग्राम के दमन के लिए बङे अमानवीय और बर्बर तरीके अपनाए।

राजाधिराज प्रथम के शासनकाल में भी चोल साम्राज्य संघर्ष (जो समकालीन इतिहास का अभिन्न अंग था) की पुनरावृत्ति हुई। उसके संपूर्ण शासनकाल में चोल-चालुक्य संघर्ष चलता रहा। इस संघर्ष के दौरान चोलों ने चालुक्यों के नगरों एवं भवनों को बुरी तरह नष्ट किया, जिसकी चरम परिणति 1052 ई. में पुंडुर नगर के विनाश के रूप में हुई। परंतु कोप्पम का युद्ध बहुत निर्णायक सिद्ध हुआ। राजाधिराज ने स्वयं इस युद्ध में चोल सेनाओं का नेतृत्व किया। इस युद्ध में चालुक्य नरेश सोमेश्वर पराजित हुआ, किंतु युद्ध में लगे घातक घावों से राजाधिराज की मृत्यु हो गयी। तदुपरांत उसके अनुज राजेन्द्र द्वितीय ने वहीं युद्धक्षेत्र में ही स्वयं को नरेश के रूप में अभिषिक्त किया।

राजेन्द्र द्वितीय (1052-1064 ई.) के शासनकाल में भी चोल चालुक्य संघर्ष यथावत जारी रहा। 1062 ई. में पश्चिमी चालुक्यों द्वारा वेंगी के मामले में पुनः हस्तक्षेप करने के कारण चोल सेनाओं द्वारा कूडल-संगमम् (संभवतः कृष्णा एवं तुंगभद्रा का संगम स्थल) में चालुक्यों को पराजित करने का उल्लेख है। इस युद्ध के बाद राजेन्द्र द्वितीय की पुत्री मधुरांतिका का पूर्वी चालुक्य युवराज राजेन्द्र के साथ विवाह हुआ।

राजेन्द्र द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका अनुज वीर राजेन्द्र (1062-1069 ई.) उसका उत्तराधिकारी हो गया। उसके सिंहासनारूढ होते ही पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने कूडल-संगमम् में चोलों को पुनः युद्ध लङने के लिए ललकारा। वीर राजेन्द्र इस चुनौती का मुकाबला करने के लिये उक्त स्थान पर एक माह तक चालुक्य सेनाओं की प्रतीक्षा करता रहा। किंतु सोमेश्वर असाध्य रोग के कारण चोल सेनाओं का मुकाबला करने के लिए उपस्थित नहीं हो सका और उसने बाद में युद्ध में उपस्थित न हो सकने के अपमान एवं अपने रोग से त्रस्त होकर आत्महत्या कर ली। वीर राजेन्द्र ने उक्त घटना की स्मृति में तुंगभद्रा के तट पर एक विजयस्तंभ की स्थापना की और इस अभियान से वापस आते समय वेंगी से पश्चिमी चालुक्यों के प्रभाव को समाप्त करके पूर्वी चालुक्य नरेश विजयादित्य सप्तम की स्थिति को सुदृढ किया। इसी अभियान के दौरान विजयवाङा के युद्ध में पश्चिमी चालुक्य सेनाओं को पुनः पराजित किया गया। वीर राजेन्द्र ने विजयबाहु के दमन के लिये श्रीलंका में चोल सेना भेजी। चोल सेनाओं ने सिंहली सेनाओं को तो पराजित किया पर विजयबाहु का पूर्णतः दमन नहीं कर सकी। एक परवर्ती चोल अभिलेख में वीर राजेन्द्र द्वारा एक अज्ञात नरेश की सहायता के लिये श्रीविजय पर आक्रमण एवं कडारम की विजय का उल्लेख मिलता है। परंतु इस अभियान का हमें कोई विवरण प्राप्त नहीं होता। उक्त अभिलेख के घटनाक्रम के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है, कि वीर राजेन्द्र ने यह विजय 1068 ई. से पूर्वी की होगी।

वीर राजेन्द्र पश्चिमी चालुक्यों के साथ युद्ध करने के लिये सदैव अवसर की प्रतीक्षा में रहता था। उसने पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद 1068 ई. में सोमेश्वर द्वितीय के उत्तराधिकारी होते ही चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। चोल एवं चालुक्य अभिलेख में इस घटना का परस्पर विरोधी विवरण प्राप्त होता है। विल्हण के विक्रमांकदेव-चरित एवं कुछ तमिल ग्रंथों में भी इस घटना का उल्लेख है। इन समस्त साक्ष्यों के तुलनात्मक विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है, कि सोमेश्वर द्वितीय एवं उनके अनुज विक्रमादित्य षष्ठ में पारस्परिक कलह एवं संघर्ष हो गया था और विक्रमादित्य ने अपने भाी के विरुद्ध चोलों से सहायता की याचना की थी। अंततः चोलों के दबाव में आकर सोमेश्वर ने पश्चिमी चालुक्य साम्राज्य का एक भाग अपने अनुज विक्रमादित्य को दे दिया था। वीर राजेन्द्र ने विक्रमादित्य के साथ चोल राजकुमारी का विवाह करके पश्चिमी चालुक्यों के साथ संबंधों में एक नए अध्याय का शुभारंभ किया। चोलों एवं पश्चिमी चालुक्यों के मध्य शांति स्थापित करने में गोआ के कदंब शासक जयकेस प्रथम ने मध्यस्थ की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

वीर राजेन्द्र भी अपने पूर्वजों की भाँति वैदिक साहित्य का संरक्षक था। 1067 ई. के एक चोल अभिलेख में उल्लेख है कि वीर राजेन्द्र ने एक वैदिक महाविद्यालय के लिये चिकित्सालय एवं छात्रावास की व्यवस्था की थी।

वीर राजेन्द्र की 1069 ई. के अंत या 1070 ई. के प्रारंभ में मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र अधिराजेन्द्र उसका उत्तराधिकारी हुआ। परंतु वह केवल कुछ माह ही शासन कर सका। वीर राजेन्द्र उसका उत्तराधिकारी हुआ। परंतु वह केवल कुछ माह ही शासन कर सका। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के कुछ सप्ताह के बाद ही अधिराजेन्द्र की हत्या कर डाली। इसके साथ ही विजयादित्य द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया। बाद में पूर्वी चालुक्य वंशीय कुलोत्तुंग चोल सम्राट बना। यही कारण है कि परवर्ती चोल इतिहास चोल चालुक्य वंशीय इतिहास कहलाता है।

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