इतिहासदक्षिण भारतप्राचीन भारतसंगम युग

संगम काल की संस्कृति

संगमकाल दक्षिण भारत के प्राचीन इतिहास का एक कालखण्ड है। यह कालखण्ड ईसापूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी तक फैला हुआ है। यह नाम ‘संगम साहित्य’ के नाम पर पड़ा है।

सुदूर दक्षिण भारत में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के बीच के क्षेत्र को ‘तमिल प्रदेश’ कहा जाता था। इस प्रदेश में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था।जिनमें चेर, चोल,पांड्य प्रमुख थे।

दक्षिण भारत के इस प्रदेश में तमिल कवियों द्वारा सभाओं तथा गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। इन गोष्ठियों में विद्वानों के मध्य विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था, इसे ही ‘संगम‘ के नाम से जाना जाता है। 100 ई. से 250 ई. के मध्य दक्षिण भारत में तीन संगमों को आयोजित किया गया।  सर्वप्रथम इन गोष्ठियों का आयोजन पांड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया था, जिसकी राजधानी मदुरई थी।

Prev 1 of 1 Next
Prev 1 of 1 Next

संगम साहित्य के अध्ययन से हम ईसा की आरंभिक शताब्दियों के सुदूर दक्षिण की सभ्यता की जानकारी प्राप्त करते हैं। इस युग के राज्य परस्पर संघर्ष में उलझे हुये थे।फिर भी संगमकाल में – शासन व्यवस्था, सामाजिक दशा, आर्थिक दशा,धार्मिक दशा का विकास हुआ था।

शासन व्यवस्था

संगमकालीन साहित्यानुसार इस समय राजा का पद वंशानुगत होता था, जो ज्येष्ठता पर आधारित था। राजा का चरित्रवान, प्रजापालक, निष्पक्ष तथा संयमी होना अनिवार्य था। राजसभा को ‘मनडाय‘ कहा जाता था, जहाँ राजा द्वारा न्यायिक कार्य किये जाते थे। अपने जीवन काल में ही राजा युवराज की नियुक्ति कर देते थे। युवराज को ‘कोमहन’ तथा अन्य पुत्रों को ‘इलेंगों’ कहा जाता था। राजा के नि:संतान मरने पर मंत्रियों तथा प्रजा द्वारा राजा का चुनाव किया जाता था। राजा का जन्म दिन इस युग में महोत्सव के रूप में मनाया जाता था। राज्याभिषेक का प्रचलन नहीं था, लेकिन राजा के सिंहासनारूढ़ होने के समय उत्सव का आयोजन किया जाता था…अधिक जानकारी

सामाजिक स्थिति

प्राचीन तमिल समाज का स्वरूप मूलत: जनजातीय था। परन्तु कृषि क्षेत्र में  धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था। धीरे-धीरे पुरानी नातेदारी व्यवस्था टूट एवं वैदिक वर्ण व्यवस्था स्थापित हो रही थी, किन्तु संगम युग में स्पष्ट से वर्ण विभाजन देखने को नहीं मिलता है। क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं थे…अधिक जानकारी

आर्थिक स्थिति

उपहार के द्वारा आर्थिक पुनर्वितरण होता था। समृद्ध और शक्तिशाली वर्ग में तीन प्रकार के लोग थे- वेतर, वेलिट, वेल्लारव्यापार– लेन-देन का सबसे सामान्य तरीका वस्तु विनिमय था। तमिल प्रदेश में वस्तु विनिमय प्रणाली में ऋण व्यवस्था नहीं थी। किसी वस्तु पर निश्चित राशि का ऋण लिया जा सकता था। बाद में उसी प्रकार तथा उसी मात्रा में वही वस्तु लौटा दी जाती थी। यह प्रथा कुरीटिरपरई कहलाती थी। विनिमय दर निश्चित नहीं थी। धान और नमक दो ही ऐसी वस्तुएँ थीं, जिसकी निश्चित विनिमय दर थी। धान की समान मात्रा के बराबर नमक दिया जाता था…अधिक जानकारी

धार्मिक स्थिति

ऋग्वेद में उल्लेखित उत्तरी भारत में आर्य-दस्यु संघर्ष के समान उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संपर्क में संघर्ष के तत्त्व नहीं मिलते। अगस्त्य और कौडीन्य ऋषि का दक्षिण भारत से पर्याप्त संबंध  रहा है। वहाँ अनेक मंदिर अगस्तेश्वर नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। एक परंपरा के अनुसार पांड्य राजवंश के पुरोहित अगस्त्य वंश के पुरोहित होते थे। ऐसी ही एक परम्परागत अनुश्रुति में ऐसा माना जाता है कि तमिल भाषा तथा व्याकरण की उत्पत्ति अगस्त्य ने की। पुरनानुरू तथा तोल्कापियम के अनुसार अगस्त्य का संबंध द्वारका से था। महाभारत या पुराणों में भी दक्षिण में कृषि के विस्तार से अगस्त्य का संबंध स्पष्ट जोड़ा गया है…अधिक जानकारी

संगम युगीन संपूर्ण जानकारी प्राप्त करें

References:
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक-के.सी.श्रीवास्तव

Related Articles

error: Content is protected !!