इतिहासप्राचीन भारत

भारतीय संस्कृति में धार्मिक व्यवस्था

भारतीय संस्कृति में धर्म का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वास्तव में यदि देखा जाय तो यह भारतीय संस्कृति का प्राण है।अति प्राचीन काल में धर्म को एक पवित्र प्रेरक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया।भारत-भूमि अनेक धर्मों तथा संप्रदायों की क्रीङास्थली रही। धार्मिक सहिष्णुता का जो आदर्श हमें यहाँ देखने को मिलता है, वह विश्व की किसी अन्य संस्कृति में दुर्लभ है। प्रत्येक धर्म ने भारतीय संस्कृति के निर्माण में अपना – अपना योगदान दिया है।

ब्राह्मण (वैदिक),बौद्ध तथा जैन प्राचीन काल के प्रमुख धर्म हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में इनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जायेगा-

वैदिक धर्म

प्राचीन भारतीयों के धर्म के विषय में सुनिश्चित ज्ञान हमें सर्वप्रथम वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है, जिसमें वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक तथा उपनिषद की गणना की जाती है। इस साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है, जिसमें हमें सर्वप्रथम बहुदेववाद के दर्शन होते हैं। आर्य विभिन्न देवताओं के अस्तित्व में विश्वास करते थे। उनके अधिकांश देवता प्रकृति की विविध शक्तियों के प्रकीक हैं, जिनका मानवीकरण किया गया है तथा यह माना गया है, कि देवताओं की कृपा से ही संसार कार्य-कलाप संचालित होते हैं। प्रत्येक देवता को संसार के श्रष्टा तथा नियंता के रूप में दर्शाया गया है।

मुख्यतः वैदिक देवताओं के तीन वर्ग हैं –

आकाश के देवता- इनमें वरुण, पूषन्, मित्र, सूर्य, विष्णु, अश्विन, उषा आदि हैं।

अंतरिक्ष के देवता- इनमें इन्द्र, अपाम्, पर्जन्य, आपः, रुद्र, मरुत आदि की गणना की गयी है।

पृथिवी के देवता- इनमें अग्नि, बृहस्पति, सोम, इत्यादि देवता आते हैं।

ऋग्वेद में उल्लिखित अधिकांश देवता पुरुष हैं तथा देवियों का स्थान गौण है। अदिति ही इस काल की महत्त्वपूर्ण देवी हैं। कुछ देवता अमूर्त भावनाओं के द्योतक हैं, जैसे – श्रद्धा, मन्यु, धातृ,प्राण, काल आदि। देवताओं की उपासना यज्ञों द्वारा की जाती थी। इस अवसर पर मंत्रों द्वारा देवताओं का आवाहन किया जाता था। ऋग्वेद में विभिन्न देवताओं के प्रति कहे जाने वाले मंत्रों का उल्लेख मिलता है। यज्ञों में अग्नि, घृत, अन्न, माँस आदि की आहुतियाँ दी जाती थी। ऐसी मान्यता थी, कि अग्नि द्वारा आहुति देवता तक पहुँचती है। देवता स्वयं उपस्थित होकर आहुतियाँ ग्रहण करते हैं तथा मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ का विस्तृत विवेचन मिलता है। प्रमुख यज्ञ थे – सोमदेव, अग्नि होत्र, पुरुषमेघ, पंचमहायज्ञ, वाजपेय, राजसूय अश्वमेघ आदि। ऋग्वेद में सोमयज्ञ का विस्तृत विवरण मिलता है। यह एक व्यापक यज्ञ था, जिसमें तीन-तीन वेदियों, तीन-तीन अग्नियों तथा बहुसंख्यक पुजारियों के साथ-साथ चार प्रधान पुरोहित भाग लेते थे। स्पष्टतः इसमें बहुत अधिक धन व्यय होता होगा। अतः यह सामान्य जन की पहुँच के बाहर था। अग्निहोत्र प्रातः एवं संध्याकाल में अग्नि की पूजा के साथ संपन्न होता था। पितृयज्ञ में पितरों की तुष्टि के लिये बलि दी जाती थी। सोमयज्ञ के अंतर्गत ही पुरुषमेघ आता था। इसमें ग्यारह या पच्चीस यूप बनते थे, जिसमें मध्य पुरुष को आबद्ध किया जाता था। यह पाँच दिनों तक चलता रहा। पंचमहायज्ञ प्रत्येक गृहस्थ के लिये आवश्यक माना गया है। इसमें भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्म यज्ञ सम्मिलित थे। राजसूय यज्ञ अभिषिक्त शासक द्वारा संपन्न किया जाता था। पता चलता है, कि राजसूय यज्ञ के अवसर पर राजा रानियों के घर जाता था, जो उसे राजपद की मान्यता प्रदान कते थे। यह यज्ञ केवल राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता था। अश्वमेघ, सोमयज्ञ का ही एक प्रकार था। सार्वभौम सत्ता के अभिलाषी सम्राट यह यज्ञ किया करते थे। इसमें अश्व की बलि का विधान था।

वैदिक देवता सदाचार तथा नैतिक नियमों के संरक्षक हैं। उनका संबंध ऋत से बताया गया है। ऋत का अर्थ है सत्य तथा अविनाशी सत्ता। ऋग्वेद में ऋत की बङी सुंदर कल्पना मिलती है। बताया गया है, कि सृष्टि के आदि में सबसे पहले ऋत उत्पन्न हुआ था – ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोअध्यजायत। इसी के द्वारा विश्व में सुव्यवस्था एवं प्रतिष्ठा स्थापित होती है। ऋत विश्व की व्यवस्था का नियामक है। देवता ऋत के स्वरूप हैं अथवा ऋत से उत्पन्न हुए हैं तथा वे अपनी दैवी शक्तियों के द्वारा ऋत की रक्षा करते हैं। सोम ऋत के द्वारा उत्पन्न तथा वर्धित होते हैं, सूर्य ऋत का विस्तार करते हैं तथा नदियाँ इसी ऋत का वहन करती हैं। इस प्रकार ऋत से तात्पर्य विश्वव्यापी भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था से है। डॉ. राधाकृष्णन् ने तो ऋत को सदाचार के मार्ग तथा बुराइयों से रहित यथार्थ पथ के रूप में निरूपित किया है।

वैदिक ऋषियों के देवताओं की कल्पना मनुष्यों के रूप में की तथा उनमें सभी मानवीय गुणों को आरोपित कर दिया। देवता तथा मनुष्य में अंतर यह था, कि देवता अमर तथा सर्वव्यापी थे। उनमें मानवोचित दुर्बलतायें भी नहीं थी। वे अपार शक्ति तथा नैतिकता से युक्त होते थे। इसके विपरीत मनुष्य मर्त्य एवं सीमित साधनों वाला था। वह देवता की कृपा का अभिलाषी रहता था, तथा मनुष्य का उत्थान उसकी कृपा द्वारा ही संभव था। देवताओं के कोप से उसका सर्वनाथ हो सकता है। अतः मनुष्य उन्हें प्रसन्न करने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहता था।

वैदिक धर्म की एक विशिष्टता यह है, कि इसमें जिस देवता की स्तुति की गयी है उसी को सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि मान लिया गया है। कभी वरुण तथा कई इन्द्र को सर्वोपरि मानकर अन्य देवताओं की उत्पत्ति उनसे मानी गयी है। मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति को हेनोथीज्म अथवा कैथेनोथीज्म की संज्ञा प्रदान की है।

वैदिक साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है, कि ऋषियों ने देवताओं की बहुलता से घबराकर यह खोज करना प्रारंभ किया कि सर्वशक्तिमान एवं सर्वश्रेष्ठ देवता कौन है? यह प्रश्न उत्पन्न हुआ, कि किस देवता के लिये हवि का विधान किया जाये? देवताओं की संख्या कम करने के लिये कुछ को मिलाकर एक ही श्रेणी में कर दिया गया। मरुतों, अश्विनों तथा आदित्यों की भी एक श्रेणी मानी गयी है। इस प्रकार देवताओं की संख्या में कमी आई। किन्तु ऋषियों को इतने से संतोष को इतने से ही संतोष नहीं हुआ, क्योंकि वे तो सर्वोच्च देवता की खोज करना चाहते थे। अपने चिन्तन के अंतिम चरण में उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण तथ्य खोज निकाला कि परम तत्व (सत्) एक ही है, जिसे ज्ञानी लोग अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि विभिन्न नामों से जानते हैं – एकं सत् विप्राः बहुधा वदंति। अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः। इसी परम तत्व को हिरण्यगर्भ, प्रजापति, विश्वकर्मा आदि के नाम से वर्णित किया गया है। यह एकेश्ववरवाद की अनुभूति है। इस प्रकार ऋग्वैदिक धर्म साधारण बहुदेववाद से प्रारंभ होकर एकेश्ववरवाद के रूप में बदल गया। एकेश्ववरवाद की विस्तृत व्याख्या बाद के दर्शन में मिलती है।

ऋग्वेद में परमतत्व संबंधी विचार दो रूपों में प्राप्त होते हैं –

सर्वेश्वरवाद – इसका विवेचन ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मिलता है, जिसमें कहा गया है, कि सृष्टि के आदि में एक ही परमत्त्व था। उसी से सृष्टि की उत्पत्ति हुई। वही पूर्णरूपेण सृष्टि में व्याप्त है।

एकत्ववाद – इसका विवेचन पुरुष सूक्त में हुआ है, जहां बताया गया है, कि सृष्टि का मूल तत्व विराट पुरुष है। वह विश्व में व्याप्त होते हुये भी उससे कुछ अंशों में परे है।

ऋग्वैदिक धर्म का उद्देश्य मुख्यतः लौकिक सुखों को प्राप्त करना था। देवताओं की उपासना युद्ध में विजय, अच्छी, खेती, संतान की प्राप्ति आदि के लिये जाती थी। यज्ञों द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति में भी आर्यों का विश्वास था। उनके विचार पूर्णतया आशावादी थे। वे जीवन के सुखों का पूरा-पूरा उपभोग करना चाहते थे। तपस्या, कायाक्लेश आदि में उनका विश्वास नहीं था। प्रारंभ में यज्ञों का विधान अत्यन्त सरल था, किन्तु बाद में चलकर यह जटिल एवं विस्तृत हो गया। कुछ यज्ञ अत्यन्त विस्तृत एवं व्ययसाध्य होते थे। उपनिषद् काल में यज्ञों का महत्त्व घट गया तथा कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान की प्रतिष्ठा की गयी। तप, त्याग, संन्यास आदि पर बल दिया जाने लगा। मोक्ष के लिये कायाक्लेश तथा संन्यास को आवश्यक समझा गया। उपनिषदों की प्रमुख शिक्षा व्यक्ति के सारभूत तत्व आत्मा का जगत के सारभूत तत्व ब्रह्म के साथ तादात्म्य स्थापित करना है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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