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भवभूति संस्कृत के महान नाटककार थे

भवभूति संस्कृत के महान नाटककार थे

संस्कृत के नाटककारों में कालिदास की बराबरी करने की क्षमता भवभूति में ही दिखाई देती है। उनका आविर्भाव 700 ई. के लगभग हुआ और वे कन्नौज के शासक यशोवर्मा की राजसभा में निवास करते थे।

भवभूति ने तीन नाटकों की रचना की थी। इनका विवरण इस प्रकार है-

मालतीमाधव

यह दस अंकों का नाटक है, जिसमें मालती तथा माधव की प्रेम कथा का चित्रण हुआ है। पूरे ग्रंथ में प्रेम की बङी ही सजीव एवं उदात्त कल्पना पाठकों के सामने उपस्थित की गयी है। भवभूति धर्माविरुद्ध प्रेम के समर्थक हैं तथा धर्म से विरोध करने वाले प्रेम की उपेक्षा करते हुये वे उसे समाज के लिय अनिष्टकर बताते हैं। मालती माधव में श्रृंगार रस की प्रधानता है।

महावीर चरित

इसके दस अंकों में राम के जीवन की कथा का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। यह वीर रस प्रधान नाटक है, जिसमें कवि ने राम को आदर्श पुरुष के रूप में चित्रित किया है। इसके कथानक में ऐक्य प्रदर्शन करने में उन्हें सफलता मिली है। राम के दोषों को भिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है। राम विवाह, वनवास, सीताहरण तथा राम के राज्याभिषेक पर्यन्त रामायण की घटनाओं का सुन्दर अंकन करने में कवि को सफलता मिली है।

उत्तररामचरित

यह भवभूति का सर्वश्रेष्ठ नाटक है, जो उनकी प्रसिद्धि का सबसे बङा कारण है। इसके सात अंकों में रामायण के उत्तरार्ध की कथा वर्णित है। राम के राज्याभिषेक, सीता परित्याग तथा उनक पुनर्मिलन तक की घटनाओं का वर्णन अत्यन्त सजीवता के साथ किया गया है।
इस नाटक का मूल स्त्रोत रामायण का उत्तराकाण्ड है। किन्तु भवभूति ने नाटक को सुन्दर तथा अलंकृत बनाने के उद्देश्य से उसमें परिवर्तन कर दिये हैं। रामायण में रामकथा का अंत दुखद है, क्योंकि राम परित्यक्ता सीता की प्राप्ति पुनः नहीं कर पाते तथा वे पाताल लोक में प्रवेश कर जाती है। किन्तु भवभूति ने एक विशेष परिस्थिति उत्पन्न कर दोनों का पुनर्मिलन दिखाते हुये नाटक को सुखान्त बना दिया है।
इसके साथ ही साथ उन्होंने अपनी कल्पना से अनेक चमत्कारी दृश्यों का सृजन कर नाटक को रोचक बना दिया है। चित्रदर्शन, राम का दंडक वन में पुनरागमन तथा वासंती मिलाप, छाया सीता की कल्पना, सातवें अंक का गर्भाङ्क आदि कवि की मौलिक कल्पनायें हैं, जो नाटक के कथानक को रमणीयता प्रदान करती हैं।

भवभूति की रचनाओं में विदग्धता तथा पाण्डित्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। वे वेद, उपनिषद, व्याकरण, अलंकार शास्त्र आदि के विद्वान थे तथा भाषा के ऊपर उनका असाधारण अधिकार था। भाव के अनुकूल शब्दों के चुनाव में वे पटु हैं। मानव ह्रदय के सूक्ष्म भावों को दर्शाने में वे जितने निपुण हैं, उतने ही प्रकृति के वीभत्स दृश्यों के अंकन में भी। उत्तररामचरित में हमें नाट्यकला की सभी विशेषतायें देखने को मिलती हैं। भाषा की प्रौढता, वाणी की उदारता तथा अर्थ की गंभीरता, ये काव्य रचना के गुण बताये गये हैं और भवभूति में हमें इन तीनों का सामंजस्य देखने को मिलता है।

भवभूति ने अनेक रसों के प्रयोग में सिद्धि पायी है, किन्तु कुरुण रस के वे आचार्य हैं और करुण रस के अंकन में उनके जैसा दूसरा कवि नहीं है। कहा भी गया है, कि कारुण्यं भवभूतिरेव तुनते। उत्तररामचरित की रचना उन्होंने करुण रस के लिये ही किया है। नाटक के तीसरे अंक में वे स्वयं लिखते हैं , कि –

एको रसः करुण एव निमित्त भेदात्
भिन्न पृथक्पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान्।
आवर्त्तबुदमुदतरंगमयान् विकारान्
अम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समग्रम्।।

अर्थात् एकमात्र मुख्य रस करुण ही होता है, यही भिन्न-भिन्न रसों को प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक ही रूप वाला स्थिर जल अनेक प्रकार के भँवर, बुदबुद तथा तरंगों के रूप में बदलता हुआ भी मूलतः एक ही बना रहता है, उसी प्रकार एक ही करुण रस विभिन्न कारणों से अनेक रशों का रूप धारण करता है।

भवभूति का श्रृंगार वर्णन उच्छृंखल न होकर संयमित अवं आदर्शपूर्ण है। यह विशुद्ध प्रेम पर आधारित है। यौवन की रोमांचक अवस्था का चित्रण होने पर भी उसमें कामलिप्सा नहीं है। एक स्थान पर वे लिखते हैं शुद्ध प्रेम जीवन की प्रत्येक अवस्था में एकरस बना रहता है।
उसमें ह्रदय एक अनिर्वचनीय सुख एवं शांति की अनुभूति करता है। परिस्थिति का उस पर प्रभाव नहीं पङता। वृद्धावस्था में भी उसकी रसमयता अक्षुण्ण रहती हैं। कुछ समय बाद दुराव हट जाने पर उसमें और भी परिपक्वता आ जाती है. ऐसे कल्याणकारी पवित्र दाम्पत्य प्रेम की प्राप्ति सौभाग्य से ही होती है –

अद्वैतं सुखदुखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थासु यत्,
विश्रामो ह्रदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः।
कालेनावरणात्ययात् परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं,
भद्रं प्रेम सुमानुषस्य कथमप्येकं हि तत्प्राप्यते।।

भवभूति का प्रेम चित्रण दाम्पत्य जीवन से संबंध रखता है और इसी कारम वह पवित्र एवं गंभीर है। आदर्श दंपत्ति-प्रेम की परिभाषा देते हुये भवभूति लिखते हैं, कि यह वह प्रेम है, जिसमें पति-पत्नी को परस्पर सच्चा मित्र एवं बंधु माना जाता है। उनका समस्त जीवन उनकी सभी इच्छायें तता समस्त सम्पत्ति एक दूसरे के लिये होती है-

प्रेयो मित्रं बन्धुता वा समग्रा, सर्वे कामाःशेवधिर्जीवितं वा।
स्त्रीणां भर्ताधर्मदारश्च पुंसामित्यन्योन्यं वत्सयोर्ज्ञातमस्तु।।

इस प्रकार भवभूति संस्कृत साहित्य में कालिदास के स्तर के नाटककार हैं। कालिदास से लेकर भवभूति तक का समय नाट्य साहित्य के विकास का स्वर्णयुग है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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