चालुक्यों का धार्मिक जीवन
चालुक्य ब्राह्मण धर्मानुयायी थे तथा उनके कुल – देवता विष्णु थे। इसके अलावा वे लोग शिव की भी पूजा करते थे। वाराह उनका पारिवारिक चिह्न था। चालुक्य राजाओं के अधिकांश लेख विष्णु के वाराह अवतार की आराधना से प्रारंभ होते हैं। बादामी के कुछ रिलीफ चित्रों में शेष-शय्या पर लक्ष्मी के साथ शयन करते हुये नरसिंह आदि रूपों में विष्णु का अंकन मिलता है। कुछ चालुक्य शासकों ने परमभागवत की उपाधि ग्रहण की थी। विष्णु तथा शिव के साथ-साथ अन्य पौराणिक देवी-देवताओं की पूजा का भी व्यापक प्रचलन था। वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान होता था तथा ब्राह्मणों को दान दिये जाते थे।
परंतु स्वयं ब्राह्मण धर्मानुयायी होने पर भी चालुक्य वंशी शासक धर्मसहिष्णु थे। उनकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने दक्षिणापथ में जैन तथा बौद्ध धर्मों के विकास को प्रोत्साहन दिया। चालुक्य लेखों से पता चलता है, कि उन्होंने जैन साधुओं तथा शिक्षकों को दान दिये थे। ऐहोल अभिलेख का रचयिता रविकीर्ति जैन था, जिसे पुलकेशिन द्वितीय ने संरक्षण प्रदान किया था। उसने वहाँ जिनेन्द्र का एक मंदिर बनवाया था, जिसे मेगुती-मंदिर कहा जाता है। विजयादित्य, विक्रमादित्य द्वितीय आदि चालुक्य राजाओं ने विद्वानों को पुरस्कृत किया तथा जैन मंदिर के निर्माण अथवा निर्वाह के लिये धन दान दिया था। बादामी तथा ऐहोल की गुफाओं में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं।
ब्राह्मण तथा जैन धर्मों की अपेक्षा बौद्ध धर्म हीन अवस्था में था। फिर भी चालुक्य राज्य में अनेक बौद्ध मठ तथा विहार थे, जिनमें हीनयान तथा महायान दोनों ही संप्रदायों के भिक्षु निवास करते थे। ह्वेनसांग, जो स्वयं पुलकेशिन द्वितीय के समय महाराष्ट्र गया था, ने बादामी में पाँच अशोक स्तूप देखे थे। वह चालुक्य राज्य में बैद्ध मठों की संख्या 100 से अधिक बताता है, जिनमें पाँच हजार भिक्षु निवास करते थे।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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