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फ्रांस की सुरक्षा की खोज

फ्रांस की सुरक्षा की खोज (France’s quest for safety)

1870 ई. को प्रशा ने फ्रांस को बुरी तरह हराकर आल्सेस तथा लॉरेन्स छीन लिये थे। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी को पराजित करने पर भी फ्रांस अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं था। उसे विगत आधी सदी में ही जर्मनी ने दो बार पद दलित कर दिया था। विजयी होने पर भी फ्रांस को भावी जर्मनी आक्रमण की आशंका भयभीत कर रही थी। जैक्सन के शब्दों में “फ्रांस की नीति का मूल आधार सुरक्षा की चिन्ता थी।”

लैंगसम के अनुसार “प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होने से पूर्व ही फ्रांस ने भावी जर्मनी आक्रमण से सुरक्षा की खोज आरंभ कर दी थी।”

पेरिस शांति सम्मेलन में फ्रांस के प्रधानमंत्री क्लीमेन्शो की इच्छा थी कि जर्मनी को इतना कुचल दिया जाय कि वह फिर कभी फ्रांस पर आक्रमण न कर सके इसलिये उसने जर्मनी के समस्त उपनिवेश फ्रांस को दिये जाने की मांग की। लेकिन इंग्लैण्ड तथा अमेरिका ने इसे नहीं मानते हुए उपनिवेशों को मैण्डेट प्रणाली के अन्तर्गत मित्र राष्ट्रों को दे दिया। क्लीमेंशो राइनप्रदेश में स्वतंत्र राज्य की स्थापना चाहता था। किन्तु अमेरिका तथा इंग्लैण्ड ने इसे स्वीकार नहीं किया। राइन प्रदेश को विसैन्यीकृत क्षेत्र घोषित किया गया।

राष्ट्रसंघ की योजना प्रस्तुत होने पर फ्रांस का प्रयास था कि राष्ट्रसंघ के अधीन अन्तर्राष्ट्रीय सेना रखी जाये जो वर्साय संधि की क्रियान्विति करा सके। लेकिन इंग्लैण्ड तथा अमेरिका इसके लिये सहमत नहीं हुए। फ्रांस की संतुष्टि हेतु इंग्लैण्ड तथा अमेरिका ने अकारण जर्मनी द्वारा फ्रांस पर आक्रमण किए जाने पर सहायता का आश्वासन दिया। लेकिन अमेरिकी सीनेट ने वर्साय संधि को अस्वीकृत कर दिया तथा अमेरिका यूरोप की राजनीति से तटस्थ हो गया। अमेरीका ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता भी नहीं ग्रहण की। जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्रसंघ की आक्रमणकारी के विरुद्ध प्रतिबंधों की व्यवस्था निरर्थक हो गयी।

सुरक्षा हेतु संधियाँ

फ्रांस ने अब अपनी सुरक्षा हेतु संधियों तथा गुट निर्माण के प्रयास आरंभ कर दिये। उसने 1920 ई. में जर्मनी के विरुद्ध बोल्जियम से परस्पर सहयोग की संधि कर ली। जर्मनी की पूर्वी सीमा पर इंग्लैण्ड पौलेण्ड पोलिश गलियारे को लेकर जर्मनी से आशंकित था।

1921 ई. में फ्रांस तथा पौलेण्ड ने जर्मन आक्रमण के विरुद्ध परस्पर सहयोग की संधि कर ली। चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया तथा रूमानिया का निर्माण आस्ट्रिया, हंगरी के विघटन तथा वर्साय की संधि द्वारा प्राप्त क्षेत्रों से हुआ था। इन तीनों देशों की रूचि वर्साय संधि की व्यवस्थाओं को बनाये रखने की थी। फ्रांस भी वर्साय संधि में संशोधन के विरुद्ध था। फ्रांस ने 1923 ई. में चेकोस्लोवाकिया से तथा 1927 ई. में यूगोस्लाविया एवं रूमानिया से संधि कर ली।

इंग्लैण्ड से मतभेद

इंग्लैण्ड, जर्मनी से व्यापार बढाना चाहता था। इसलिए वह चाहता था कि जर्मनी की स्थिति सुदृढ हो। लेकिन फ्रांस जर्मनी को दबा कर रखना चाहता था। उसने 1923 ई. में इंग्लैण्ड के विरोध के बाद भी रूर प्रदेश पर अधिकार कर लिया।

लौकार्नो पैक्ट

1925 ई. में इंग्लैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी, इटली, पौलेण्ड तथा चेकोस्लोवाकिया के प्रतिनिधि स्विटजरलैण्ड में लोकार्नो नामक कस्बे में एकत्र हुए। यहाँ हुए समझौते में वर्साय संधि द्वारा निर्धारित फ्रांस, जर्मनी तथा बेलजियम की सीमाओं की पुष्टि की गयी। राइन प्रदेश का सैन्यीकरण नहीं किए जाने पर सहमति प्रकट की गयी। विवादों के हल के लिए समझौता तथा वार्ता पर सहमति हुई।

तीन अवस्थाओं – क.) आत्मरक्षा ख.) सीमाभंग ग.) राष्ट्रसंघ की आज्ञा के अलावा परिस्थितियों में युद्ध का परित्याग करने का वचन दिया गया। जर्मनी को राष्ट्रसंघ की आज्ञा का सदस्य बनाया जाना निश्चित किया गया।

केलॉग ब्रियाँ पैक्ट

फ्रांसीसी विदेश मंत्री ब्रियाँ की पहल पर अमेरिकी विदेश मंत्री की सहमति से इस पैक्ट में दो बाते निश्चित की गयी। क.) युद्ध का परित्याग, ख.) पारस्परिक विवादों का शांतिपूर्ण उपायों द्वारा हल । 29 अगस्त, 1928 ई. को पेरिस सम्मेलन में 15 राष्ट्रों ने इसे स्वीकार कर लिया। बाद में 65 देशों ने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी।

निःशस्त्रीकरण

फ्रांस ने राष्ट्रसंघ के माध्यम से निशस्त्रीकरण की भी पहल की। लेकिन जर्मनी द्वारा अन्य राष्ट्रों का निःशस्त्रीकरण किए जाने अथवा उसे भी शस्त्रीकरण की अनुमति देने की मांग पर कोई निर्णय न हो सका। अंततः 19 अक्टूबर 1933 ई. को जर्मनी निःशस्त्रीकरण सम्मेलन से अलग हो गया। उसने राष्ट्रसंघ की सदस्यता भी छोङ दी। मार्च, 1935 ई. में जर्मनी ने शस्त्रीकरण आरंभ कर दिया। मार्च 1936 ई. में हिटलर ने राइन प्रदेश में सेनाऐं भेज दी। फ्रांस इस प्रश्न पर जर्मनी से युद्ध करना चाहता था, परंतु इंग्लैण्ड का समर्थन न मिलने से मौन ही रहा।

फ्रांस तथा इटली

अफ्रीका में फ्रांस तथा इटली के हितों के बीच टकराव था। लेकिन हिटलर के उदय से भयभीत फ्रांस ने इटली से मित्रता के प्रयास आरंभ कर दिये। 1935 ई. में फ्रांस ने इटली से संधि द्वारा अफ्रीका में अपनी सीमाऐं निश्चित कर ली। यही नहीं फ्रांस ने अबीसीनिया में फ्रांसीसी हित नहीं होने की बात भी स्वीकार कर ली। 1935 ई. में इटली द्वारा अबीसीनिया पर आक्रमण के समय फ्रांस ने राष्ट्रसंघ का सहयोग नहीं किया तथा मुसोलिनी को प्रसन्न करने के प्रयास किए।

फ्रांसीसी विदेश नीति की त्रुटियाँ

1935 ई. से ही फ्रांस की विदेश नीति का स्वतंत्र स्वरूप नष्ट हो गया था। फ्रांस, इंग्लैण्ड के साथ तुष्टीकरण की नीति का अनुसरण करने लगा। उसकी मुसोलिनी समर्थक नीति से लघु मैत्री संधि के सदस्य (चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, रूमानिया) तथा पौलेण्ड फ्रांस से विमुख होने लगे। फ्रांस ने इंग्लैण्ड का समर्थन न मिलने के कारण राइनलैण्ड में जर्मनी सेनाओं के प्रवेश का विरोध नहीं किया। इससे फ्रांस के मित्र भयभीत हो गए। स्पेन के गृहयुद्ध में जर्मनी तथा इटली ने तानाशाह जनरल फ्रैको की सहायता की। लेकिन फ्रांस ने गणतंत्रवादी सरकार की रक्षा का प्रयास नहीं किया। यही नहीं हिटलर द्वारा आस्ट्रिया एवं चेकोस्लोवाकिया को हङपते समय भी फ्रांस निष्क्रिय बना रहा। उसने सितंबर, 1938 ई. में म्यूनिख समझौते के समय अपने मित्र रूस को सूचित भी नहीं किया। इससे रूस का इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के प्रति भरोसा समाप्त हो गया।

फ्रांस की अस्पष्ट विदेश नीति से उसके मित्र विमुख होने लगे। 1934 ई. में पौलेण्ड ने जर्मनी से अनाक्रमण संधि कर ली। लघु मैत्री संधि समाप्त हो गयी। यूगोस्लाविया ने जर्मनी से संधि कर ली। 1936 ई. में फ्रांस बेल्जियम सैनिक संधि भी भंग हो गयी। 23 अगस्त, 1939 ई. को रूस ने जर्मनी से अनाक्रमण संधि कर ली। वस्तुतः फ्रांस तथा इंग्लैण्ड की विदेश नीति इतनी निर्बल थी कि दोनों देश चेकोस्लोवाकिया की रक्षा नहीं कर सके।

इस अस्पष्ट विदेश नीति का परिणाम यह हुआ कि सितंबर, 1939 ई. में एक बार पुनः जर्मनी सेनाओं ने फ्रांस को रौंद दिया। इतिहास ने अपने आपको एक बार पुनः दोहराया तथा 1939 ई. के प्रथम विश्वयुद्ध के लगभग वही दोनों पक्ष बीस वर्षों में ही एक बार पुनः आमने सामने आ खङे हुए।

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