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गुप्त-राजवंश(319-550 ईस्वी) का इतिहास की जानकारी के साधन

कुषाण साम्राज्य के विघटन के बाद जिस विकेन्द्रीकरण के युग का प्रारंभ हुआ वह चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ तक चलता रहा। पश्चिमी पंजाब में यद्यपि कुषाण वंश का शासन था, तथापि पूर्व की ओर उसका कोई प्रभाव नहीं था। गुजरात तथा मालवा के पश्चिमी भाग में शक अभी सक्रिय थे, परंतु उनकी शक्ति का उत्तरोत्तर पतन होता जा रहा था।

उत्तरी भारत के शेष भू-भाग में इस समय अनेक राज्यों एवं गणराज्यों का शासन था। सामान्यतः यह काल अराजकता, अव्यवस्था एवं दुर्बलता का काल था। देश में कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति नहीं थी, जो विभिन्न छोटे-बङे राज्यों को विजित कर एकछत्र शासन-व्यवस्था की स्थापना केन्द्रीय कर सकती।

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यह काल किसी महान सेनानायक की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ती के लिये सर्वाधिक स्वर्णिम अवसर प्रस्तुत कर रहा था। इन सभी के परिणामस्वरूप मगध के गुप्त राजवंश में ऐसे महान् सेनानायकों का उदय हुआ।

गुप्त-इतिहास की जानकारी के साधन-

गुप्त राजवंश का इतिहास हमें साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों ही प्रमाणों से ज्ञात होता है। साहित्यिक साधनों में पुराण सर्वप्रथम हैं। पुराणों में विष्णु, वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराणों को हम गुप्त-इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक मान सकते हैं। इनसे गुप्तवंश के प्रारंभिक इतिहास का कुछ ज्ञान प्राप्त होता है।

विशाखादत्तकृत के देवीचंद्रगुप्तम् नाटक से गुप्तवंशी नरेश रामगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय के विषय में कुछ सूचना मिलती है। अधिकांश विद्वान महाकवि कालिदास को गुप्तकालीन विभूति मानते हैं। उनकी अनेकानेक रचनाओं से गुप्तयुगीन समाज एवं संस्कृति पर सुंदर प्रकाश पङता है। शूद्रकृत के मृच्छकटिक एवं वात्स्यायन के कामसूत्र से भी गुप्तकालीन शासन व्यवस्था एवं नगर जीवन के विषय में रोचक सामग्री मिल जाती है।

भारतीय साहित्य के अलावा विदेशी यात्रियों का विवरण भी गुप्त इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक हुआ है। ऐसे यात्रियों में फाहियान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वह चीनी यात्री था। फाहियान गुप्तनरेश चंद्रगुप्त द्वितीय (375-415ईस्वी)के शासन काल में भारत आया था। उसने मध्यदेश की जनता का वर्णन किया है। सातवीं शती के चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में कुछ सूचनायें मिलती हैं। उसने कुमारगुप्त प्रथम (शक्रादित्य), बुधगुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख किया है।

उसके विवरण से पता चलता है, कि कुमारगुप्त ने ही नालंदा महाविहार की स्थापना करवायी थी। वह बालादित्य को हूण नरेश मिहिरकुल का विजेता बताता है। इसकी पहचान नरसिंह गुप्त बालादित्य से की जाती है।

इन सभी साहित्यिक साक्ष्यों के अलावा पुरातत्वीय प्रमाणों से भी हमें गुप्त राजवंश के इतिहास के पुनर्निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। इनका वर्गीकरण तीन भागों में किया जा सकता है-

  1. अभिलेख,
  2. सिक्के,
  3. स्मारक।

इन तीनों भागों का विवरण निम्नलिखित है-

अभिलेख-

गुप्तकालीन अभिलेखों में सर्वप्रथम उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तंभलेख का किया जा सकता है। यह एक प्रशस्ति है, जिससे समुद्रगुप्त के राज्याभिषेक, दिग्विजय तथा उसके व्यक्तित्व पर विशद प्रकाश पङता है। चंद्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि से प्राप्त गुहालेख से उसकी दिग्विजय की सूचना प्राप्त होती है। कुमारगुप्त प्रथम के समय के लेख उत्तरी बंगाल से मिलते हैं, जो इस बात का सूचक है, कि इस समय तक संपूर्ण बंगाल का भाग गुप्तों के अधिकार में आ गया था। स्कंदगुप्त के भितरी स्तंभ-लेख से हूण आक्रमण की सूचना मिलती है।

इसी सम्राट के जूनागढ से प्राप्त अभिलेख से पता चलता है, कि उसने इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था। इसके अलावा और भी अनेक अभिलेख एवं दानपत्र मिले हैं, जिनसे गुप्त काल की अनेक महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी होती है। इन सभी अभिलेखों की भाषा विशुद्ध संस्कृत संस्कृत है तथा इनमें दी गयी तिथियाँ गुप्त संवत् की हैं। इतिहास के साथ ही साथ साहित्य की दृष्टि से भी गुप्त अभिलेखों का विशेष महत्त्व है। इनसे संस्कृत भाषा तथा साहित्य के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण मिलता है। हरिषेण द्वारा विरचित प्रयाग प्रशस्ति तो वस्तुतः एक चरित काव्य ही है।

सिक्के –

गुप्तवंशी राजाओं के अनेक सिक्के हमें प्राप्त होते हैं। ये स्वर्ण, रजत तथा ताँबे के हैं। स्वर्ण सिक्कों को दीनार, रजत सिक्कों को रूपक या रुप्यक तथा ताम्र सिक्कों को माषक कहा जाता था। गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बङा ढेर राजस्थान प्रांत के बयाना से प्राप्त हुआ है। एलन, अटिकर आदि विद्वानों ने गुप्तकालीन सिक्कों का विस्तृत अध्ययन किया है।

अनेक सिक्कों पर तिथियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं । जिनके आधार पर हम तत्संबंधी शासकों का तिथि निर्धारण कर सकते हैं। एक प्रकार का स्वर्ण सिक्का प्राप्त हुआ है, जिसके मुख भाग पर चंद्रगुप्त एवं कुमारदेवी की आकृति तथा पृष्ठभाग पर लिच्छवय उत्कीर्ण मिलता है। इससे स्पष्ट होता है, कि चंद्रगुप्त ने लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी के साथ विवाह किया था। समुद्रगुप्त के अश्वमेघ प्रकार के सिक्कों से उसके अश्वमेघ यज्ञ की सूचना तथा चंद्रगुप्त द्वितीय के व्याघ्र-हनन प्रकार के सिक्कों से उसकी पश्चिमी भारत (शक प्रदेश) के विजय की सूचना मिलती है। मध्य प्रदेश के एरण तथा भिलसा से रामगुप्त के कुछ सिक्के मिलते हैं। जिनसे हम उसकी ऐतिहासिकता का पुनर्निर्माण करने में सहायता प्राप्त करते हैं।

स्मारक-

गुप्तकाल के अनेक मंदिर, स्तंभ, मूर्तियाँ एवं चैत्य-गृह (गुहा मंदिर) प्राप्त होते हैं। जिनसे तत्कालीन कला तथा स्थापत्य की उत्कृष्टता सूचित होती है। इनसे तत्कालीन सम्राटों एवं जनता के धार्मिक विश्वास को समझने में भी मदद मिलती है। मंदिरों में भूमरा का शिव मंदिर, तिगवाँ (जबलपुर) का विष्णु मंदिर, नचना-कुठार (मध्य प्रदेश के भूतपूर्व अजयगढ रियासत में वर्तमान) का पार्वती मंदिर, देवगढ (झाँसी) का दशावतार मंदिर, भितरीगाँव (कानपुर) का मंदिर तथा लाङखान के मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

ये सभी मंदिर अपनी निर्माण-शैली, आकार-प्रकार एवं सुदृढता के लिये प्रसिद्ध हैं तथा वास्तुकला के भव्य नमूने हैं। मंदिरों के अतिरिक्त सारनाथ, मथुरा, सुल्तानगंज, करमदंडा, खोह, देवगढ आदि स्थानों से बुद्ध, शिव, विष्णु आदि देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनसे तत्कालीन तक्षणकला पर प्रकाश पङता है। साथ ही इन मूर्तियों में गुप्त नरेशों की धार्मिक सहिष्णुता भी सूचित होती है।

मंदिर तथा मूर्तियों के साथ ही साथ बाघ (ग्वालियर, मध्य प्रदेश) तथा अजंता की कुछ गुफाओं (16वी. एवं 17वी.) के चित्र भी गुप्त काल के ही माने जाते हैं। बाघ की गुफाओं के चित्र लौकिक जीवन से संबंधित हैं, जबकि अजंता के चित्रों का विषय धार्मिक है। इन चित्रों के माध्यम से गुप्तकालीन समाज की वेष-भूषा, श्रृंगार-प्रसाधन एवं धार्मिक विश्वास को समझने में सहायता मिलती है। साथ ही इनसे गुप्तकालीन चित्रकला के पर्याप्त विकसित होने का भी प्रमाण उपलब्ध हो जाता है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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