प्राचीन भारतइतिहासकुषाण वंश

कुषाण युगीन संस्कृति एवं समाज

कुषाण काल में भारतीय समाज का मूल ढाँचा अपरिवर्तित रहा। परंपरागत वर्ण व्यवस्था पर विदेशियों के आक्रमण से गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया। इसका सामना करने के लिये सामाजिक व्यवस्थाकारों ने उन्हें अपनी व्यवस्था के अंतर्गत स्थान दिया। परंपरागत चार वर्णों का आधार जन्म बन गया। तथा बहुसंख्यक पेशेवर जातियों की उत्पत्ति हो गयी।

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विभिन्न श्रेणियाँ भी क्रमशः संकुचित होकर कठोर जातियों में परिणत हो गयी। कृषि, व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के परिणामस्वरूप समाज के निम्न वर्गों की दशा में सुधार हुए तथा अंतिम दो वर्णों – वैश्य तथा शूद्र का अंतर काफी कम हो गया। शक, कुषाण आदि विदेशी जातियों को स्मृतिकारों ने व्रात्य क्षत्रिय कहकर वर्ण व्यवस्था में स्थान दे दिया। कुषाणयुगीन शिल्पों तथा मूर्तियों की वेशभूषा से तत्कालीन समाज के वस्राभूषण की जानकारी होती है। निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है, कि आम जनता का जीवन सुखी एवं सुविधापूर्ण था।

आर्थिक समृद्धि – व्यापार – वाणिज्य की प्रगति

भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक कुषाणों का शासन बना रहा। आर्थिक दृष्टि से यह सर्वाधिक समृद्धि का काल माना जा सकता है। कुषाणों ने प्रथम बार एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की थी। इसके पूर्व में चीन तथा पश्चिम में पार्थिया के साम्राज्य स्थित थे। इस काल में आर्थिक जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है, भारत का मध्य एशिया तथा पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संबंध की स्थापना। कुषाणों ने चीन से ईरान तथा पश्चिमी एशिया तक जाने वाले रेशम के मार्ग को अपने नियंत्रण में रखा, क्योंकि यह उनके साम्राज्य से होकर गुजरता था।

यह मार्ग उनकी आमदनी का सबसे बङा स्रोत था। क्योंकि इससे जाने वाले व्यापारी बहुत अधिक कर देते थे। इस सिल्क व्यापार में भारतीय व्यापारियों ने बिचौलियों के रूप में भाग लेना प्रारंभ कर दिया। इसके फलस्वरूप उत्तरी-पश्चिमी भारत एक अत्यंत समृद्ध व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकसित हो गया।

इस समय रोम साम्राज्य का भी उदय हो रहा था। रोम तथा पार्थिया के बीच संबंध अच्छे नहीं थे। अतः चीन के साथ व्यापारिक संबंध की पुष्टि करते हैं। प्लिनी भारत को बहुमूल्य पत्थरों एवं रत्नों का प्रमुख उत्पादक बताता है। उसके विवरण से पता चलता है, कि रोम प्रतिवर्ष भारत से विलासिता की सामग्रियाँ मंगाने में दस करोङ सेस्टर्स व्यय करता था। वह अपने देशवासियों की इस अपव्ययिताके लिये निन्दा करता है।

विलासिता सामग्रियों के बदले में भारत रोम से बङी मात्रा में स्वर्ण-मुद्रायें उपलब्ध करता था। पेरीपल्स से भी इस विवरण की पुष्टि होती है। इसके अनुसार भारत से मसाले, मोती, मलमल, हाथीदाँत की वस्तुएँ, औषधियाँ, चंदन, इत्र आदि बहुतायत में रोम पहुँचते थे। इनके बदले रोम का सोना भारत आता था।

भारत में रोम के स्वर्ण सिक्के मिलते हैं। रोम के निवासियों का भारतीय सामग्रियों के प्रति गहरा आकर्षण था। रोमन युवतियाँ भारतीय मोती के गहने धारण करती थी तथा महिलाएँ मलमल की साङियों की दीवानी थी।

कुषाणकालीन भारत में व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में सिक्कों का नियमित रूप से प्रचलन था। कुषाणों के पास स्वर्ण का भारी भंडार था, जिसे उन्होंने मध्य एशिया के अल्ताई पहाङों एवं रोम से प्राप्त किया था। सिक्कों का प्रारंभ विम कडफिसेस के काल से हुआ। तथा कनिष्क के समय तक आते-2 भारी मात्रा में स्वर्ण मुद्राओं का निर्माण होने लगा। कुषाण सिक्के शुद्धता की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनका वजन 123-24 ग्रेन है तथा इनमें स्वर्ण की मात्रा 92 प्रतिशत थी।

कालांतर में गुप्त शासकों ने इन्हीं के अनुकरण प सिक्के चलवाये थे। उत्तर तथा पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कुषाणों ने बङी मात्रा में ताँबे के सिक्के प्रचलित करवाये थे। ऐसा लगता है, कि सामान्य व्यवहार में इन्हीं का प्रयोग किया जाता था, जबकि विशेष लेन-देन स्वर्ण सिक्कों में होता होगा।

इस प्रकार कनिष्क का शासन-काल आर्थिक समृद्धि एवं संपन्नता का काल था।गंगा घाटी एवं मध्य एशिया के विभिन्न स्थलों कि खुदाई से पता चलता है, कि कुषाणकालीन नगरीकरण चर्मोत्कर्ष पर था।मथुरा के पास सोंख नामक स्थलों की खुदाई से स्पष्ट होता है,कि कुषाण कालीन भवनों के सात स्तर थे, जबकि गुप्तकालीन भवनों में केवल एक या दो ही स्तर थे। इस समय भवनों के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया जाता था।

फर्श भी पक्की ईंटों की बनती थी तथा छतों में पके खपरैल लगाये जाते थे। सोंख में गली के दोनों ओर दुकानों की पंक्तियां मिली हैं। विविध स्थलों की खुदाई से प्राप्त में प्राप्त भौतिक अवशेषों से स्पष्ट है कि कुषाणकाल भवनों, नगरों तथा सिक्कों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध था। जितने अधिक सिक्के तथा उनके साँचे इस काल (ई.पू. 200 से ई. 200) में मिले हैं। उतने किसी अन्य काल में नहीं मिलते।

विविध धातुओं से मुद्रायें तैयार करना मौर्योत्तर नगरीय जीवन की खास विशेषता थी, जिसने रोम तथा मध्य एशिया से होने वाले व्यापार में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि कुषाणकाल आर्थिक दृष्टि से स्वर्णयुग था। इस समय बाह्य तथा आंतरिक दोनों व्यापार उन्नति पर थे। विविध शिल्पों एवं व्यवसायों का सम्यक विकास हुआ। व्यापार-व्यवसाय में श्रेणियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। हुविष्ककालीन मथुरा लेख में आटा पीसने वालों की श्रेणी का उल्लेख मिलता है। शक-सातवाहन लेखों तथा बौद्ध ग्रंथों में वर्णित श्रेणियां अवश्य ही कुषाणकाल में भी सक्रिय रही होंगी। मथुरा नगर की स्थिति कुषाणों की दूसरी राजधानी जैसी थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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