प्राचीन भारतइतिहाससातवाहन वंश

शक सातवाहन संघर्ष का वर्णन

सातवाहन नरेश शातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहनों का इतिहास अंधकारपूर्ण हो गया। 17 ईसा. पूर्व के लगभग से 106 ईस्वी (गौतमीपुत्र शातकर्णी के उदय) तक का काल सातवाहनों के पतन का काल है।

सातवाहन साम्राज्य के पश्चिमी तथा उत्तरी प्रदेशों पर शकों का अधिकार हो गया। यहीं से शक-सातवाहनों का संघर्ष प्रारंभ हो गया।

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पश्चिमी भारत में शासन करने वाले प्रथम शक नरेश का नाम मेम्बरस था, जिसका उल्लेख पेरीप्लस में मिलता है। पेरीप्लस का लेखक के अनुसार मेम्बरस का राज्य कोठियावाङ, गुजरात तथा राजस्थान के कुछ भागों तक विस्तृत था। उसकी राजधानी मिन्नगर थी। पेरीप्लस में इस नगर की स्थिति का जो विवरण दिया गया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है, कि यह नगर मंदसोर (दशपुर) था। पेरीप्लस से पता चलता है, कि इस समय सातवाहनों का बंदरगाह कल्यान, मेम्बरस के आक्रमणों के कारण असुरक्षित था तथा यहाँ आने वाले यूनानी मालवाहक जहांजों को रक्षकों के साथ क्या संबंध था, यह पता नहीं है। शक-सातवाहन संघर्ष का वास्तविक इतिहास इसी समय से प्रारंभ होता है।

क्षहरात वंश का प्रथम शासक भूमक था। उसके सिक्के गुजरात, काठियावाङ के तटीय प्रदेश, मालव तथा राजपूताना के अजमेर क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। सिक्कों की प्राप्ति स्थानों से इस बात का संकेत मिलता है, कि उपर्युक्त स्थान उसके राज्य में सम्मिलित थे। इसमें मालवा को उसने अपने समकालीन सातवाहन नरेश से जीता होगा। नहपान इस वंश का दूसरा राजा था। सिक्कों के अतिरिक्त उसके अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं।

सिक्कों तथा अभिलेखों के सम्मिलित साक्ष्य से ऐसा निष्कर्ष निकलता है,कि नहपान ने सातवाहनों के अनेक प्रदेशों को जीत लिया था। उसके सिक्के उत्तर में अजमेर से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र तक मिले हैं। तथा अभिलेख जुन्नार (पूना), नासिक तथा कार्ले में प्राप्त हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है , कि नहपान के नेतृत्व में शकों ने सातवाहनों को मालवा, अपरांत तथा महाराष्ट्र से बाहर खदेङ दिया और इन प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। शकों को यह सफलता शातकर्णी प्रथम के उत्तराधिकारियों के काल में ही प्राप्त हुई होगी।

इस समय सातवाहन लोग मैसूर के बेलारी जिले में आकर बस गये। संभवतः इस समय सातवाहनों ने शकों की अधीनता भी स्वीकार कर ली।

परंतु शीघ्र ही सातवाहनों की स्थिति में परिवर्तन हुआ तथा उन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णी (106-130ईस्वी) जैसा एक योग्य एवं प्रतिभाशाली शासक मिला। नासिक प्रशस्ति से पता चलता है, कि अपने राज्यारोहण के 18वें वर्ष गौतमीपुत्र ने व्यापक सैनिक तैयारियों के साथ क्षहरातों के राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में नहपान तथा उसका दामाद ऋषभदत्त मार डाले गये। गैतमीपुत्र ने अपरांत (उत्तरी कोंकण), अनूप (नर्मदा घाटी), सुराष्ट्र, कुक्कुर (पश्चिमी राजपूताना), आकर तथा अवंति(पूर्वी-पश्चिमी मालवा) के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

नासिक प्रशस्ति में उसे क्षहरातों का विनाश करने वाला तथा शक, यवन और पह्लवों का उन्मूलन करने वाला तथा सातवाहन कुल की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने वाला (सातवाहन कुल-यस-पतिथापन करस)कहा गया है। गौतमीपुत्र की नहपान के विरुद्ध इस विजय की पुष्टि नासिक जिले के जोगलथंबी में मिले सिक्कों के ढेर से भी हो जाती है। यहाँ नहपान के अनेक चाँदी के सिक्के ऐसे मिलते हैं, जो गौतमीपुत्र द्वारा पुनरंकित हैं। ऐसा लगता है, कि जोगलथंबी में क्षहरात नरेश नहपान का राजकीय कोषागार था। गौतमीपुत्र ने उसे पराजित कर उसके कोषागार पर अधिकार कर लिया। यह शकों के विरुद्ध सातवाहनों की प्रथम महत्त्वपूर्ण सफलता थी।

गौतमीपुत्र शातकर्णी के पुत्र तथा उत्तराधिकारी वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी के समय में सातवाहनों का संघर्ष शकों की कार्दमक शाखा से हुआ। कार्दमक शाखा का संस्थापक यसमोतिक का पुत्र चष्टन था। टालमी के विवरण से ज्ञात होता ,कि उसकी राजधानी उज्जयिनी (उज्जैन) में थी। इससे स्पष्ट होता है कि चष्टन ने सातवाहनों से उज्जयिनी (पश्चिमी मालवा) को जीत लिया था,क्योंकि गौतमीपुत्र शातकर्णी के समय में यह सातवाहन साम्राज्य में था। चष्टन के कुछ सिक्कों पर चैत्य का चिन्ह उत्कीर्ण मिलता है। चैत्य सातवाहनों के सिक्कों का अक प्रमुख चिन्ह था। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने ऐसा निष्कर्ष निकाला है, कि चष्टन ने सातवाहनों के उत्तरी प्रदेशों को, जहाँ चैत्य प्रकार के सिक्के प्रचलित थे, जीत लिया था।

वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी

सातवाहनों के विरुद्ध कार्दमक शकों को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सफलता चष्टन के पौत्र रुद्रदामन (130-150 ईस्वी) के समय में मिली है। 150 ईस्वी के जूनागढ अभिलेख से पता चलता है, कि आकर-अवंति (पूर्वी-पश्चिमी मालवा), अनूप(नर्मदा घाटी), सुराष्ट्र, कुकुर(पश्चिमी राजपूताना) तथा अपरांत (उत्तरी कोंकण) के प्रदेशों पर उसका अधिकार था। गौतमीपुत्र शातकर्णी को नासिक प्रशस्ति से इन्हीं प्रदेशों पर सातवाहनों का भी अधिकार सूचित होता है। अतः स्पष्ट है, कि रुद्रदामन ने इन प्रदेशों को गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारी शासक पुलुमावी से जीता होगा।

जूनागढ अभिलेख में यह भी कहा गया है कि रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णी को दो बार पराजित किया, परंतु संबंध की निकटता के कारण उसका वध नहीं किया। यहाँ जिस शातकर्णी का उल्लेख हुआ है, उसकी पहचान वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी से ही करनी चाहिए। कन्हेरी के लेख से पता चलता है, कि गौतमीपुत्र के समय उसके पुत्र (पुलुमावी) का विवाह रुद्रदामन की कन्या से हुआ था। इस प्रकार ऐसा लगता है, कि सातवाहनों ने कार्दमक शकों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर उसके द्वारा विजित अपने कुछ प्रदेशों की रक्षा करने का प्रयत्न किया था।

शक-सातवाहन संघर्ष का अंतिम चरण सातवाहन नरेश यज्ञश्री शातकर्णी के समय प्रारंभ हुआ। उसने शकों से अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के लिये उनके विरुद्ध अभियान छेङ दिया। अपरांत (उत्तरी कोंकण)से उसके शासन काल के 16वें वर्ष का एक लेख मिला है, जो इस बात का प्रमाण है,कि उसने अपरांत को पुनः जीत लिया था। सोपारा से मिले उसके कुछ सिक्के रुद्रदामन के चाँदी के सिक्कों के अनुकरण पर ढलवाये गये हैं। उसके सिक्कों का विस्तार गुजरात, काठियावाङ, मालवा, मध्यप्रदेश एवं आंध्रप्रदेश तक है। इस प्रकार ऐसा लगता है कि, उसने शकों को परास्त कर अपरांत,पश्चिमी भारत का कुछ भाग तथा अनूप (नर्मदा घाटी) को फिर से जीत लिया था। इसके साथ ही शक-सातवाहन संघर्ष का अंत हुआ।

ऐसा प्रतीत होता है, कि इसके बाद शक तथा सातवाहन दोनों ही वंश अपनी-अपनी आंतरिक समस्याओं में बुरी तरह व्यस्त हो गये जिसके फलस्वरूप उनकी पारस्परिक शत्रुता का स्वाभाविक रूप से अंत हुआ। लगभग एक शताब्दी के आपसी संघर्ष में दोनों ही राजवंशों की शक्ति समाप्त हो चुकी थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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