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मथुरा कला शैली का इतिहास

कुषाण काल में मथुरा भी कला का प्रमुख केन्द्र था, जहां अनेक स्तूपों, विहारों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया गया। इस समय तक शिल्पकारों एवं मूर्ति निर्माण के लिये मथुरा के कलाकार दूर-2 तक प्रख्यात हो चुके थे।

यहाँ से अनेक हिन्दू, बौद्ध एवं जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें अधिकांशतः कुषाण युग की हैं।

मथुरा की बौद्ध मूर्तियां गंधार से सर्वथा स्वतंत्र थी तथा उनका आधार मूल रूप से भारतीय था।

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मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खङी तथा बैठी मुद्रा में बनी हुई मूर्तियाँ मिली हैं। उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है। बुद्ध मूर्तियों में कटरा से प्राप्त मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसे चौकी पर उत्कीर्ण लेख में बौधिसत्व की संज्ञा दी गयी है। इसमें बुद्ध को भिक्षु वेष धारण किये हुये दिखाया गया है। वे बोधिसत्व के नीचे सिंहासन पर विराजमान हैं तथा उनका दायां हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। उनकी हथेली तथा तलवों पर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न के चिन्ह बनाये गये हैं। बुद्ध के पीछे वृत्ताकार प्रभामंडल प्रदर्शित किया गया है।

अभय मुद्रा में आसीन बुद्ध की एक मूर्ति अन्योर से मिली है, जिसे बोधसत्व की संज्ञा दी गयी है। इस पर कनिष्क संवत् 51 अर्थात् 129 ईस्वी की तिथि अंकित है। बुद्ध के अलावा मैत्रेय, काश्यप अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्व-मूर्तियाँ भी मथुरा से मिली हैं। मैत्रेय भविष्य में अवतार लेने वाले बुद्ध हैं।

मथुरा शैली में कनिष्क की एक सिर रहित मूर्ति मिली है, जिस पर राजाधिराज देवपुत्रों कनिष्को अंकित है। यह खङी मुद्रा में है तथा 5 फुट 7 इंच ऊँची है। राजा घुटने तक कोट पहने हुए है, उसके पैरों में भारी जूते हैं, दायाँ हाथ गदा पर टिका है तथा वह बायें हाथ से तलवार की मुठिया पकङे हुए हैं। कला की दृष्टि से प्रतिमा उच्चकाटि की है, जिसमें मूर्तिकार को सम्राट की पाषाण मूर्ति बनाने में सफलता प्राप्त हुई है। इस मूर्ति पर यूनानी प्रभाव दिखाई देता है।

इसी शैली में दूसरी मूर्ति वेम तक्षम (विम कडफिसेस) की है, जो सिंहासनासीन है। सिंहासन के आगे दोनों ओर दो सिंहों की आकृतियां हैं। सम्राट नक्काशीदार कामदानी सम्राट ओढे हुए है। इसके नीचे छोटी कोट तथा पैरों में जूते दिखाये गये हैं। शिल्प की दृष्टि से इसे सम्राट का यथार्थ रूपांकन कहा जा सकता है। यह मूर्ति भी यूनानी प्रभाव से प्रभावित है।

मथुरा शैली में बुद्ध-बोधिसत्व मूर्तियों के अलावा हिन्दू एवं जैनियों की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया है। हिन्दू देवताओं में विष्णु, सूर्य, शिव, कुबेर, नाग, यक्ष की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो अत्यंत ही सुंदर एवं कलापूर्ण हैं। मथुरा तथा उसके सीमावर्ती क्षेत्रों से अब तक चालीस से भी अधिक विष्णु मूर्तियां प्राप्त हो चुकी हैं।

ये मूर्तियां चतुर्भुजी हैं। इनके तीन हाथ में शंख, चक्र, गदा दिखाया गया है। चौथा हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। इनकी बनावट बोधिसत्व मैत्रेय की मूर्तियों जैसी है। उल्लेखनीय है, कि विष्णु का लोकप्रिय प्रतीक पद्म मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों में नहीं मिलता।

शिव लिंग भी मथुरा कला शैली में मिले हैं। अर्ध नारीश्वर रूप में ( जिसमें आधार भाग शिव तथा आधा भाग पार्वती का है।) शिव की मूर्ति प्रथम बार इस काल में मथुरा में तैयार की गई थी। शिव की विविध रूपों वाली मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से काफी सुंदर हैं।

मथुरा कला में सूर्य प्रतिमाओं का भी निर्माण किया गया। ईरानी प्रभाव के कारण उन्हें सर्वथा भिन्न प्रकार से तैयार किया गया है। मानव रूप में सूर्य को लंबी कोट, पतलून तथा बूट पहने हुए दो या चार घोङों के रथ पर सवार दिखाया गया है। उनके सिर पर गोल टोपी, कंधों पर लहराते केश तथा मुंह पर नुकीली मूँछें दिखाई गयी हैं। इसी प्रकार की वेशभूषा कुषाण राजाओं की मूर्तियों में देखने को मिलती है। यह ईरानी परंपरा है।

जैन मूर्तियां एवं आयागपट्ट-

मथुरा तथा उसके सीमावर्ती भाग से जैन तीर्थंकरों की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। जो अत्यंत सुंदर एवं कलापूर्ण हैं। जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं – खङी मूर्तियाँ जो कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। और बैठी हुई मूर्तियाँ जो पद्मासन मुद्रा में हैं।

खङी मुद्रा की मूर्तियां पूर्णतया नग्न हैं, उनकी भुजायें घुटनों के नीचे तक फैली हुई हैं। तथा भौंहो के बीच केशपुंज बनाया गया है।

बैठी हुई मूर्तियां ध्यान मुद्रा में हैं तथा उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है। इनके आसन के सामने बीच में धर्मचक्र तथा पार्श्वभाग में सिंह बनाये गये हैं। कुछ प्रतिमाओं के सिर के पीछे गोल अलंकृत प्रभामंडल मिलता है। तीर्थंकर प्रतिमाओं के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का पवित्र मांगलिक चिन्ह अंकित है। इनकी चौकी पर लेख भी उत्कीर्ण है, जिनसे उनकी पहचान की जा सकती है।

तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त कंकाली टीला से आयागपट्ट अथवा पूजापट्ट मिलते हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि मथुरा के कलाकारों का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक था और उन्होंने बौद्ध, जैन तथा हिन्दू सभी के लिये उपयोगी प्रतिमाओं को प्रस्तुत किया। यहाँ की बनी मूर्तियाँ सारनाथ, श्रावस्ती तथा अन्य केन्द्रों में गयी। मथुरा की कलाकृतियाँ वैदिशिक प्रभाव से मुक्त हैं। तथा इस कला में भरहुत और साँची की प्राचीन भारतीय कला को ही आगे बढाया गया है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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