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न्याय दर्शन के बारे में जानकारी

न्याय दर्शन

जिस प्रकार सांख्य दर्शन – योग दर्शन परस्पर संबंधित दर्शन हैं, उसी प्रकार न्याय दर्शन – वैशेषिक दर्शन भी एक दूसरे के साथ संबंधित हैं। दोनों का उद्देश्य प्राणियों को अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्त कराना है। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है-

न्याय दर्शन का प्रवर्त्तन अक्षपाद गौतम ने किया।न्याय का शाब्दिक अर्थ तर्क या निर्णय है, जो इस बात का सूचक है, कि यह दर्शन मुख्यतः बौद्धिक, विश्लेषणात्मक तथा तार्किक है। इसे तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, वादविद्या, वेतुविद्या, आन्वीक्षिकी, आदि नामों से भी जाना जाता है। इसका मूल ग्रंथ गौतमकृत न्यायसूत्र है, जिस पर वात्स्यायन ने न्यायभाष्य नामक टीका लिखी है। उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन, जयन्त आदि इसके कुछ अन्य दार्शनिक हैं।

न्याय दर्शन में 16 पदार्थों या तत्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, तथा बताया गया है, कि इनके सम्यक् ज्ञान के द्वारा ही अपवर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है।ये तत्व हैं –

  1. प्रमाण
  2. प्रमेय
  3. संशय
  4. प्रयोजन
  5. दृष्टान्त
  6. सिद्धांत
  7. अवयव
  8. तर्क
  9. निर्णय
  10. वाद
  11. जल्प
  12. वितण्डा
  13. हेत्वाभास
  14. छल
  15. जाति
  16. निग्रह-स्थान

प्रमाण

यह किसी विषय के यथार्थ अथवा सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने का साधन है। प्रमाण के चार प्रकार बताये गये हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द।वस्तुओं के साक्षात् ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है, जो इन्द्रियों तथा उनके विषयों के सम्पर्क से प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार का ज्ञान यथार्थ होता है। जैसे आँखों से देखकर हम किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का होता है – बाह्य तथा मानस।

बाह्य प्रत्यक्ष में ज्ञात वस्तु का संयोग आँख, कान आदि बाहरी इन्द्रियों से होता है। मानस प्रत्यक्ष में ज्ञात वस्तु का संयोग केवल मन से ही होता है। दूसरी दृष्टि से इसकी निर्विकल्प तथा सविकल्प नामक दो अवस्थायें मानी गयी हैं। प्रथम से तात्पर्य प्रत्यक्ष ज्ञान के अविकसित तथा द्वितीय से तात्पर्य उसके विकसित रूप से है। किसी वस्तु की प्रतीति अथवा अनुभूति मात्र को निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहते हैं, जैसे अंधकार में किसी वस्तु को देखकर हमें केवल उसके रूप-रंग, आकार-प्रकार आदि के विषय में सामान्य आभास मिलता है।

सविकल्प प्रत्यक्ष में हम उस वस्तु के विषय में पहले हुई प्रतीति के आधार पर निर्णय करते हैं। यही प्रत्यक्ष का विकसित रूप है। नैयायिकों के अनुसार प्रत्येक सविकल्प प्रत्यक्ष के पूर्व निर्विकल्प प्रत्यक्ष होता है।

प्रत्यक्ष के बाद अनुमान की अवस्था आती है। अनुमान, किसी पूर्वज्ञान के आधार पर वस्तुओं के अंदाज लगाने को कहा जाता है। यह केवल इन्द्रियों द्वारा ही नहीं होता, वरन् ऐसे साधन से होता है, जिससे साध्य अथवा अनुमानित वस्तु का नियत संबंध रहता है।साधन तथा साध्य के इस नियत संबंध को व्याप्ति कहा गया है। इसमें कम से कम तीन वाक्य तथा अधिक से अधिक तीन पद रहते हैं, जिन्हें पक्ष, साध्य तथा साधन (लिंग) कहा जाता है।

पक्ष से लिंग या साधन का अस्तित्व पता चलता है। जिस वस्तु का अस्तित्व पक्ष में सिद्ध करना होता है, उसे साध्य कहा जाता है तथा जिसका साध्य के साथ नियत संबंध रहता है, उसे साधन कहा जाता है। साधन का अस्तित्व पक्ष में बना रहता है। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं – पर्वत में आग है, क्योंकि उसमें धुआँ है।यहाँ धुआँ है वहाँ आग है।

यहाँ पर्वत में धुएं को देखकर यह निष्कर्ष निकलता है, कि उसमें आग है, क्योंकि हम यह पहले से ही जानते हैं, कि आग तथा धुआँ में व्याप्ति का संबंध रहता है। यहाँ पर्वत पक्ष, अग्नि साध्य तथा धुआँ साधन है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि पक्ष के संबंध में अनुमान किया जाता है। साध्य को पक्ष के संबंध में सिद्ध किया जाता है, तथा साधन के द्वारा पक्ष के संबंध में साध्य सिद्ध किया जाता है। नैयायिकों का मत है, कि अनुमान को बोधगम्य बनाने के लिये पाँच स्पष्ट पदों में उसे व्यक्ति करना चाहिये-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन। इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं-

  1. इस पर्वत में आग है (प्रतिज्ञा)।
  2. क्योंकि इसमें धुआँ है (हेतु)।
  3. जहाँ धुआँ है वहाँ आग है, जैसे चूल्हे में (उदाहरण)।
  4. इस पर्वत में भी धुआँ है (उपनय)।
  5. अतः इस पर्वत में आग है (निगमन)।

उपर्युक्त उदाहरण से प्रकट है, कि प्रतिज्ञा में विषय को पहले प्रतिपादित किया जाता है, हेतु में प्रतिज्ञा का कारण बताया जाता है, उदाहरण में साध्य तथा हेतु का संबंध स्पष्ट किया जाता है। उदाहरणके लिये यदि हमने कभी नीलगाय नहीं देखी है, तथा कोई अन्य व्यक्ति हमसे उसके रूप-रंग, आकार-प्रकार का वर्णन करता है। कालांतर में जब नीलगाय को देखकर हम उस वर्णन के आधार पर उसका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो हमारा यह ज्ञान उपमान द्वारा प्राप्त कहा जायेगा।

चौथा तथा अंतिम प्रमाण शब्द कहा गया है। शब्द का ज्ञान वह है, जिसे हम विश्वासनीय व्यक्तियों अथवा वेदादि प्रामाणिक ग्रंथों के आधार पर प्राप्त करते हैं। प्राचीन ऐतिहासिक पुरुषों अथवा ईश्वर संबंधी हमारा ज्ञान शब्द प्रमाण पर ही आधारित होता है। इस प्रकार न्याय इन चार प्रमाणों का आस्तित्व ही स्वीकार करता है।

प्रमेय

जानने योग्य पदार्थों तथा तत्वों की संज्ञा प्रमेय है, जिनकी संख्या बारह बतायी गयी है-

  1. आत्मा
  2. शरीर
  3. इन्द्रिय
  4. अर्थ
  5. बुद्धि
  6. मन
  7. प्रवृत्ति
  8. दोष
  9. पुनर्जन्म
  10. फल
  11. दुःख
  12. अपवर्ग।

आत्मा तथा उपवर्ग प्रमेयों में प्रधान हैं जिनका विवरण निम्नलिखित है-

न्याय दर्शन अनेकात्मवाद का समर्थक है, जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायें निवास करती हैं। आत्मा उत्पत्ति तथा नाश से रहित, नित्य, सर्वव्यापी सत्ता है। चैतन्य आत्मा का नित्य लक्षण नहीं है, अपितु मन के संबंध से वह चैतन्य प्राप्त करता है। मन एक सूक्ष्म, नित्य एवं अविभाज्य तत्व है, जो अणु के रूप में स्थित है। इसी के द्वारा आत्मा ज्ञान तथा सुख-दुःख की अनुभूति प्राप्त करता है। शरीर का निर्माण परमाणुओं से हुआ है। अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति न्याय भी मोक्ष की समस्या पर विचार करता है, जिसे अपवर्ग कहा गया है।

आत्मा का मन, शरीर के साथ संयुक्त होना ही दुःख का कारण है। जब तक आत्मा शरीरग्रस्त रहता है, दुखों का पूर्ण विनाश संभव नहीं है। अतः मोक्ष तभी संभव है, जबकि आत्मा का शरीर तथा इन्द्रियों के बंधन से छुटकारा हो जाये। मोक्ष की प्राप्ति के लिये तत्वज्ञान अर्थात् सत्य के सम्यक ज्ञान की आवश्यकता है। इसे प्राप्त करने के उपाय श्रमण, मनन तथा निदिध्यायन बताये गये हैं। सर्वप्रथम मोक्ष चाहने वाले को किसी योग्य गुरु से धर्म ग्रंथों में वर्णित आत्मा संबंधी ज्ञान को सुनना चाहिये। इसके बाद उस ज्ञान को सुदृढ करना चाहिये।

ऐसा करने पर तत्वज्ञान का उदय हो जाता है तथा वह आत्मा को शरीर से भिन्न मानने लगता है। मनुष्य ऐसा समझ लेने पर सांसारिक वासनाओं तथा प्रवृत्तियों से बाधित नहीं होता तथा निष्काम भाव से अपना कार्य करता है। जब उसके पूर्व जन्म के संचित कर्मों का नाश हो जाता है, तो उसे मुक्ति मिलती है, तथा वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। इसी को न्याय में अपवर्ग कहा गया है। इस अवस्था में व्यक्ति के समस्त दुःखों का नाश हो जाता है। किन्तु नैयायिक इसे आनंदमय नहीं मानते क्योंकि मोक्षप्राप्त आत्मा में किसी भी प्रकार की अनुभूति नहीं रहती है तथा वह सुख-दुःख से परे होकर अचेतन हो जाता है।यही जीवन का परम ध्येय है।

ईश्वर

न्याय दर्शन ने केवल ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है, अपितु विविध युक्तियों द्वारा उसे सिद्ध भी करता है। उसके अनुसार ईश्वर ही जगत का कर्त्ता, धर्त्ता एवं संहर्ता है। उसी की अनुकम्पा से जीवात्मा तत्वज्ञान प्राप्त कर अपवर्ग की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये नैयायिक निम्नलिखित युक्तियाँ प्रस्तुत करते हैं –

वेद ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन करते हैं।

सभी सांसारिक वस्तुओं की अल्पतम तथा अधिकतम सीमा होती है। अतः ज्ञान और शक्ति की भी एक सीमा होनी चाहिये। इनकी सर्वोच्च सीमा अर्थात् सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ ईश्वर ही है।

प्रकृति तथा पुरुष के बीच संयोग एवं विच्छेद स्थापित करने वाला ईश्वर ही होता है। ईश्वर के सहयोग के बिना जङ, प्रकृति तथा चेतन पुरुष में संयोग तथा वियोग कदापि संभव नहीं है।

किन्तु योग दर्शन में ईश्वर को कर्त्ता, धर्त्ता एवं संहर्त्ता नहीं किया गया है। वह केवल पुरुष विशेष है। वह मुक्ति प्रदान नहीं कर सकता अपितु उसका कार्य केवल साधक के मार्ग से सभी विघ्न बाधाओं को दूर करना है। पुरुष के बंधन अथवा मोक्ष से उसका कोई सीधा संबंध नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करना नहीं, अपितु पुरुष का प्रकृति से संबंध-विच्छेद करना है। योग का ईश्वर विषयक विचार संतोषप्रद नहीं है। पतंजलि का योग दर्शन आध्यात्मिक अनुशासन की एक महान पद्धति है, जिसे चार्वाक के अलावा सभी भारतीय दर्शनों में स्थान दिया गया है। यह हमें आत्मशुद्धि तथा आत्म-नियंत्रण का व्यावहारिक मार्ग बताता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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