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पल्लवकालीन संस्कृति का इतिहास

पल्लवकाल में संस्कृति जैसे – शासन प्रबंध, धार्मिक दशा, साहित्य की उन्नति, कला तथा स्थापत्य(महेन्द्र शैली,मामल्ल शैली, रथ मंदिर, महाबलीपुरम, राजसिंह शैली,नंदिवर्मन शैली) आदि का विकास हुआ। इन सभी स्थितियों का यहाँ पर हम गहनता से अध्ययन करेंगे-

शासन व्यवस्था

काञ्ची के पल्लव नरेश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। अतः उन्होंने धर्ममहाराजाधिराज अथवा धर्ममहामात्र की उपाधि धारण की। उनकी शासन पद्धति के अनेक तत्व मौर्यों तथा गुप्तों की शासन पद्धतियों से लिये गये थे। शासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। उसकी उत्पत्ति दैवी मानी जाती थी। पल्लव नरेश अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा से मानते थे। पल्लव नरेश कुशल योद्धा, विद्वान एवं कला प्रेमी थे। युवराज का पद अत्यंत महत्वपूर्ण होता था और वह अपने अधिकार से भूमि दान में दे सकता था…अधिक जानकारी

धार्मिक स्थिति

हिन्दू धर्म में मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के तीन साधन बताये गये हैं – कर्म, ज्ञान, भक्तिवेद कर्मकांडी हैं, उपनिषदों में ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन है तथा गीता में इन तीनों के समन्वय की जानकारी मिलती है। कालांतर में इन तीनों साधनों के आधार पर विभिन्न सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ। अनेक विचारकों तथा सुधारकों ने भक्ति को साधन बनाकर सामाजिक-धार्मिक जीवन में सुधार लाने के लिये एक आंदोलन का सूत्रपात किया। भारतीय जन-जीवन में इस आंदोलन ने एक नवीन शक्ति तथा गतिशीलता का संचार किया…अधिक जानकारी

साहित्य

पल्लव राजाओं का शासन संस्कृत तथा तमिल दोनों ही भाषाओं के साहित्य की उन्नति का काल रहा। कुछ पल्लव नरेश उच्चकोटि के विद्वान थे तथा उनकी राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान एवं लेखक निवास करते थे।

महेन्द्रवर्मन प्रथम ने मत्तविलासप्रहसन नामक हास्य-ग्रंथ की रचना की थी। इसमें कापालिक एवं बौद्ध भिक्षुओं की हँसी उङाई गयी है…अधिक जानकारी

कला तथा स्थापत्य कला

पल्लव नरेशों का शासन काल कला एवं स्थापत्य कला की उन्नति के लिये प्रसिद्ध है। वस्तुतः उनकी वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली विषय है। पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण की द्रविङ कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ –

  1. मंडप
  2. रथ
  3. विशाल मंदिर।

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