प्राचीन भारत का प्रमुख स्थल श्रृंगवेरपुर
इलाहाबाद से 22 मील दूर उत्तर-पश्चिमी की ओर स्थित सिगगौर नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से प्रसिद्ध था। रामायण से पता चलता है कि अयोध्या से वन जाते समय राम, सीता और लक्ष्मण के साथ इसी स्थान पर एक रात के लिए ठहरे थे यहाँ से निषादराज ने सेवा की थी। यह नगर गंगा नदी के तट पर स्थित था। भवभूति ने उत्तररामचरित में भी इसी स्थान का चित्रण किया है। महाभारत में इसे तीर्थस्थल कहा गया है। अनुश्रुति के अनुसार यहाँ श्रृंगी ऋषि का आश्रम था अतः इस स्थल का नाम श्रृंगवेरपुर हुआ।
डाॅ. बी. बी. लाल के निर्देशन में श्रृंगवेरपुर में पिछले कुछ वर्षों से उत्खनन का कार्य चल रहा है। यहाँ से प्राप्त अवशेषों से नगर के प्राचीन वैभव पर प्रकाश पड़ता है। श्रृंगवेरपुर से धरातल से लगभग 10 मीटर की ऊचाई वाला एक विशाल टीला है जो गंगा के किनारे-2 फैला हुआ है। इसका काफी बड़ा भाग नदी के कटाव से क्षतिग्रस्त हो गया। इस पुरास्थल को पुरातात्विक मानचित्र पर स्थापित करने कार्य शिमला उच्च अध्ययन संस्थान एवं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संयुक्त तत्वावधान में के. एन. दीक्षित एवं बी. बी. लाल ने किया। यहाँ 1977-1978 के बीच टीले का उत्खनन करवाकर महत्वपूर्ण संस्कृतियों का उद्घाटन किया गया।
पहली संस्कृति
पहली संस्कृति गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति है, जिसका समय 11वीं शता. ईसा पूर्व (1050-1000 ई. पू.) निर्धारित किया गया है। इसमें गेरूए रंग के मिट्टी के बर्तनों के टुकडे़ मिलते है जिससे सूचित होता है कि इस काल के लोग बांस-बल्ली की सहायता से अपने आवास के लिए झोपड़ियों का निर्माण करते थे। मिट्टी का एक चक्रीय खण्ड तथा कार्नलियन फलक का एक टुकड़ा भी यहाँ से मिला है।
द्वितीय संस्कृति
द्वितीय संस्कृति के प्रमुख पात्र काले-लाल, काले पुते, चमकीले धूसर आदि है। इसका काल ई. पू. 950 से 700 तक निर्धारित किया गया है। इस संस्कृति स्तर से अस्थि- निर्मित बाण, फलक, बेधक, लटकन आदि तथा मिट्टी के बने मनके भी मिलते है।
तीसरी संस्कृति
यहाँ की तीसरी संस्कृति एन. वी. पी. पात्र परम्परा(उत्तरी काले मर्जित मृद्भाण्ड) से संबन्धित है। इन मृद्भाण्डों के साथ-2 इस स्तर से ताम्रनिर्मित तीन बड़े कलश, एक कलछुली, मिट्टी की नारी मूर्तियाँ, माणिक्य, मिट्टी एवं सोने से बने मनके, पशुओं की मूर्तियाँ तथा ताँबे एवं लोहे के उपकरण भी मिलते है। आहत एवं लेख रहित ढली हुई मुद्रायें भी प्राप्त हुई है।
चौथी संस्कृति
श्रृंगवेरपुर का चौथी संस्कृति स्तर दो उपकालों में बाटा गया है। यहाँ से शुंगकाल से मिट्टी की बनी मूर्तियाँ, अयोध्या के राजाओं के सिक्कें तथा लाल मृद्भाण्ड पाये गये है। इस स्तर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि टीले के उत्तर-पूर्व की ओर एक आयताकार तालाब की प्राप्ति है। यह पक्की ईंटों से बना है इसकी लम्बाई उत्तर-दक्षिण की ओर 200 मीटर के लगभग है। उत्तर की ओर से जल प्रवेश एवं दक्षिण की ओर से उसके निकास के लिए नाली बनाई गई है। इसमें पेयजल की सफाई का विशेष प्रबन्ध किया गया है। भारत के किसी भी पुरास्थल से उत्खनित यह सबसे बड़ा तालाब था। पक्की ईंटों के मिलने से यह बात स्पष्ट होती है कि इस समय भवनों का निर्माण इन्हीं के द्वारा होने लगा था। इस संस्कृति का काल ई. पू. 250 से 200 ई. तक माना गया है। इस काल में उत्तर भारत में नगरीकरण अपने उत्कर्ष पर था।
पांचवीं संस्कृति
पांचवें सांस्कृतिक काल की अवधि 300 ई. से 600 ई. तक मानी जाती है। इस काल से गुप्तकालीन मिट्टी की मूर्तियाँ तथा गहरे लाल रंग के मृद्भाण्ड मिलते है। भवनों के निर्माण में प्रयुक्त ईंट पहले जैसी न होकर टूटी-फूटी अवस्था में है जिससे सूचित होता है कि नगर की समृद्धि का क्रमशः ह्रास हो रहा था।
छठी संस्कृति
छठें सांस्कृतिक स्तर से कन्नौज के गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र की तेरह रजत मुद्राएँ तथा मिट्टी के एक बर्तन में रखे हुए कुछ आभूषण मिलते हैं। इस स्तर की अवधि छठीं से तेरहवीं शती तक बताई गयी है। इसके बाद श्रृंगवेरपुर की संस्कृति में चार शदियों का व्यवधान दिखाई देता है। 13वीं शती में यहाँ पुनः बस्ती के प्रमाण मिलते है। इस प्रकार श्रृंगवेरपुर मध्य गंगाघाटी का एक प्रमुख पुरातात्विक स्थल है। इसके उत्खनन से विभिन्न सांस्कृतिक पक्षों का उद्घाटन होता है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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