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विशिष्टाद्वैतवाद का प्रवर्त्तक कौन था

विशिष्टाद्वैत

रामानुज ने जिस मत की स्थापना की वह विशिष्टाद्वैतवाद था।

रामानुज का जीवन परिचय

रामानुज के दार्शनिक सिद्धांतों का विवरण निम्नलिखित है-

ज्ञान

रामानुज ज्ञान को द्रव्य मानते हैं।उनके अनुसार इसकी प्राप्ति के तीन सधान हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द। अन्य कारणों को उन्होंने इन्ही तीनों के अंतर्गत समाविष्ट कर लिया है।

जैसा कि न्याय दर्शन के सम्बन्ध में विचार करते समय बताया जा चुका है, इन्द्रियों के साथ विषयों के संपर्क से जो अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त होता है, वही प्रत्यक्ष है। रामानुज भी निर्विकल्प तथा सविकल्प प्रत्यक्ष को मानते हैं, किन्तु न्याय के विपरीत वे इन दोनों में समष्टिगत संबंध मानते हैं। उनके अनुसार सभी ज्ञान सविशेष तथा सविषयक होते हैं।

द्रव्य-गुण, जाति-व्यक्ति, सामान्य – विशेष कभी अलग-अलग नहीं हो सकते। रामानुज का अनुमान संबंधी विचार प्रायः न्याय जैसा ही है। जहाँ तक शब्द प्रमुाण का प्रश्न है, रामानुज वेद के साथ-साथ स्मृतियों तथा पुराणों को भी प्रमाण बताते हैं। उनके अनुसार वेद के दोनों भाग – कर्मकाण्ड तता ज्ञानकाण्ड एक दूसरे के पूरक हैं। वे शंकर के इस मत से असहमति प्रकट करते हैं, कि कर्म, ज्ञान की अपेक्षा निम्न है।

उनके अनुसार कर्म तथा ज्ञान दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं तथा यह कर्म, ज्ञान की अपेक्षा निम्न है। उनके अनुसार कर्म तथा ज्ञान दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं तथा यह कर्म ही है, जो ईश्वर की उपासना की विधि बताता है। ज्ञान ईश्वर के स्वरूप को व्यक्त करता है। रामानुज मीमांसकों के समान वेद को नित्य तथा अपौरुषेय मानते ैहं। किन्तु वे यह नहीं मानते कि कर्मों से केवल ईश्वर की कृपा ही प्राप्त होती है।

विशिष्टाद्वैतवाद के ज्ञान विषयक विचारों में सबसे महत्त्वपूर्ण यह है, कि सभी विज्ञान यथार्थ हैं। तदनुसार रामानुज का मत है, कि सभी प्रकार के ज्ञान द्वारा प्रकाशित होती है। इस कारण हम ज्ञान को असत्य या भ्रम नहीं मान सकते हैं। ज्ञान कभी बाधित नहीं होता। दो विभिन्न समयों में उत्पन्न होने वाले ज्ञान वस्तुतः बाधित नहीं होते हैं, तो यहाँ भी कोई भ्रम नहीं है, क्योंकि उसका अधिष्ठान सत्य होता है।

जब रस्सी सर्प की प्रतीति होती है, तो यहाँ भी कोई भ्रम नहीं है, क्योंकि रस्सी तथा सर्प दोनों की ही सत्ता अनुभव सिद्ध है। रस्सी, सर्प इस कारण प्रतीत होता है, कि उसमें सर्प के लक्षण मौजूद रहते हैं। स्वप्न में हमें जो अनुभूति होती है, वह भी थोङे समय के लिये सच होती है। उसकी रचना ईश्वर अल्पकाल के लिये ही करता है। अतः हम यह कभी नहीं कह सकते कि स्वप्न ज्ञान भ्रम मात्र है।

रामानुज का मत है, कि प्रत्येक ज्ञान जिस क्षण में उत्पन्न होता है, उस क्षण वह बना रहता है। उसका एक निश्चित आधार होता है और इस कारण हम उसे काल्पनिक नहीं कह सकते है। इस प्रकार वे शंकर के इस मत से सहमत नहीं हैं, कि लौकिक ज्ञान भ्रम या मायाजन्य हुआ करता है, जिसकी अधिष्ठान से भिन्न कोई सत्ता नहीं होती है। ज्ञान संबंधी रामानुज का मत सत्ख्याति या यथार्थख्याति कहा जाता है।

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ब्रह्म विचार

रामानुज सगुण ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं। वे ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं, जो एकमात्र पार्मार्थिक सत्ता है। किन्तु शंकर के विपरीत वे यह स्वीकार करते हैं, कि ईश्वर चित्त अर्थात् चैतन्य जीव तथा अचित् अर्थात् जङ प्रकृति से युक्त है। ईश्वर के साथ ही साथ ये दोनों भी सत्य एवं नित्य हैं। इस प्रकार वे तीन प्रकार की सत्ताओं को सत्य मानते हैं – प्रकृति, आत्मा, ईश्वर। इस प्रकार ब्रह्म एक समष्टि का नाम है। यह एक जैविक इकाई है,जिसके तीन परस्पर भिन्न अंश हैं। रामानुज तीन प्रकार के भेद स्वीकार करते हैं –

  1. विजातीय
  2. सजातीय
  3. स्वगत

इन सभी में ब्रह्म, अंतिम अर्थात् स्वगत भेद से युक्त है। अपितु ब्रह्म के अद्वैत होने का अर्थ यह है, कि उसके समान तथा उसकी बराबरी करने वाली कोई दूसरी सत्ता नहीं है। ब्रह्म में जो जङ तथा चेतन सत्तायें हैं, वे पूर्णतया उसी पर आश्रित हैं तथा वही उनको संचालित एवं नियंत्रित करता है। ब्रह्म में जो डङ तथा चेतन सत्तायें हैं, वे पूर्णतया उसी पर आश्रित हैं तथा वही उनको संचालित एवं नियंत्रित करता है।

ब्रह्म से पृथक उनकी कोई भी सत्ता नहीं है। सृष्टि के पूर्व जीव तथा प्रकृति ईश्वर में सूक्ष्म रूप से निवास करते हैं तथा उसी के संकल्प से परस्पर मिलकर सृष्टि की रचना करते हैं। इस प्रकार ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता है। प्रलयावस्था में जब ईश्वर चित् तथा अचित् से युक्त रहता है, तो वह कारण ब्रह्म कहा जाता है। संसार रूप में जब वह परिणत हो जाता है, तो वह कार्य ब्रह्म कहलाता है।

ये दोनों ब्रह्म के सूक्ष्म तथा स्थूल रूप हैं। सूक्ष्मावस्था में जीव तथा प्रकृति नामरूप से रहित होते हैं। इनकी सत्ता शुद्ध एवं अविकृत होती है। किन्तु स्थूलावस्था में ये दोनों नामरूप ग्रहण कर लेते हैं। यही सृष्टि है।इसमें अव्यक्त प्रकृति व्यक्त हो जाती है तथा जीवात्माओं को उनके कर्मों के अनुसार फल प्रदान करने के लिये उससे संयोगी करती है। फलस्वरूप ब्रह्म का चित् अंश, जो जीव है, वह शरीर धारण कर लेता है तथा कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता बन जाता है। ईश्वर नियन्ता के रूप में उनमें प्रवेश कर जाता है।

इस प्रकार सृष्टि में तीनों तत्वों – ब्रह्म, जीव तथा प्रकृति का संयोग रहता है। ब्रह्म अन्तर्यामी है तथा सृष्टि का कारण भी है। रामानुज के अनुसार जीव तथा ब्रह्म का संबंध शरीर तथा आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा अंदर से शरीर का नियंत्रण करता है, उसी प्रकार ब्रह्म जीव का नियंत्रण करता है। जिस प्रकार शरीर के विकार एवं गुण-दोष आत्मा को प्रभावित नहीं करते, उसी प्रकार जीवों के गुण-दोष अथवा विकारों का प्रभाव ब्रह्म पर नहीं पङता है। ब्रह्म अपरिणामी अर्थात् विकाररहित है।

रामानुज ब्रह्म या ईश्वर को निर्गुण नहीं मानते। उनके अनुसार यह एक सगुण तत्व है। जहाँ उपनिष।दों में उसे निर्गुण बताया गया है, वहाँ केवल यह अर्थ है, कि उसमें जीवों के तुच्छ गुण नहीं होते हैं। वह अनंत गुणों से युक्त है। वही सृष्टि की रचना करता है, उसे बनाये रखता है तथा अंत में उसे अपने में लीन कर लेता है। उपनिषदों में निष्प्रपंच ब्रह्म का जो वर्णन हुआ है, उसके विषय में रामानुज की मान्यता है कि वह कार्यब्रह्म का वर्णन न होकर कारण ब्रह्म का वर्णन है, जहाँ वह अव्यक्त रहता है। इस प्रकार रामानुज यह बताना चाहते हैं, कि ब्रह्म वस्तुतः एक अविकृत अथवा निर्विकार सत्ता है, जो अपने अंशों में विकार होने के बावजूद भी स्वयं विकृत नहीं होता है।

सृष्टि उसके लिये कौतुक मात्र है, जिससे वह स्वयं लिप्त नहीं होता है। इससे ब्रह्म के स्वाभाविक स्वरूप में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है। सृष्टि की विविधता को सत्य मानते हुये भी रामानुज ब्रह्म के अद्वैतवाद पर बल देते हैं। उनका मत है, कि ब्रह्म के अंगभूत जो चित् तथा अचित् तत्व हैं, परिणाम या विकार केवल उन्हीं में उत्पन्न होता है। ईश्वर इस परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि उसके गुण जीव तथा प्रकृति से भिन्न होते हैं। ब्रह्म ज्ञान, आनंद आदि श्रेष्ठ गुणों से युक्त है। इसी कारण उसे भगवान कहा जाता है।

रामानुज विष्णु पुराण में वर्णित ईश्वर के छः गुणों – ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, तथा वैराग्य को उसका स्वाभाविक गुण निरूपित करते हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान है तथा जीवों के पाप-पुण्य से सर्वथा अप्रभावित रहता है। उपनिषदों में ब्रह्म के गुण अपहतपाप्मत्व (पापों से रहित) तथा सत्यसंकल्पत्व (सत्य संकल्पों से युक्त) बताये गये हैं।रामानुज इन्हें ईश्वर के पक्ष में विवेचित करते हैं। श्री, बल, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य आदि उसके स्वरूप ध्रम हैं, आगंतुक नहीं। वह अपार करुणा, आगाध वात्सल्य तथा अति सुन्दरता से युक्त है। जब मनुष्य भगवान में अपना चित्त लगाता है, तो अन्य सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षित नहीं होता तथा पूर्णतया उसी में लीन हो जाता है।

मोक्ष के लिये उसकी कृपा का होना आवश्यक है। इस प्रकार रामानुज का ब्रह्म सगुण ईश्वर है, जो उपासना का विषय तथा धार्मिक साधना का आधार है। रामानुज ईश्वर को नारायण या विष्णु कहते हैं। वे अपने दिव्य लोक में निवास करते हैं, जहाँ मुक्त पुरुष उनकी सेवा करते हैं। लक्ष्मी उनकी प्रियतमा है। भक्त लोग विष्णु की कृपा प्राप्त करने के लिये लक्ष्मी की ही पहले स्तुति करते हैं। वे करुणा तथा कृपा की साक्षात मूर्ति हैं।

आत्मा

रामानुज ईश्वर के अलावा जीवात्मा की सत्ता को भी स्वीकार करते हैं। यह चित्त (चेतन) तत्व हैं। शंकर की भाँति रामानुज भी आत्मा को नित्य, चैतन्य एवं ज्ञान स्वरूप मानते हैं। किन्तु उनके समान वे यह नहीं मानते कि आत्मा परमब्रह्म से अभिन्न है। उनके अनुसार सीमित जीव तथा अनंत ईश्वर दोनों कभी भी एक नहीं हो सकते हैं।

उपनिषद जो ब्रह्म तथा जीव की एकता पर बल देते हैं, उसके विषय में रामानुज का मत है, कि ब्रह्म सभी जीवों में व्याप्त है तथा वही उनको नियंत्रित करता है। जीव अपने अस्तित्व के लिये ईश्वर पर उसी प्रकार निर्भर करता है, जिस प्रकार कि गुण द्रव्य पर, अंश अंशी पर तथा शरीर आत्मा पर। इसका ज्ञान मैं के रूप में सदा होता है। सभी चेतन अवस्थाओं में जो उसके आश्रय रूप से वर्तमान रहता है, उसे ही हम मैं कहते हैं। मैं जाता हूँ, मैं सोता हूँ, मैं खाता हूँ आदि वाक्यों से यह सिद्ध है, कि मैं शब्द का प्रयोग ही आत्मा के लिये किया गया है।

अतः रामानुज का मत है, कि जीवात्मा एक विशिष्ट व्यक्तित्व संपन्न तत्व है तथा मैं शब्द ही उस तत्व का सूचक है। उसके व्यक्तित्व का कभी नाश नहीं होता है। सृष्टि की स्थिति में वह अपनी इच्छा का प्रयोग स्वतंत्र रूप से करता है। अपने लक्ष्य के चुनाव के लिये वह ईश्वर पर निर्भर नहीं रहता। केवल वह अपने कार्यों की सफलता तथा असफलता के संबंध में ही उसकी कृपा पर आश्रित रहता है।

प्रलयावस्था में भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है तथा उसका ब्रह्म में विलोप नहीं हो सकता,क्योंकि ये दोनों भिन्न-भिन्न सत्तायें हैं। मुक्तावस्था में आत्मा मात्र ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त करता है, तथा उसी के समान आनंदमय हो जाता है, लेकिन वह ब्रह्म नहीं हो पाता। ब्रह्म में सृजन शक्ति होती है, जिससे वह सृष्टि करता है। वह आत्मा को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती। इस प्रकार हम देखते हैं, कि रामानुज शंकर के इस मत को स्वीकार नहीं करते कि आत्मा तथा ब्रह्म दोनों एक ही हैं।

सांख्य मत के ही समान रामानुज भी अनेकात्मवादी हैं तथा अनेक आत्माओं की सत्ता में विश्वास करते हैं। मुक्तावस्था में भी आत्माओं में भेद बना रहता है। यद्यपि सभी मुक्त आत्मायें समान होती हैं, तथापि उनमें संख्यागत भेद विद्यमान रहता है। आत्मा तथा ब्रह्म में कुछ विशिष्ट अंतर है।

आत्मा अणु है,तथा ब्रह्म विभु (सर्वव्यापी) है। आत्मा के विपरीत ब्रह्म पूर्ण तथा अनंत है। आत्मा ब्रह्म का अंश तथा उसी पर निर्भर है। जिस प्रकार अंश कभी पूर्ण नहीं हो सकता, गुण कभी द्रव्य नहीं हो सकता, ठीक उसी प्रकार से आत्मा कभी भी ब्रह्म नहीं हो सकता।
उपनिषद क्या हैं?

इस प्रकार यह स्पष्ट है, कि दो भिन्न पदार्थों में एकता स्थापित नहीं की जा सकती। उपनिषदों में ब्रह्म तथा आत्मा संबंधी अभेदसूचक वाक्य तत्वमसि मिलता है। रामानुज इसकी व्याख्या दूसरे ढंग से करते हैं। उनका कहना है, कि इस वाक्य का अर्थ यह कदापि नहीं है, कि व्यक्ति के अंतर में स्थित आत्मा ही ब्रह्म है।

बल्कि इसका अर्थ यह है, कि तत् अर्थात् वह सर्वज्ञ परमात्मा और त्वम् अर्थात् वह परमात्मा जो अचेतन शरीर से युक्त जीव के रूप में स्थित है, दोनों एक हैं। यहाँ एक ही ब्रह्म के दो विभिन्न रूपों में एकता स्थापित की गयी है, न कि ब्रह्म तथा आत्मा में। रामानुज का कहना है, कि ये दोनों ही सत्य हैं। ईश्वर के अचित् अंश से शरीर की उत्पत्ति होती है तथा आत्मा की उत्पत्ति नहीं होती। यह एक नित्य सत्ता है, जो ईश्वर का चिदंश है।

शरीर तथा आत्मा दोनों ही ब्रह्म के अंश हैं, अतः वे सीमित तत्व हैं। उपनिषद, जो आत्मा को सर्वव्यापी कहते हैं, उसके विषय में रामानुज का मत है, कि यह वस्तुतः इसलिये है, कि वह अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण प्रत्येक भौतिक तत्व में शीघ्रता से प्रविष्ट कर जाता है। किन्तु ज्ञान को वे आत्मा का गुण नहीं मानते। उनके अनुसार यह आत्मा का धर्म है।

रामानुज ने जीवात्मा के तीन प्रकार बताये हैं – बद्ध आत्मा, मुक्तात्मा, नित्यात्मा।

बद्ध आत्मा से तात्पर्य शरीरबद्ध जीव से है, जो भौतिक जगत में निवास करता है। ईश्वर की कृपा से जो उसका सान्निध्य प्राप्त कर लेता है, वह मुक्तात्मा है। नित्यात्मा से तात्पर्य उनसे है, जो ईश्वर के साथ बैकुण्ठ धाम में बराबर बने रहते हैं तथा उनकी सेवा में लीन रहते हैं। ऐसी आत्मायें पुनर्जन्म नहीं ग्रहण करती हैं।

प्रकृति

रामानुज के दर्शन में तीसरा तत्व प्रकृति है, जो जङ अथवा अचेतन है। इसका स्वरूप चेतन आत्मा के विपरीत है। यह ज्ञानरहित तथा विकारी द्रव्य है। चेतन के संयोग तथा ईश्वर के संकल्प से उसमें विकार उत्पन्न होता है, और वह अपने को जगत के रूप में विकसित कर देती है। रामानुज अचेतन प्रकृति को भी जीवात्मा के समान सनातन एवं अनंत मानते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद में इसी प्रकृति को निखिल सृष्टि का बीच माना गया है।

सांख्य के समान रामानुज भी उसे अजा (अजन्मा) एवं शाश्वत मानते ैहं। किन्तु उनके अनुसार यह ईश्वर के द्वारा ही संचालित उसी का अंश है। प्रलय की अवस्था में यह चित आत्मा के साथ सूक्ष्मावस्था में ईश्वर में विद्यमान रहती है। प्रकृति रूपी बीज से ही ईश्वर जीवात्माओं के पूर्व संचित कर्मों (अदृष्ट) के अनुसार संसार की रचना करता है। प्रकृति रूपी बीज से ही ईश्वर जीवात्माओं के पूर्व संचित कर्मों (अदृष्ट) के अनुसार संसार की रचना करता है।

प्रकृति के तीन गुण हैं, – सत्व, रज तथा तम। इसी कारण सभी सांसारिक वस्तुओं में इन तीनों गुणों का मिश्रण देखने को मिलता है। इस प्रकार सांख्य के समान रामानुज भी प्रकृति को ही सृष्टि का मूल कारण स्वीकार करते हैं। किन्तु सांख्य की तरह वे प्रकृति तथा पुरुष को पृथक-पृथक तत्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ईश्वर से भिन्न प्रकृति की कोई सत्ता नहीं होती। अपितु यह तो ईश्वर पर ही आधारित उसकी एक शक्ति विशेष है।

प्रलयावस्था में जब प्रकृति की कोई सत्ता नहीं होती। अपितु यह तो ईश्वर पर ही आधारित उसकी एक शक्ति विशेष है। प्रलयावस्था में जब प्रकृति सूक्ष्म रूप से ईश्वर में विद्यमान रहती है तब उसे अव्यक्त कहा जाता है। ईश्वर की इच्छा होते ही यह तीन तत्वों में विभाजित हो जाती है – तेज, जल तथा पृथ्वी। इनमें क्रमशः सत्व, रज तथा तम ये तीनों गुण पाये जाते हैं।

रामानुज मायावाद को मानते हैं, किन्तु उनका मत शंकर के मायावाद से भिन्न है। शंकर के मायावाद की तो वे कटु आलोचना करते हैं। उनके अनुसार इनका कोई आधार नहीं है। माया से रामानुज का तात्पर्य ईश्वर की सृजन शक्ति से है।श्वेताश्वतर में ईश्वर को मायावी (मायिन्)कहा गया है। इसका अरथ यह है, कि ईश्वर जिस शक्ति से सृष्टि का सृजन करता है, वह मायावी की शक्ति के समान विचित्र होती है। इस प्रकार उनके माया का अर्थ अद्भुत विषयों का सृजन करने वाली शक्ति है।

जगत या सृष्टि

रामानुज के अनुसार ईश्वर की शक्ति से विरचित जगत एक वास्तविक सत्ता है। यहाँ वे शंकर की भांति जगत को आभास मात्र नहीं स्वीकार करते। उनके अनुसार ईश्वर ही जगत का उपादान तथा निमित्त दोनों ही कारण हैं। यह जगत ईश्वर की ही कृति है। ईश्वर तथा जगत का संबंध वस्तुतः कार्य कारण का संबंध है। दोनों में अविच्छिन्न संबंध है।रामानुज सत्कार्यवाद के समर्थक हैं, जिनके अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है।

कार्य अपने कारण से पृथक नहीं हो सकता। यदि कार्य और कारण परस्पर संबंधित न हों तो कोई भी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता है। यदि कारण सत्य है, तो फिर उससे उत्पन्न नहीं हो सकता है। यदि कारण सत्य है, तो फिर उससे उत्पन्न कार्य भी सत्य होगा।

रामानुज शंकर के विवर्त्तवाद को नहीं मानते, अपितु परिणामवाद का समर्थन करते हैं। इसके अनुसार यह कारम ही है,जो अपने को कार्यरूप में बदल देता है। कार्य तथा कारण वस्तुतः एक ही पदार्थ की दो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के सूचक हैं – कारणभूतद्रव्यस्थावस्थान्तरापत्तिरेव कि कार्यता।अतः जब जगत या सृष्टि का कारण ईश्वर सत्य है, तो उसका कार्य जगत कैसे असत्य हो सकता है? अतः रामानुज का स्पष्ट मत है, कि हम ईश्वर की रचना सृष्टि को मिथ्या नहीं मान सकते हैं।

इसकी सत्ता पारमार्थिक ही है, क्योंकि यह सगुण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है – परं ब्रह्म सविशेषं पद विभूतिभूतं जगदपि पारमार्थिकमेवेति ज्ञायते। उपनिषदों में जगत के मिथ्या तथा नानात्व के निषेध संबंधी जो विवरण मिलता है, उसके विषय में रामानुज का विचार है, कि यहां विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं किया गया है, अपितु उनकी स्वतंत्र स्थिति को अस्वीकार किया गया है।

इसका अर्थ मात्र यही है, कि ब्रह्म अथवा ईश्वर से पृथक किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं है तथा उसी के ऊपर आश्रित हैं। जिस प्रकार स्वर्ण से बने हुये आभूषण स्वर्ण पर तथा मिट्टी से बने हुये बर्तन मिट्टी पर आश्रित होते हैं, उसी प्रकार इस भौतिक जगत की सभी वस्तुएं ब्रह्म पर आश्रित हैं। ब्रह्म सर्वव्यापी है तथा घट-घट में उसी की सत्ता व्याप्त है। इस प्रकार रामानुज का स्पष्ट मत है, कि जगत उतना ही सत्य है जितना कि उसका कारण ब्रह्म या ईश्वर।

मायावाद की आलोचना

रामानुज शंकर के मायावाद को स्वीकार नहीं करते। वे जगत को मिथ्या या अध्यासमात्र न मानकर यथार्थ समझते हैं। उनके अनुसार माया का अरथ ईश्वर की अद्भुत रचना-शक्ति तथा अविद्या का अर्थ जीव का अज्ञान है, जिससे वह भ्रमवश अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि समझ बैठता है। वे शंकर के माया के सिद्धांत के विरुद्ध सात महत्त्वपूर्ण आरोप (अनुपपत्ति) लगाते हुये उसकी आलोचना करते हैं।

ये इस प्रकार हैं-

आश्रयानुपपत्ति

शंकर के मायावाद को मिथ्यावाद की संज्ञा प्रदान करते हुये रामानुज का उस पर प्रथम आरोप यह है कि इसका कोई आधार अथवा आश्रय ही नहीं है। प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई अनुष्ठान या आश्रय हुआ करता है, जिसके ऊपर वह निर्भर करती है। अतः हम पूछ सकते हैं, कि माया का आश्रय क्या है?निर्गुण तथा अद्वैत ब्रह्म इसका आश्रय नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसी दशा में तो उसकी अद्वैतता ही विनष्ट हो जावेगी।

माया का स्वरूप ब्रह्म का विरोधी है। ब्रह्म स्वयं प्रकाश है। जो स्वयं प्रकाश है उसे हम किसी भी प्रकार से आवृत नहीं कर सकते हैं। माया अथवा अविद्या का अर्थ अज्ञान बताया गया है, जबकि ब्रह्म अनन्त ज्ञान से युक्त विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है। ऐसी दशा में ज्ञान, अज्ञान का आश्रय किस प्रकार से बन सकता है। ब्रह्म अनश्वर तथा अविनाशी है। इसके विपरीत माया नश्वर तथा भ्रम मात्र है।

अतः ब्रह्म माया का आश्रय नहीं माना जा सकता। जीव को भी माया का आश्रय समझना उचित नहीं है, क्योंकि जीव माया के द्वारा ही उत्पन्न हुआ है। कारण, कार्य पर निर्भर नहीं रह सकता। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है, कि न तो ब्रह्म और न जीव ही माया का आश्रय बन सकते हैं। रामानुज व्यंग करते हैं, कि माया का आश्रय केवल अद्वैतवादियों का मस्तिष्क ही हो सकता है। माया का सिद्धांत उन्हीं की कल्पना ही उङान है।

तिरोधानानुपपत्ति

माया का अर्थ अविद्या अर्थात् ज्ञान का नाश है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान, स्वयं प्रकाश तथा स्वतः प्रमाण है। उसकी सत्ता अनन्त है। तो फिर माया विशुद्ध ज्ञान स्वरूप ब्रह्म का आवरण कैसे कर सकती है। विशुद्ध ज्ञान, जो स्वयं प्रकाश का आवरण हो सकता है अथवा रात, दिन को तिरोहित कर सकती है? अतः यह कहना मूर्खता है, कि माया परम एवं अनन्त ज्ञान स्वरूप ब्रह्म का तिरोधान करती है।

स्वरूपानुपपत्ति

रामानुज के अनुसार माया का कोई स्वरूप निश्चित नहीं है।यह सत्य नहीं, क्योंकि अद्वैत मत में एकमात्र सत्य ब्रह्म ही है। यह असत्य भी नहीं है, क्योंकि यह जगत का कारण है। माया का अर्थ अविद्या अथवा ज्ञान का अभाव है। अज्ञान को भावरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि किसी भी भावात्मक सत्ता का विनाश संभव नहीं है। अद्वैतवादी स्वयं मानते हैं, कि ज्ञान से माया का विनाश हो जाता है।

अतः माया को भावरूप कहना अपने आप में विरोधी हैं। यदि माया को भ्रम माना जाय तो ऐसी स्थिति में यह बात समझ सकतना कठिन है, कि यह ब्रह्म का अध्यास कैसे कर सकती है? इस प्रकार माया का वास्तविक स्वरूप बता सकने में अद्वैतवादी सफल नहीं हो सके।

अनिर्वचनीयानुपपत्ति

अद्वैत वेदान्ती माया को अनिर्वचनीय कहते हैं, जिनका वर्णन कर सकना कठिन है।यह न तो सत् है, और न असत् अपितु इन दोनों से परे हैं। रामानुज के अनुसार ऐसा मानना अपने आप में विरोधाभास है। कोई वस्तु या तो सत् होती या असत्। जो इन दोनों में से किसी कोटि की नहीं है, उसकी कोई भी सत्ता स्वीकार कर सकता कठिन है। अद्वैतवादी माया को सत् तथा असत् दोनों से परे बताकर सभी तर्कों का त्याग कर बैठते हैं। उनकी कल्पना केवल धोखाधङी प्रतीत होती है। किसी वस्तु को सत् या असत् मानने के अलावा हमारे पास कोई तीसरा विकल्प नहीं है।

प्रामाणानुपपत्ति

माया का अस्तित्व बताने के लिये हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। इसका अस्तित्व प्रत्यक्ष, शब्द, अथवा अनुमान किसी के द्वारा भी पता नहीं किया जा सकता। इसका कोई रूप न होने के कारण प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं है। प्रत्यक्ष से तो हमें किसी वस्तु की सत्ता अथवा उसके अभाव का ही पता लग पाता है।

माया में यह कोई नहीं है। इसे हम अनुमान के द्वारा भी नहीं जान सकते, क्योंकि इसका कोई लिंग नहीं है। श्रुति ग्रंथों से भी माया का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वे माया को ईश्वर की अद्भुत रचना शक्ति के रूप में निरूपित करते हैं तथा उसे अज्ञान नहीं कहते है। अतः किसी भी प्रकार से माया का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये हमारे पास कोई प्रमाण नहीं हे, जिससे यह सिद्धांत कलोपकल्पित है।

निवर्तकानुपपत्ति

माया अथवा अविद्या के विनाश का कोई उपाय समझ में नहीं आता। अद्वैतवादी कहते हैं कि निर्गुण तथा निर्विशेष ब्रह्मज्ञान द्वारा ही इसका विनाश होता है। किन्तु रामानुज का कहना है, कि सभी ज्ञान सविशेष होते हैं, निर्गुण तथा निर्विशेष ज्ञान की प्राप्ति सर्वथा असंभव है।

यह केवल सगुम और सविशेष वस्तु का ज्ञान ही प्राप्त कर सकते हैं। चूँकि हमें अद्वैतवादियों द्वारा लक्षित ज्ञान कभी प्राप्त ही नहीं हो सकता, अतः उसके अभाव में माया अथवा अविद्या को दूर करने का कोई दूसरा उपाय हमारे पास नहीं रह जाता है। इस प्रकार माया का विचार युक्तिसंगत नहीं है।

निवृत्यनुपपत्ति

मायावाद के विरुद्ध रामानुज का अंतिम तर्क यह है, कि माया का कोई निवर्त्तक नहीं है। अद्वैतवाद ब्रह्मज्ञान को ही माया का निवर्त्तक कहता है। अविद्या को भावरूप माना गया है, तो फिर ज्ञान के द्वारा भावरूप में स्थित किसी वस्तु का विनाश कैसे संभव हो सकता है? हमारे बंधन का कारण कर्म होता है, जिसकी एक प्रत्यक्ष सत्ता है। इसे हम निराकार ज्ञान से दूर नहीं कर सकते। हमारे बंधन का कारण कर्म होता, जिसकी एक प्रत्यक्ष सत्ता है।

इसे हम निराकार ज्ञान को दूर नहीं कर सकते। संचित कर्मों के नाश होने पर ही आत्मा के अज्ञान का नाश हो पाता है। यह ज्ञान से नहीं, अपितु ईश्वर भक्ति से संभव है। भक्ति से प्रसन्न होकर ईश्वर अविद्या का नाश कर देता है। चूँकि अद्वैतवादी कर्म तथा भक्ति की महत्ता को स्वीकार नहीं करते, अतः ऐसी स्थिति में उनकी माया का विनाश संभव नहीं हो सकता।

रामानुज की इन सभी आपत्तियों का उत्तर अद्वैत वेदान्तियों ने अपने ढंग सं दिया है। रामानुज चूँकि आस्तिक वैष्णव है, अतः वे निर्गुण एवं निरपेक्ष ब्रह्म की अवधारणा से संतुष्ट नहीं हो पाते। वे अविद्या या माया को शाब्दिक अर्थ में ग्रहण करते हैं, तथा इससे संबंदित अद्वैतमत को सही तौर से समझ नहीं पाते। अद्वैतवाद में इसे सत् तथा असत् से परे इसलिये कहा गया है, कि हमारी सीमित बुद्धि परमात्मा का ज्ञान करने में समर्थ नहीं है।

रामानुज अविद्या का आधार ढूँढते हैं। इसके उत्तर में कहा जा सकता है, कि यह आधार ब्रह्म हो सकता है। इससे उसकी अद्वैतता भंग नहीं होगी। रस्सी में जब सर्प की प्रतीति होती है, तो रस्सी में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है। इसी प्रकार यदि शुक्ति में रजत का भ्रम उत्पन्न हो जाता है, तो शुक्ति में कोई विकार नहीं होता। अतः हम कह सकते हैं, कि यदि ब्रह्म में माया द्वारा संस्कार का अध्यास किया जाता है, तो इस स्थिति में ब्रह्म की सत्ता उससे किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं होती है।

वस्तुतः अविद्या ब्रह्म का उसी प्रकार आवरण नहीं करती, जिस प्रकार से कि बादल सूर्य को वास्तविक रूप में नहीं करता है। अद्वैत मत के अनुसार सत् और असत् का अर्थ सीमित नहीं है। यहां सत् से तात्पर्य परम सत् तथा असत् से तात्पर्य पूर्णरूपेण असत् से है। स्पष्ट है, कि अविद्या इन दोनों में से किसी भी कोटि में नहीं आती है। अतः हम कह सकते हैं, कि अद्वैतवादी जो अविद्या के अवर्णनीय होने की बात करते हैं, वह तार्किक दृष्टि से असंगत नहीं है, भले ही रामानुज जैसे आस्तिकों को उससे तुष्टि न मिले। रामानुज स्वयं भी विशुद्ध आत्मा के बंधन ग्रस्त का कारण स्पष्ट नहीं कर पाते। इसी प्रकार ब्रह्म, जीव तथा जगत के संबंध की भी समुचित व्याख्या उनके दर्शन में नहीं मिलती है।

बंधन तथा मोक्ष

अन्य भारतीय दार्शिनकों की भाँति रामानुज भी बंधन तथा मोक्ष की समस्या पर विचार करते हैं और मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं, उनके अनुसार कर्मों के कारण ही आत्मा बंधनग्रस्त होती है। कर्मों का फल भोगने के लिये ही जीवात्मा प्राकृत शरीर से संबंद्ध हो जाती है। वह अज्ञातवश अपने को शरीर, इन्द्रिय, मन आदि समझ बैठता है, तथा कर्त्ता और भोक्ता मानने लगता है।

आत्मा अणु रूप है तथा शरीर के प्रत्येक भाग को यह उसी प्रकार चैतन्य बना देता है, जिस प्रकार से दीपक कमरे को प्रकाशयुक्त कर देता है। आत्मा में कर्ता तथा भोक्ता का भाव अज्ञानजनित अहं के कारण पैदा होता है। यही अहंकार अविद्या है-रामानुज के अनुसार यति कर्मफल का नाश हो जाय तो आत्मा शरीरबद्ध नहीं होगी। अतः कर्मों तथा उनके फलों का पूर्ण विनाश ही मोक्ष है।

संसार को सत्य मानते हुये भी रामानुज यह मानते हैं, कि वह भवसागर को पारकर अमरत्व की प्राप्ति करे। रामानुज के अनुसार मोक्ष के लिये यह आवश्यक है, कि आत्मा कर्मो के बंधन तथा उनके फलों से छुटकारा प्राप्त करके अपने को शुद्ध करे। यह कर्म तथा ज्ञान के मैत्रीपूर्ण समन्वय (ज्ञान-कर्म-समुच्चय) से ही संभव है। कर्म से रामानुज का तात्पर्य वेद विहित कर्मकाण्डों (वर्णाश्रम धर्म)से है।

रामानुज पूर्व तथा उत्तर मीमांसा में कोई भेद नहीं मानते हैं। वेदान्त के अध्ययन के लिये पूर्व मीमांसा का अध्ययन आवश्यक होता है। वेद मनुष्यों के लिये जिन कर्मकाण्डों का विधान करते हैं, उनका भलीभाँति आचरण करना चाहिये। तभी कर्मबंधन से मुक्ति संभव हो सकती है। किन्तु कर्मों का अनुष्ठान निष्काम भाव से केवल ईश्वर को प्रसन्न करने के लिये ही किया जाना चाहिए।इस प्रकार निष्ठापूर्वक कर्म करता हुआ जीवात्मा यह अनुभव कर लेता है, कि केवल इन्हीं से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः वह अपना चित्त वेदांत के अध्ययन में लगाता है।

वेदान्त उसे ईश्वर, आत्मा तथा प्रकृति के स्वरूप से अवगत करा देता है। उसे यह ज्ञात हो जाता है, कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति से विशिष्ट है, और वही विशिष्ट है और वही इनका नियामक है। जीव तथा प्रकृति मिलकर ईश्वर के शरीर का निर्माण करते हैं किन्तु वे ज्ञान का तादात्म्य भक्ति से स्थापित करते हैं। कर्म तथा ज्ञान द्वारा ही भक्ति का उदय होता है। ज्ञान तथा कर्म एक दूसरे के पूरक हैं।

मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा आवश्यक मानी गयी है और यह कृपा केवल भक्ति के माध्यम से ही मिल सकती है। ईश्वर, जो इस सृष्टि का कर्त्ता, पालक एवं संहर्त्ता है, ही उपासना का एकमात्र अधिष्ठान है। ईश्वर की भक्ति उसमें पूर्ण समर्पण तथा उसका निरंतर स्मरण है। जब मन भगवान में लग जाता है, तथा उसके तेज से प्रकाशयुक्त हो जाता है तब दूसरी सांसारिक वस्तुओं के प्रति आकर्षित नहीं होता तथा ईश्वर को ही वह अपना परमप्रिय आधार मानकर उसी में दत्तचित्त हो जाता है। मन या चित्त की इसी अवस्था को रामानुज भक्ति की संज्ञा प्रदान करते हैं।

यह भक्ति एक विशेष प्रकार का ज्ञान है, जो सामान्य ज्ञान से भिन्न है। वस्तुतः सामान्य ज्ञान की चरम परिणति ही भक्ति है। ईश्वर के स्वभाव का प्रेमपूर्वक ध्यान करना ही भक्ति है। भक्ति के लिये दो बातें आवश्यक हैं – मन को पूर्णरूपेण ईश्वर में केन्द्रित करना तथा भगवान के स्वरूप का ज्ञान। इन दोनों से युक्त व्यक्ति ही ईश्वर का सच्चा भक्त एवं प्रिय पात्र होता है। सच्ची भक्ति का उदय ईश्वर की कृपा से ही हो सकता है।

रामानुज कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग में समन्वय स्थापित करते हैं तथा भक्ति को परम भक्ति परम साध्य एवं कर्म और ज्ञान को उसकी प्राप्ति में साधन के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। उनके मत में भक्ति तीन प्रकार की होती है – साधन भक्ति, पराभक्ति तथा परमाभक्ति। प्रथम में व्यक्ति सांसारिक विषय भोगों से ऊबकर अपना ध्यान ईश्वर में लगाता है। इसके रूप पूजा-पाठ, पाद-सेवा, यम-नियम आदि आचार हैं, जो व्यक्ति के मन को निर्मल बनाते हैं।इसमें भगवान प्राप्ति का लक्ष्य सामने होता है, तथा जो कुछ भी किया जाता है, वह उसी की आराधना के लिये होता है।

दूसरी अवस्था में व्यक्ति भगवान का दर्शन प्राप्त कर लेता है। ईश्वर की पूर्णता में उसका विश्वास दृढ हो जाता है तथा वह अपने को उसी का अंश समझकर उसका प्रत्यक्ष अपनी अन्तरात्मा के रूप में करता है। अंतिम अवस्था में भक्त भगवान के साथ अपने को एकाकार समझकर पूर्णरूपेण उसमें निमग्न हो जाता है।

रामानुज का मत है, कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करना ही मोक्ष का सर्वोत्तम साधन है। और यह सभी लोगों के लिये सदा सुलभ है। इसके लिये साधक को ईश्वर में अपने को पूर्ण-समर्पित करना होता है। इस पूर्ण-समर्पण को प्रपत्ति अथवा शरणागति कहा गया। ईश्वर की कृपा प्राप्त करने की यह आवश्यक शर्त है। शरणागत जीव को ईश्वर सहज ही अपनी कृपा-दृष्टि प्रदान करता है।और ऐसा भक्त उसका परमप्रिय पात्र बन जाता है।

ईश्वर साधक की भक्ति तथा प्रपत्ति से प्रसन्न होकर उसकी सभी भव-बाधाओं को दूर कर देता है तथा उसे अपनी शरण में ले लेता है। यही मोक्ष की अवस्था है। इस प्रकार जहाँ शंकर ज्ञान को मुक्ति सा साधन स्वीकार करते हैं, वहीं रामानुज भक्ति को वह स्थान देते हैं। रामानुज यह नहीं मानते कि मोक्ष की अवस्था में आत्मा का परमात्मा (ब्रह्म)में विलय हो जाता है। अपितु वह ब्रह्म के सदृश (ब्रह्मप्रकार) हो जाता है।

वह अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कर लेता है तथा अपने को परमात्मा का अंश समझ लेता है। आत्मा अणु है, जबकि परमात्मा विभु है। ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। मुक्त आत्मा अज्ञान तथा दोषों से रहित होकर निर्मल हो जाता है तथा ईश्वर के पीछे सान्निध्य में निवास करते हुये उसी के समान अनन्त चैतन्य एवं आनंद का उपभोग करता है। यह अपने को ईश्वर का शरीर समझ लेता है। किन्तु यहाँ भी उसके वैशिष्ट्य का विनाश नहीं होता। बंधन का कारण आत्मा का स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं, अपितु अहंकार होता है और मुक्तावस्था में इसी का विनाश हो जाता है।

आत्मा ईश्वर का शरीर तथा वह इस शरीर की आत्मा है। आत्मा के लिये सबसे बङा आनंद यही है, कि वह ईश्वर की अनंत महिमा का निरंतर ध्यान करता रहे और यह तभी संभव है, जबकि उसका वैशिष्ट्य सुरक्षित रहे। इस दृष्टि से रामानुज के मत में जीवनमुक्ति जैसी कोई अवस्था नहीं होती है। उनके अनुसार जब तक आत्मा का शरीर के साथ संबंध बना रहेगा, कर्म बने रहेंगे तथा कर्मों के रहते हुये वह अपनी सहज शुद्धता को प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः मोक्ष तभी संभव है, जबकि आत्मा का शरीर से संबंध-विच्छेद हो जाय। सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा ईश्वर के लोक में रहते हुये असीम आनंद की अनुभूति करता है।यही जीवन का चरम लक्ष्य है।

इस प्रकार रामानुज का मत विशिष्टाद्वैत अर्थात् अद्वैत में द्वैत का मत है। इसमें तीन तत्वों को नित्य माना गया है – ईश्वर (ब्रह्म),जीव (आत्मा), प्रकृति। परमतत्व की कल्पना तीन तत्वों की संगठित समष्टि के रूप में की गयी है। ईश्वर एक होते हुये भी चित् तथा अचित् से विशिष्ट या समन्वित है। वह इस समष्टि का आंतरिक नियन्ता अथवा उसकी परमात्मा है, जो चित् तथा अचित् की एकता को बनाये रखता है। जीव तथा प्रकृति मिलकर उसके शरीर का निर्माण करते हैं। ये तत्व नित्य होते हुये भी ईश्वर पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं।

इन्हें ईश्वर का प्रकार कहा गया है। ये नियाम्य, धार्य, अंश तथा शेष कहे गये हैं जब कि ईश्वर इनका प्राकारी, नियंता, आधार, अंश तथा शेषी कहा गया है। ईश्वर के जीव तथा प्रकृति के साथ संबंध सनातन एवं स्वाभाविक है। रामानुज अपने त्रितत्व सिद्धांत का आधार उपनिषदों में पाते हैं। श्वेताश्वतर में परमतत्व को तीन तत्वों से विशिष्ट माना गया है। उसके अनुसार भोक्ता, भोग्य तथा प्रेरिता मिलकर परमतत्व का निर्माण करते हैं। जो इन तीनों को जानता है वही ब्रह्म को जानता है।

रामानुज का सिद्धांत आस्तिक व्यक्तियों के लिये तुष्टि का साधन है। उन्होंने भक्तिपरक वेदान्त को ठोस आधार प्रदान करके उसका विकास किया। उनके दर्शन के सिद्धांतों का प्रभाव कालांतर में अन्य वैष्णब वेदान्तियों पर पङा। भारतीय चिन्तन के इतिहास में विशिष्टाद्वैत का एक प्रमुख स्थान है। मौलिकता की दृष्टि से यह शंकर के अद्वैत मत की समकक्षता में रखा जा सकता है।

रामानुज के बाद के वेदान्तियों में मध्व या मध्वाचार्य (1197-1276ई.) का नाम प्रसिद्ध है, जिन्होंने ब्रह्म का समीकरण विष्णु से स्थापित कर द्वैतवाद का प्रतिपादन किया। इसमें विष्णु तता जीव जगत दोनों की सत्ता को स्वीकार करते हुये परस्पर भिन्न माना गया है। मध्व के अनुसार ईश्वर सृष्टि का केवल निमित्त कारण ही है। वे मोक्ष के लिये भगवान विष्णु की कृपा (प्रसाद) को आवश्यक बताते हैं।

इन सभी दार्शनिक संप्रदायों के अलावा एक भौतिकवादी दर्शन भी है, जिसे चार्वाक् मत कहा जाता है। यह आत्मा, अग्न, जल तथा पृथ्वी की समष्टि के अलावा कुछ भी नहीं है। इस मत के अनुसार शरीर के विनाश के साथ ही सब कुछ विनष्ट हो जाता है। अतः मनुष्य को चाहिये कि वह जब तक जीवित रहे, सांसारिक विषयभोगों का खूब आनंद ले। ईश्वर, वेद, पुरोहित आदि में विश्वास कोरी मूर्खता है। जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक सुखों की प्राप्ति है। चार्वाक मत में कहा गया है, कि – मनुष्य जब तक जिन्दा रहे सुख के साथ जिन्दा रहे। ऋण लेकर धृतपान करे यानि आनंद मनाये। शरीर के भस्म होने पर पुनः जन्म नहीं मिलता है।

एक अन्य वैष्णव आचार्य निम्बार्क ने सनक संप्रदाय की स्थापना की जिसे द्वैताद्वैत अथवा भेदाभेद भी कहा जाता है। उनके सिद्धांत रामानुज के सिद्धांतों से काफी साम्य रखते हैं। अन्य वैष्णव दार्शनिकों में शुद्धाद्वैत के प्रवर्त्तक वल्लभाचार्य, अचिनयभेदान्भेद के प्रवर्त्तक महाप्रभु चैतन्य आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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