आधुनिक भारतइतिहासराजा राम मोहन राय

आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय(Raja Ram Mohan Roy)

राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय (Raja Ram Mohan Roy)

राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय – भारतीय धर्म और समाज सुधार आंदोलनों के प्रवर्तक राजा राममोहन राय थे, जिनका जन्म1774 ई. में बंगाल के राधानगर नामक गाँव में एक बाह्मण परिवार में हुआ। आरंभ से ही वे क्रांतिकारी विचारों के थे।

17 वर्ष की आयु में ही राजा राममोहन राय ने एक पुस्तिका निकाली जिसमें मूर्तिपूजा पर प्रबल आक्षेप किया गया था। इससे नाराज होकर उनके कट्टरपंथी परिवार ने उन्हें घर से निकाल दिया। उसके बाद वे बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे, लेकिन इस काल का उन्होंने पूरा उपयोग किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन रंगपुर की कलेक्टरी में नौकर हो गये और शीघ्र ही अपनी प्रतिभा के बल से एक साधारण क्लर्क की स्थिति से उठकर जिले क दीवानगिरी के उच्च पद पर पहुँच गये।

इसी बीच राजा राममोहन राय ने लेटिन,शास्र, वेद , उपनिषद तथा वेदांत का अध्ययन वे पहले ही कर चुके थे। 40 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया तथा 1814 से स्थायी रूप से कलकत्ता में बस गये। सन्1813 के बाद ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म पर प्रबल आक्षेप करने आरंभ कर दिये थे।

आरंभ में तो राजा राममोहन राय उन आक्षेपों का उत्तर देते रहे, किन्तु बाद में उन्होंने शुद्ध एकेश्वरवाद की उपासना के लिए 20अगस्त,1828 को ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने किसी नवीन संप्रदाय को खङा नहीं किया था, बल्कि धर्मों की उच्च शिक्षाओं के तत्त्व से एक सामान्य पृष्ठभूमि तैयार की।

राजा राममोहन राय द्वारा किये गये कार्य-

ब्रह्म समाज 20अगस्त,1828 ई. की स्थापना

ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांत एक ही ईश्वर की उपासना,मानव मात्र के प्रति बंधुत्व की भावना तथा सभी धर्मों के धार्मिक ग्रंथों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना था। राममोहन राय ने जाति-बंधनों का खंडन किया। ब्रह्म समाज के साप्ताहिक अधिवेशनों में वेदों का पाठ, और उपनिषदों के बंगला अनुवाद का वाचन होते थे।1833 में राजा राममोहनराय की मृत्यु के बाद देवेन्द्रनाथ सेन ने ब्रह्म समाज को अधिक प्रगतिशील बनाया। केशवचंद्र सेन ईसाई धर्म से अधिक प्रभावित थे।

अतः राजा राममोहन राय ब्रह्म समाज को ईसाई धर्म के सिद्धांत के अनुसार चलाना चाहते थे।केशवचंद्र ने अपने समाज के प्रचारार्थ पर्यटन आरंभ किया, जिसके फलस्वरूप बंबई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई। 1881 में भारतीय ब्रह्म समाज में पुनः मतभेद उत्पन्न हो गये। अतः केशवचंद्र सेन ने नव विधान समाज की स्थापना की।

नव विधान समाज में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अतिरिक्त ईसाई, बौद्ध और मुस्लिम धार्मिक ग्रंथों से भी अनेक बातें ली गई थी। यद्यपि ब्रह्म समाज विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया था, तथापि उसका मूल आधार एक ही था- हिन्दू समाज और धर्म का सुधार करना।

19वी. शता. का प्रथम धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। राजा राममोहनराय पहले भारतीय थे, जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। उस समय भारतीय समाज और धर्म पत्नोन्मुख हो रहे थे।धर्म का स्थान कर्मकांडों ने ले लिया था तथा संपूर्ण समाज में अंधविश्वास व्याप्त हो गया था। समाज में अनेक बुराइयाँ आ गई थी।

ऐसी स्थिति में ईसाई धर्म एवं पाश्चात्य संस्कृति ने हिन्दू धर्म पर प्रहार किया, जिससे ऐसा प्रतीत होने लगा मानो हिन्दू धर्म और सभ्यता नष्ट हो जायेगी। ऐसे समय में ब्रह्म समाज ही पहला संगठन था, जिसने हिन्दू धर्म की प्राचीन मान्यताओं पर आक्रमण किया। इससे अन्य सुधारकों को बल प्राप्त हुआ।

ब्रह्म समाज के मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित थे-

  • ईश्वर एक है, वह संसार का सृष्टा,पालक और रक्षक है। इसकी शक्ति,प्रेम,न्याय,पवित्रता अपरिमित है।
  • आत्मा अमर है, उसमें उन्नति करने की असीम क्षमता है और वह अपने कार्यों के लिए भगवान के सामने उत्तरदायी है।
  • आध्यात्मिक उन्नति के लिए, प्रार्थना, भगवान का आश्रय और उसके अस्तित्व की अनुभूति आवश्यक है।किसी भी बनाई गई वस्तु को ईश्वर समझकर नहीं पूजना चाहिए और न किसी पुस्तक या पुरुष को मोक्ष का एकमात्र साधन मानना चाहिए।

धार्मिक सुधार के कार्य

ब्रह्म समाज ने वेदों और उपनिषदों को आधार मानकर बताया कि ईश्वर एक है, सभी धर्मों में सत्यता है, मूर्तिपूजा और कर्मकांड निर्थरक हैं तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई संबंध नहीं है। सर्वप्रथम ब्रह्म समाज ने ही तर्क के आधार पर धर्म की व्याख्या करने का विचार भारतीय समाज को प्रदान किया।

धर्म की व्याख्या करते हुए उसके ईसाई धर्म के कर्मकांडों तथा ईसा मसीह के ईश्वरीय अवतार होने के दावे पर प्रबल आक्रमण किया तथा ईसाई धर्म-प्रचारकों से शास्त्रार्थ किया। इनका परिणाम यह हुआ कि जो हिन्दू ईसाई धर्म ग्रहण कर रहे थे, वे अपने धर्म-परिवर्तन करने से रुक गए।

ब्रह्म समाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार उपनिषदों का अद्वैतवाद था। इस समाज की बैठकों में वेद तथा उपनिषदों के मंत्रों का पाठ हुआ करता था।

सामाजिक सुधार के कार्य

राजा राममोहन राय उच्च कोटि के समाज सुधारक थे। उस समय समाज में अनेक बुराइयाँ आ गई थी। राजा राममोहन राय ने उन्हें दूर करने का निश्चय किया। अपनी विधवा भाभी को सती होते देखकर उन्होंने इस बर्बर तथा अमानुषिक प्रथा के विरुद्ध जबरदस्त आंदोलन छेङ दिया।

परिणामस्वरूप लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 में कानून बनाकर सती-प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया। कुछ कट्टरपंथी हिन्दुओं ने इस कानून का विरोध करते हुए लंदन की प्रवी कौंसिल में अपील की। लेकिन राजा राममोहन राय तथा देवेन्द्रनाथ टैगोर ने इस कानून का समर्थन करते हुए प्रवी कौंसिल को अनेक पत्र लिखे, जिसे कट्टरपंथी हिन्दुओं का मनोबल गिर गया और अंत में उनको विजय मिली।

इसी प्रकार ब्रह्म समाज ने बाल-विवाह,बहु विवाह,जाति प्रथा,छुआछूत,नशा आदि सभी कुरीतियों का डटकर विरोध किया तथा समाज सुधार के लिए स्री-शिक्षा,अंतर्जातीय विवाह,विधवा विवाह आदि का समर्थन किया। उस समय भारतीय हिन्दू समाज में कन्या एवं वर विक्रय और कन्या वध जैसी कुरीतियां प्रचलित थी।

ब्रह्म समाज ने इन कुरीतियों के विरुद्ध प्रबल आंदोलन छेङ दिया। समता का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए उन्होंने लाखों हिन्दुओं की ईसाई धर्म स्वीकार करने से रोका। 1822 और 1830 में दो प्रकाशनों द्वारा राजा राममोहन राय ने स्रियों के सामाजिक,कानूनी और संपत्ति के अधिकारों पर प्रकाश डाला। इनकी दृष्टि में स्री और पुरुष दोनों ही समान थे।

साहित्यिक एवं शैक्षणिक सुधार के कार्य

साहित्यिक एवं शैक्षणिक क्षेत्र में भी ब्रह्म समाज ने उल्लेखनीय कार्य किया। अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए विभिन्न समाजों की स्थापना की। देवेन्द्रनाथ की तत्व बोधिनी सभा केशवचंद्र सेन की संगत सभा और भारतीय समाज सुधार जैसी सभाएँ ब्रह्म समाज के विचारों का प्रचार करने में सहायक सिद्ध हुई।

अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए राजा राममोहन राय की अनेक पुस्तकें और अनेक धार्मिक ग्रंथों का विभन्न भाषाओं में अनुवाद भारतीय साहित्यिक जगत के लिए स्थायी योगदान है। उन्होंने बंगला, उर्दू, फारसी, अरबी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में पुस्तकों की रचना कर भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। इसी प्रकार राजा राममोहन राय और केशवचंद्र सेन के लेखों और वक्तव्यों ने भी साहित्य को समृद्ध बनाने में योगदान दिया।

राजा राममोहन राय का अपील टू द क्रिश्चियन पब्लिक, दी डेस्टीनी ऑफ ह्यूमन लाइफ जैसे लेखों ने भारतीयों में नव-जागरण उत्पन्न किया। राजा राममोहन राय ने संवाद कौमुदी नामक सर्वप्रथम बंगाल साहित्यिक पत्र को जन्म दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने मिरातउल अखबार भी प्रकाशित किया। केशवचंद्र सेन ने भारतीय ब्रह्म समाज द्वारा तत्त्व कौमुदी, ब्रह्म पब्लिक ओपीनियन, संजीवनी आदि पत्र प्रकाशित किये। इन पत्र-पत्रिकाओं ने साहित्य के विकास में भारी योगदान दिया।

राजा राममोहन राय अंग्रेजी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए पूर्ण प्रयत्न किया। उनकी मान्यता थी कि आधुनिक युग में प्रगति के लिए अंग्रेजी का ज्ञान होना आवश्यक है।

अतः वे चाहते थे कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा तथा ज्ञान की सभी शाखाओं की शिक्षण व्यवस्था हो। इसके लिए ब्रह्म समाज ने विभिन्न स्थानों पर स्कूल और कॉलेज खोले।स्वयं राजा राममोहन राय ने ने कलकत्ता में वेदांत कॉलेज, इंग्लिश स्कूल और हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। केशवचंद्र के भारतीय ब्रह्म समाज ने ब्रह्म बालिका स्कूल तथा सिटी कॉलेज की नींव डाली। भारत के आधुनिकीकरण और समाज सुधार में इन शिक्षण संस्थानों का महान योगदान रहा। हिन्दू कॉलेज ने तो भारतीय बौद्धिक जागरण में अग्रदूत का काम किया तथा युवा बंगाल आंदोलन को जन्म दिया।

राष्ट्रीय सुधार के कार्य

ब्रह्म समाज ने राष्ट्रीयता की भावना के निर्माण में भी योगदान दिया । उसने प्राचीन भारतीय गौरव,सभ्यता एवं संस्कृति का ज्ञान करवाया, जिससे लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई। राजा राममोहन राय ने हिन्दू कानून में सुधार करने के लिए आवाज उठाई। स्रियों के सामाजिक कानून और संपत्ति के अधिकार पर बल दिया, भूमिकर में कमी करने की माँग की और दमनकारी कृषि कानूनों के विरुद्ध एक प्रार्थना-पत्र इंग्लैण्ड भेजा।समाचार-पत्रों पर लगे प्रतिबंधों का विरोध किया और इसके लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट तथा किंग-इन-कौंसिल को आवेदन-पत्र भी भेजा।

राजा रामोहन राय ने सर्वप्रथम विचार-स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया। इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ कॉमन्स की एक प्रवर समिति के समक्ष उन्होंने भारतीय शासन में सुधार हेतु सुझाव दिये थे। उन्होंने न्याय में जूरी प्रथा का समर्थन किया तथा न्यायपालिका को प्रशासन से अलग करने की माँग की। और न्यायालयों में फारसी के स्थान पर अंग्रेजी भाषा को न्यायालयों की भाषा बनाने पर बल दिया। राजा राममोहन राय ने किसानों से ली जाने वाली मालगुजारी निश्चित करने की माँग की।

उनके आंदोलन के फलस्वरूप 1835 में समाचार-पत्रों पर लगे प्रतिबंधों को हटा लिया गया। राजा राममोहन राय ने अपने देशवासियों में राजनीतिक जागृति पैदा करने के प्रयास किये। यद्यपि उनके प्रयास अप्रत्यक्ष एवं सीमित थे, फिर भी उन्होंने भारत के राजनीतिक नवजागरण में महान योगदान दिया।

राजा राममोहन राय अंतर्राष्ट्रीयता के भी अनन्य पुजारी थे। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने हेतु एक सुझाव प्रस्तुत किया जिसमें संबंधित देशों की संसदों से एक-2 सदस्य लेकर अंतर्राष्ट्रीय काँग्रेस बनाने की योजना थी। इस प्रकार राजा राममोहन राय राष्ट्रीयता एवं अंतर्राष्ट्रीयता दोनों के प्रबल समर्थक थे।

एडम ने ठीक ही लिखा है कि, स्वतंत्रता की लगन उनकी अंतर्रात्मा की सबसे जोरदार लगन थी और यह प्रबल भावना उनके धार्मिक,सामाजिक,राजनीतिक आदि सभी कार्यों में फूट-फूटकर निकल पङती थी। इसीलिए उन्हें नये युग का अग्रदूत कहा गया है।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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