इतिहासमध्यकालीन भारत

दिल्ली तथा अजमेर के चौहान शासकों का इतिहास

दिल्ली तथा अजमेर के चौहान – चौहान वंश की अनेक शाखाओं में से सातवीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकंभरी (अजमेर के निकट) के चौहान राज्य का इतिहास में विशेष महत्त्व है। वासुदेव के बाद सामंत पुर्णतल्ल, जयराज, विग्रहराज प्रथम, चंद्रराज, गोपराज आदि यहाँ अनेक शासक हुए। आठवीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों में दुर्लभराज प्रथम प्रतीहारों का सामंत था। उसके उत्तराधिकारी गोविंदराज प्रथम ने नागभट्ट द्वितीय के काल में विशेष महत्व प्राप्त किया। उसके बाद चंद्रराज द्वितीय, गुवक (गोविन्दराज) द्वितीय चंदन ने कुछ समय तक शासन किया। दसवीं शताब्दी के प्रारंभ में वाक्पतिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र कर लिया। उसके लङके सिद्धराज ने अपने राज्य का विस्तार करके महाराजाधिराज का विरुद धारण किया। तत्पश्चात् इस वंश में विग्रहराज द्वितीय, दुर्लभराज द्वितीय, गोविंदराज तृतीय, पृथ्वीराज प्रथम, अजयराज आदि शासक हुए।

अजयराज का उत्तराधिकारी अर्णोराज (लगभग 1133 ई.) एक महत्त्वपूर्ण शासक हुआ। उसने अजमेर के निकट सुल्तान महमूद की सेना को पराजित किया। उसने बुंदेलखंड, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्से जीत लिए थे। किंतु गुजरात के शासक चालुक्य कुमार पाल ने इसे हरा दिया। अर्णोराज की उसके लङके जगदेव ने (लगभग 1153 ई.) में हत्या कर दी। किंतु वह अधिक समय तक शासन नहीं कर सका, क्योंकि थोङा सा समय बीतने पर ही उसके छोटे भाई विग्रहराज चतुर्थ विसलदेव ने गद्दी पर अधिकार कर लिया।

विग्रहराज चतुर्थ (1153-63 ई.) असाधारण क्षमता का कुशल शासक था। उसने गुजरात के कुमारपाल को हराकर अपने पिता का बदला लिया। इस शक्तिशाली शासक ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करके हाँसी को भी जीत लिया। तुर्कों के विरुद्ध भी उसने अनेक युद्ध किए और उन्हें आगे बढने से रोकने में समर्थ रहा। उसके साम्राज्य में पंजाब, राजपूताना तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के अधिकांश भाग शामिल थे। साथ ही मालवा तथा राजपूताना के अनेक शासकों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसने अपनी योग्यता एवं कार्यकुशलता से चौहानों को उत्तरी भारत की महत्त्वपूर्ण शक्तियों में स्थापित कर दिया। विग्रहराज चतुर्थ के बाद अपर गांगेय, पृथ्वीराज द्वितीय तथा सोमेश्वर ने कुछ काल तक शासन किया था।

सन् 1178 ई. में सोमेश्वर का लङका इतिहास प्रसिद्ध पृथ्वीराज तृतीय शासक हो गया। किंतु जिस समय वह गद्दी पर बैठा था और उस समय भीतरी-बाहरी संघर्ष के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ थी – जैसे उसे तुर्की आक्रमण के खतरे तथा चुनौती का सीधा सामाना करना पङा। मुहम्मद गौरी ने यामनी वंश के गजनवी शासक से पश्चिमी पंजाब जीत लिया। अब गोरी तथा पृथ्वीराज के राज्यों के बीच समान सीमारेखा हो जाने के कारण इनमें सीधा संघर्ष तथा शक्ति-परीक्षण अवश्यंभावी सा हो गया। इस बात के संकेत मिलते हैं कि मुहम्मद गोरी ने भारत पर अनेक सैनिक अभियान किए। एक बार पृथ्वीराज के शासन के प्रारंभ में गोरी ने शांति-समझौता भी करना चाहा था। किंतु जब उसने नाङोल पर कब्जा कर लिया तो पृथ्वीराज ने शांति समझौते को ठुकरा दिया। 1178 ई. में गुजरात के चालुक्य मूलराज ने मुहम्मद गौरी को आबू पर्वत की तलहटी में हरा दिया था। पृथ्वीराज के लिए यह उत्साहवर्धक बात थी।

निस्संदेह पृथ्वीराज असाधारण कोटि का वीर योद्धा तथा साम्राज्यवादी था। उसने चतुर्दिक विजय की नीति अपनाई थी। 1182 ई. के लगभग उसने रेवाङी, भिवानी तथा अलवर के कुछ क्षेत्रों से भाङानको को हराकर अपने कब्जे में कर लिया। पृथ्वीराज ने बुंदेलखंड के चंदेल शासक परमर्दिदेव को रात्रि-अभियान में हराया था। इसमें परमर्दिदेव के आल्हा-ऊदल नामक लोकप्रसिद्ध सेनानायकों ने भयंकर युद्ध किया था, किंतु वे मारे गए। 1182 ई. में पृथ्वीराज ने गुजरात के भीम द्वितीय के विरुद्ध आक्रमण किया। युद्ध अनिर्णीत रहा और भीम ने पृथ्वीराज से शांति समझौता कर लिया। यह एक प्रकार से सैनिक अभियान के समान था और पृथ्वीराज को कोी भी क्षेत्र प्राप्त न हो सका।

सन् 1190-91 ई. में मुहम्मद गोरी पंजाब के रास्ते से दिल्ली की ओर बढा और पृथ्वीराज की सीमा चौकी भटिंडा पर कब्जा करके काजी जियाउद्दीन तुलाकी के नेतृत्व में कुछ सैनिक वहाँ छोङकर वापसी की तैयारी में ही था कि पृथ्वीराज भटिंडा आ पहुँजा। 1191 ई. में इन दोनों के बीच तराइन के मैदान में प्रथम युद्ध हुआ। मुहम्मद गौरी इसमें बुरी तरह पराजित हुआ। इस युद्ध में गौरी पृथ्वीराज के सामंत गोविंदराज के नेजे से घायल भी हो गया था।

इस घटना के बाद तराइन के दूसरे युद्ध तक मुहम्मद गोरी तथा पृथ्वीराज के क्रिया-कलापों का संक्षिप्त हम इस पोस्ट में करेंगे। मिनहाज सिराज तथा फरिश्ता के अनुसार गोर लौटने पर इस पराजय के लिये दोषी गोरी, खलजी तथा खुरासानी अमीरों को उसने कङी सजा दी। गोरी खाना-पीना भूलकर रात दिन इस हार का बदला लेने के लिए तैयारी में लग गया। एक वर्ष तक पूरी सैनिक तैयारी के बाद मुहम्मद गोरी पुनः भारत पर आक्रमण के लिए आ पहुँचा।

पारंपरिक राजपूत आख्यानों के अनुसार तराइन के प्रथम युद्ध की सफलता के बाद पृथ्वीराज गढवाल शासक जयचंद से युद्ध में व्यस्त हो गया। वह सुंदरी संयोगिता के साथ अपना समय व्यतीत करने लगा। ताजुल-म-आसिर के अनुसार पृथ्वीराज में तथा पृथ्वीराज प्रबंध तथा पृथ्वीराज रासो के अनुसार जयचंद में दिग्विजय करके सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थापित होने की प्रबल लालसा थी । ऐसी स्थिति में इन दोनों में बङी और निर्णायक टक्कर स्वाभाविक थी। राजनीतिक शत्रुता के अलावा जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर से हरण के कारण यह शत्रुता और भी विकराल रूप धारण करने लगी थी। चंदबरदाई, अबुल फजल तथा चंद्रशेखर के लेखों के आधार पर दशरथ शर्मा ने कथा को एक ऐतिहासिक घटना माना है।

इस घटना के कुछ ही समय बाद मुहम्मद गोरी एक लाख बीस हजार सैनिकों के साथ तराइन के मैदान में शक्ति परीक्षण के लिए आ गया। उसने गोर साम्राज्य की अधीनता मानने का प्रस्ताव पृथ्वीराज के पास भेजा था जिसे सोच-विचार के बाद पृथ्वीराज ने अस्वीकार कर दिया। उसने निर्णय लिया कि युद्ध करना चाहिए। पृथ्वीराज तराइन के मैदान में तीन लाख अश्वारोही तथा तीन हजार हस्ति सेना के साथ युद्धभूमि में उतर पङा। मुहम्मद गौरी ने संभावित समझौते के बहाने कुछ समय बिताकर एक दिन प्रातः काल पृथ्वीराज पर अचानक आक्रमण कर दिया। पृथ्वीराज की सेना तैयार नहीं थी, फिर भी भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मुहम्मद गोरी की विजय हुई। पृथ्वीराज बंदी बना लिया गया और कुछ समय के बाद उसकी हत्या कर दी गयी।

तराइन के दूसरे युद्ध ने भारतीय इतिहास को नई धारा प्रदान की है। निस्संदेह यह युग परिवर्तनकारी माना जा सकता है, क्योंकि इसके बाद ही तुर्की राज्य की भारत में स्थापना हुई।

पृथ्वीराज चौहान निश्चय ही एक वीर एवं साहसी योद्धा, योग्य सेनानायक तथा अनेक युद्धों में असाधारण साहस तथा अदभुत रण-कौशल प्रदर्शित करने वाला समर्थ शासक था। संयोगिता की रूमानी कथा और तुर्की विजय की युगांतकारी घटना से संबद्ध होने के कारण भी भारतीय इतिहास में उसका स्थान अविस्मरणीय है। इस स्थल पर यह उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज विदेशी आक्रमण के विरुद्ध अपनी वंशगत महत्वाकांक्षा के कारण गुजरात के चालुक्य तथा कन्नौज के गहङवालों की सहायता न प्राप्त कर सका था। राजपूतों की वंशगत प्रतिष्ठा तथा अपने राज्य के हित को सर्वोपरि मानने के कारण उनकी आपसी ईर्ष्या तथा वैमनस्य का लाभ मुहम्मद गौरी को प्राप्त हुआ। साथ ही पृथ्वीराज ने प्रथम तराइन युद्ध में मुहम्मद गौरी की भागती सेना का पीछा करके उसकी शक्ति को क्षीण करने का भी प्रयास नहीं किया था। इस तथ्य पर भी हमारी निगाह जानी चाहिए। कि यदि संयोगिताहरण की घटना दूसरे तराइन युद्ध के पहले हुई थी तो पृथ्वीराज ने संयोगिता के साथ प्रेम प्रसंग में अपनी शक्ति का हास ही किया। दूसरे तराइन युद्ध के पहले गोरी से समझौता वार्ता के संपूर्ण काल में पृथ्वीराज में सैनिक दृष्टि से सतर्कता तथा जागरूकता का न होना उसकी दूरदर्शिता के अभाव का ही परिचायक है।

पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसके लङके गोविंद को गोरी ने अपनी अधीनता में अजमेर का शासक बनाया। किंतु पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने उसे हटा दिया और स्वयं शासक बन गया। इधर तुर्की शासन के विरुद्ध दिल्ली में भी तोमरों ने विद्रोह करना प्रारंभ किया। इस प्रकार 1192 ई. में ही कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली तथा अजमेर से चौहानों के विद्रोह का तीव्रता से दमन करते हुए इस देश में अपना शासन स्थापित कर दिया।

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