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महमूद गवाँ का इतिहास (1463-1482ई.) | Mahamood gavaan ka itihaas | History of Mahmud Gawan

महमूद गवाँ – सुल्तान शमसुद्दीन मुहम्मद तृतीय निजामुद्दीन का छोटा भाई था और राज्यारोहण के समय केवल नौ-दस वर्ष का था। इस समय तक महमूद गवाँ अपनी निष्ठा एवं योग्यता का परिचय दे चुका था। अब राजमाता ने भी राजनीति से संन्यास ले लिया और इसके साथ ही महमूद गवाँ प्रधानमंत्री हो गया। ऐसी स्थिति में अगले बीस वर्षों का बहमनी इतिहास महमूद गवाँ के वर्चस्व का इतिहास है। प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति के समय उसे ख्वाजा जहाँ की उपाधि प्रदान की गयी। वह इतिहास में इसी उपाधि से प्रख्यात है।

महमूद गवाँ का युग बहमनी साम्राज्य के बुझते हुए दीप की अंतिम ज्योति था। उसके शासनकाल में बहमनी साम्राज्य कारोमंडल समुद्र तट से अरब महासागर तक विस्तृत हो गया। उत्तर में उङीसा की सीमा से दक्षिण में कांची तक उसके प्रभाव क्षेत्र को स्वीकार किया गया। यद्यपि महमूद गवाँ स्वयं अफाकी था तथापि उसने दक्खिनियों एवं अफाकियों के मध्य सौहार्द बनाए रखने की भरसक चेष्टा की। इसी प्रकार उसने हिंदुओं के साथ भी सौहार्द बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया। अतः महमूद गवाँ का युग बहमनी साम्राज्य का महानतम युग कहा जा सकता है।

महमूद गवाँ की उपलब्धियाँ

प्रशासनिक परिषद के सदस्य एवं सुल्तान हुमायूँ के शासनकाल में प्रधानमंत्री के रूप में महमूद गवाँ बहमनी साम्राज्य की राजनीतिक समस्याओं को भलीभाँति समझ चुका था। साम्राज्य के उत्तर में मालवा, उत्तर-पूर्व में उङीसा, दक्षिण-पश्चिम में तेलंगाना और दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य, इन सबसे बहमनी साम्राज्य को सदैव युद्धरत रहना पङा था। महमूद गवाँ का सबसे बङा योगदान यह है कि बहमनी साम्राज्य की समस्त राजनीतिक समस्याओं का निराकरण कर उसने बहमनी साम्राज्य को उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। सबसे पहले उसे मालवा के मोर्चे पर युद्ध का सामना करना पङा। मालवा खेली पर पहले ही अधिकार कर चुका था। वह मालवा का सैनिक एवं कूटनीतिक दोनों प्रकार से दमन करना चाहता था। अतः उसने जौनपुर, बंगाल और गुजरात के सुल्तानों से मालवा के विरुद्ध सहायता माँगी, जिससे मालवा को चारों ओर से घेरा जा सके। सन 1466-67 में उसने मालवा के विरुद्ध दो सैनिक अभियान भेजे, जिनमें से दूसरे अभियान के दौरान मालवी सेनाएँ बुरी तरह पराजित हुई। अंततः मालवा के सुल्तान महमूद खलजी को बहमनियों के साथ समझौता करना पङा जिसके अंतर्गत खेली मालवा के पास बना रहा और बरार बहमनियों को दे दिया गया। महमूद गवाँ की इस युद्ध और शांति की नीति के परिणामस्वरूप मालवा एवं बहमनी साम्राज्य के मध्य स्थायी शांति बनी रही।

इसके बाद ही 1470 ई. में उङासा में कपिश्वर गजपति की मृत्यु के बाद मंगल राय एवं हंबीर के मध्य उत्तराधिकार का युद्ध प्रारंभ हो गया। इसमें हंबीर ने उत्तराधिकार प्राप्त करने के लिये बहमनी सुल्तान से सहायता की याचना की। इस पर महमूद गवाँ ने मलिक हसन बहरी को हंबीर की सहायता के लिये भेजा। यद्यपि हंबीर कुछ समय के लिये सत्तारूढ तो हो गया तथापि मंगल राय शीघ्र ही पुरुषोत्तम गजपति के नाम से सिंहासनारूढ हो गया। उङीसा से वापस लौटती बहमनी सेनाओं ने राजमुंद्री पर अधिकार कर लिया। इससे पूर्व महमूद गवाँ ने पश्चिमी समुद्र तट पर खेलना और संगमेश्वर के स्थानीय सरदारों का दमन किया, जो अरब महासागर में चलने वाले यात्री और व्यापारिक जहाजों को लूटा करते थे। 1471 ई. में उसने संगमेश्वर को अपनी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया। 1472 ई. में उसने गोवा के विरुद्ध सैनिक अभियान किया जिसे विजयनगर का संरक्षित राज्य कहा जाता था। इससे पूर्व वह पश्चिमी समुद्रतट पर संगमेश्वर, हुबली और खेलना का दमन कर चुका था। अतः गोआ को बङी सरलता से जीत लिया गया। यह पश्चिमी समुद्र तट का सबसे प्रसिद्ध बंदरगाह था और इसे महमूद गवाँ की सर्वाधिक यशस्वी सैनिक सफलता कहा जा सकता है। इसके शीघ्र बाद 1473 ई. में बेलगाम की विजय के साथ पश्चिमी समुद्र तट की विजय पूर्ण हो गयी और तब बहमनी साम्राज्य अरब महासागर से बंगाल की खाङी तक विस्तृत हो गया।

उसके अगले चार वर्ष उङीसा के साथ संघर्ष में बीते। 1474-75 ई. में कोंडविदु के अधिकारियों के दुर्व्यवहार के कारण, वहाँ की जनता ने विद्रोह कर बहमनी गवर्नर की हत्या कर डाली थी और विद्रोही जनता ने उङीसा की सेना से सहायता माँगी। इस पर कोंडविदु के विद्रोहियों एवं उङीसा के पुरुषोत्तम गजपति की सेनाएँ गोदवारी तक आगे बढ आई। इस बार बहमनी सुल्तान मुहम्मद तृतीय ने स्वयं बहमनी सेनाओं का नेतृत्व किया और उङिया सेनाओं को पराजित किया। परंतु शीघ्र ही 1477-78 ई. में बहमनी एवं गजपति सेनाओं के मध्य पुनः उस समय संघर्ष हुआ, जब एक बहमनी उङिया अधिकारी भीमराज ने विद्रोह करके कोंडपल्ली पर अधिकार कर लिया और पुरुषोत्तम गजपति को बहमनी प्रदेशों पर आक्रमण के लिये आमंत्रित किया। इस बार बहमनी साम्राज्य ने गजपति प्रदेशों पर आक्रमण कर पुरुषोत्तम गजपति को आत्मसमर्पण करने के लिये बाध्य कर दिया।

सन 1480-81 ई. में कोंडविदु में नियुक्त बहमनी सेना सैनिक विद्रोह करके विजयनगर के सालुव नरसिंह से जा मिली। बहमनी सुल्तान ने कोंडविदु के विद्रोह का तो दमन कर दिया, पर वह विजयनगर को सबक सिखाना चाहता था। उसने महमूद गवाँ को लेकर नेल्लार और काँची तक विजयनगर के साम्राज्य पर आक्रमण किया। यह बहमनी सेनाओं का दक्षिणवर्ती अभियान था और इसके साथ ही बहमनी साम्राज्य के सारे शत्रुओं को पराजित और अपमानित किया जा चुका था।

विजयनगर साम्राज्य के विरुद्ध यह अभियान महमूद गवाँ के जीवन का अंतिम सैनिक अभियान था और उसके साथ ही यही उसके अंत का कारण भी बना।

महमूद गवाँ की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर दक्खिनियों ने उसके विरुद्ध एक षङयंत्र रचा, जिसके अंतर्गत महमूद गवाँ के नाम से पुरुषोत्तम गजपति के नाम एक जाली पत्र बनाया गया कि वह बहमनी साम्राज्य पर आक्रमण कर दे। बहमनी सुल्तान मुहम्मद तृतीय के दक्षिण अभियान से वापस आने पर उक्त पत्र उसके सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया। महमूद गवाँ ने उक्त पत्र के प्रति अपनी अबोधता व्यक्त की किंतु उसकी समस्त बहुमूल्य सेवाओं को विस्मृत करके क्रोधावेश में सुल्तान ने उसे मृत्यु दंड दे डाला।

महमूद गवाँ का प्रशासकीय एवं सासंस्कृतिक योगदान

महमूद गवाँ ने बहमनी साम्राज्य की समस्त राजनीतिक समस्याओं का निदान कर दिया था और साम्राज्य का अधिकतम विस्तार उसके काल में हुआ। अब बहमनी साम्राज्य उत्तर में खानदेश से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक और दक्षिण – पश्चिम में गोवा से लेकर उत्तर-पूर्व में उङीसा तक फैल गया था किंतु अब तक बहमनी साम्राज्य केवल चार अतराफों या प्रांतों में ही विभाजित था। प्रांतों के विशाल आकार और प्रांतपतियों के असीमित अधिकारों के कारण प्रांतीय प्रशासन का सारे प्रशासन पर बुरा असर पङता था। अतः महमूद गवाँ ने नव-विजित प्रदेशों सहित भूतपूर्व चार प्रांतों को अब आठ प्रांतों में विभाजित किया, अर्थात् बरार के पुराने तराफ को अब गाविल और माहुर गुलबर्गा को बीजापुर एवं गुलबर्गा, दौलताबाद को दौलताबाद एवं जुन्नार तथा तेलंगाना के पुराने तराफ में नवविजित प्रदेशों को शामिल कर अब रामामुंदी और वारंगल के रूप में विभाजित किया गया। इसके साथ ही प्रत्येक प्रांतीय तराफदार (गवर्नर) के अधिकार क्षेत्र से कुछ प्रदेशों को लेकर उसे खालसा भूमि में परिवर्तित किया गया, जिससे प्रांतीय गवर्नरों के अधिकारों पर नियंत्रण रखा जा सके। इसके अतिरिक्त प्रांतीय गवर्नरों के सैनिक अधिकारों में भी कटौती की गयी। अब पूरे प्रांत में केवल एक किले को ही प्रत्येक गवर्नर के अधीन रहने दिया गया और शेष प्रांतीय किलों पर केन्द्रीय सरकार अपने सेनानायक नियुक्त करती थी। इसी प्रकार जागीरदारों के लिये उनकी जागीर की आय के अनुपात से सेनाएँ रखना अनिवार्य कर दिया गया। यदि जागीर की आय या नकद वेतन की आय के अनुपात से सेना कम पाई जाती थी तो जागीरदार को उसी अनुपात से शाही खजाने में धन वापस करना पङता था। महमूद गवाँ ने भूमि की व्यवस्थित पैमाइश, ग्रामों के सीमा निर्धारण और लगान निर्धारण की जाँच कराई। उसने नवगठित प्रांतों के गवर्नर के पदों को अफाकियों एवं दक्खिनियों के मध्य समान रूप से वितरित किया।

महमूद गवाँ बङा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सुरुचि संपन्न व्यक्ति था। वह विद्वानों का महान संरक्षक था। उसने बीदर में एक महाविद्यालय की भी स्थापना की। उसने अपनी राजनीतिक गतिविधियों को केवल बहमनी साम्राज्य तक ही सीमित नहीं रखा, वरन भारत और उसके बाहर ईरान, ईराक, मिस्त्र और टर्की के सुल्तानों के साथ पत्र व्यवहार किया। समकालीन सुल्तानों एवं मंत्रियों तथा महमूद गवाँ द्वारा स्वयं लिखे गए पत्रों से उसकी महानता परिलक्षित होती है।

बहमनी साम्राज्य का पतन

महमूद गवाँ की मृत्यु के दो दशक के भीतर बहमनी साम्राज्य का तीव्र गति से पतन प्रारंभ हो गया। महमूद गवाँ को मृत्युदंड देने के एक वर्ष के भीतर ही, सुल्तान मुहम्मद तृतीय की मृत्यु हो गयी। इसके बाद समस्त बहमनी साम्राज्य आंतरिक षङयंत्र, विद्रोह एवं अव्यवस्था से ग्रस्त हो गया। अगले सुल्तान शिहाबुद्दीन महमूद के शासनकाल (1482-1518) ई. में प्रांतीय तराफदारों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करना प्रारंभ कर दिया और पंद्रहवीं शताब्दी के अंत तक बहमनी साम्राज्य खंडित हो गया। भूतपूर्व सुल्तान मुहम्मद शाह तृतीय ने निजामुलमुल्क को प्रधानमंत्री बनाया था और चूँकि उसके उत्तराधिकारी पुत्र की आयु केवल बारह वर्ष की थी अतः निजाम को उसने रीजेंट या मलिक नायब बनाया। परंतु यूसुफ आदिल एवं फतेहउल्ला खाँ इमादुलमुल्क इस व्यवस्था के विरोधी थे। इससे बीदर में गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी और चार दिन तक बीदर में कत्लेआम होता रहा। शिहाबुद्दीन के प्रारंभिक चार वर्षों में शासन निजामुलमुल्क के हाथों में केंद्रीभूत रहा। परंतु सुल्तान अब दक्खिनियों के अत्याचार से मुक्त होना चाहता था। तभी तो तेलंगाना अभियान के दौरान उसने निजामुलमुल्क की हत्या करवा डाली। तदुपरांत सुल्तान का झुकाव अफाकी दल की ओर हो गया। इसके प्रत्युत्तर में दक्खिनी दल हब्शियों के साथ जा मिला और उन्होंने सुल्तान की हत्या का षङयंत्र रचा। परंतु अफाकियों की निष्ठा के कारण उसके जीवन की रक्षा हो गयी। इस पर भी सुल्तान ने अफाकी अधिकारियों के नरसंहार का आदेश दे दिया। इस नरसंहार ने बहमनी साम्राज्य को पतने के बिंदु पर ला दिया। बीदर के कोतवाल कासिम वरीद ने सुल्तान को अपने हाथ की कठपुतली बना लिया और इसके बाद शीघ्र ही बहमनी साम्राज्य पाँच खंडों में विभाजित हो गया। अहमद निजामुलमुल्क ने अहमद नगर में निजामशाही वंश, यूसुफ आदिल ने बीजापुर में आदिलशाही वंश, फतहउल्ला खाँ इमादउलमुल्क ने बररी इमादशाही वंश और कुत्बुलमुल्क ने गोलकुंडा में कुतुबशाह वंश की स्थापना की। बहमनी सुल्तान कासिम बरीद के हाथों में पहले से ही कैद था। यद्यपि 1526 ई. तक तो बहमनी सुल्तान का हम उल्लेख पाते हैं, तथापि महमूद गवाँ की मृत्यु के बाद बहमनी सुल्तानों की सत्ता केवल नाममात्र की रह गयी थी।ऐसी स्थिति में परवर्ती बहमनी सुल्तान केवल कासिम बरीद एवं उसके उत्तराधिकारियों की कठपुतली मात्र रह गए थे।

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