अशोक का न्याय प्रशासन कैसा था
न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में अशोक ने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सुधार किये।धौली तथा जौगढ के प्रथम पृथक शिलालेखों में वह नगर-व्यवहारिकों को आदेश देता है, कि वे बिना उचित कारण के किसी को कैद अथवा शारीरिक यातनायें न दें।
धौली तथा जौगढ के पृथक शिलालेख।
वह उन्हें ईर्ष्या, क्रोध, निष्ठुरता, अविवेक, आलस्य आदि दुर्गुणों से मुक्त रहते हुये निष्पक्ष मार्ग का अनुकरण करने का उपदेश देता है। वह उन्हें याद दिलाता है, कि अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करने से वे स्वर्ग प्राप्त करेंगे तथा राजा के ऋण से भी मुक्त हो जायेंगे।
5वें शिलालेख से पता चलता है, कि धर्ममहामात्र कैद की सजा पाये हुये व्यक्तियों का निरीक्षण करते थे। यदि उन्हें अकारण दंड मिला होता था तो वे मुक्त कर सकते थे। अपराधी का परिवार यदि बङा होता थो तो उसे धन देते थे अथवा यदि अपराधी अधिक वृद्ध होता था तब भी उसे स्वतंत्र करा देते थे। अशोक प्रति 5वें वर्ष न्यायाधीशों के कार्यों की जाँच के लिये महामात्रों को दौरे पर भेजा करता था। न्याय-प्रशासन में एकरूपता लाने के लिये अशोक ने अपने अभिषेक के 26वें वर्ष राजुकों को न्याय संबंधी मामलों में स्वतंत्र अधिकार प्रदान कर दिया।
अब वे अपनी विवेकशक्ति के अनुसार अपराधी पर अभियोग लगा सकते तथा उसे दंडित कर सकते थे। इसके पूर्व प्रादेशिक तथा नगर-व्यवहारिक भिन्न-2 प्रदेशों में न्याय का कार्य करते थे। इससे निर्णय संबंधी भेदभाव बना रहता था।
अतः इस दोष को दूर करने के लिये राजुकों को न्यायप्रशासन के क्षेत्र में सर्वेसर्वा बना दिया गया तथा अन्य दो अधिकारियों को इससे मुक्त रखा गया। 4 स्तंभलेख में अशोक कहता है – मैंने उन्हें (राजुकों को) न्यायिक अनुसंधान तथा दंड में स्वतंत्र कर दिया है, जिससे वे निर्भय होकर विश्वास के साथ अपना कार्य करें। वे सुख तथा दुःख के मूल कारणों का पता करें तथा जनपद के लोगों एवं निष्ठावानों को प्रेरित करें ताकि इहलोक और परलोक में सुख मिल सके। इस प्रकार न्याय-प्रशासन में दंडसमता एवं व्यवहारसमता स्थापित हो गयी।
अशोक ने दंडविधान को उदार बनाने का प्रयास किया। यद्यपि उसने मृत्युदंड समाप्त नहीं किया फिर भी मृत्युदंड पाये हुये व्यक्तियों को तीन दिनों की राहत दी जाती थी, ताकि वे अपने अपराधों पर पश्चाताप कर सकें तथा अपना पारलौकिक जीवन सुखमय बना सकें।
इस अवधि में उनके सगे संबंधी दंड को कम कराने के लिये राजुकों के पास आवेदन भी कर सकते थे। उसने अनेक अमानवीय यातनाओं को भी बंद करवा दिया।
इस प्रकार अशोक सच्चे अर्थों में जनहितैषी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य में प्रतिवेदक (सूचना देने वाले) नियुक्त किये थे, तथा उन्हें स्पष्ट आदेश दिया था, कि प्रत्येक समय तथा प्रत्येक स्थान में चाहे मैं भोजन करता रहूँ, अन्तःपुर, शयनकक्ष, ब्रज (पशुशाला) में रहूँ, पालकी पर रहूँ, उद्यान में रहूँ, सर्वत्र जनता के कार्य की सूचना दें।
मैं सर्वत्र जनता का कार्य करता हूँ। इसी प्रकार प्रथम पृथक शिलालेख में वह प्रजा के प्रति अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए कहता है, सभी मनुष्य मेरी संतान हैं। जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिये इच्छा करता हूँ, कि वे सभी इलहौकिक तथा पारलौकिक हित और सुख से संयुक्त हों, उसी प्रकार सभी मनुष्यों के लिये मेरी इच्छा है।
गिरनार लेख से पता चलता है, कि अशोक ने अपने साम्राज्य के प्रत्येक भाग में मनुष्यों तथा पशुओं के लिये अलग-2 चिकित्सालयों की स्थापना करवायी थी। जो औषधियाँ देश में प्राप्त नहीं थी, उन्हें बाहर से मँगवाकर स्थापित करवाया गया।अशोक के वृहद शिलालेख कौन-2 से हैं?
Reference : https://www.indiaolddays.com/