इतिहासगुप्त कालप्राचीन भारत

गुप्तों का आर्थिक जीवन कैसा था

गुप्त राजाओं का शासन काल आर्थिक दृष्टि से समृद्धि एवं सम्पन्नता का काल था। कृषि की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया गया। अमरकोश में लोहे से बने हलके फाल के लिये पांच नाम दिये गये हैं, जिससे पता चलता है,कि यह महत्त्वपूर्ण कृषि उपकरण सर्वसुलभ था। तथा इसका उपयोग भूमि जोतने के लिये किया जाता था।

कालिदास ने कृषि तथा पशुपालन को राष्ट्रीय संपत्ति का एक बङा साधन निरूपित किया है। धान, गेहूँ, गन्ना, जूट, तिलहन, कपास, ज्वार-बाजरा, मसाले, धूप, नील आदि उत्पन्न किये जाते थे। सिंचाई की समुचित व्यवस्था थी। उद्योग-धंधे उन्नति पर थे। कपङे का निर्माण करना इस काल का सर्वप्रमुख उद्योग था, जिससे बहुसंख्यक लोगों को जीविका मिलती थी। इसके अतिरिक्त हाथी-दाँत की वस्तुएं बनाना, मूर्तिकारी, चित्रकारी, शिल्प-कार्य, मिट्टी के बर्तन बनाना, जहांजों का निर्माण आदि इस समय के कुछ अन्य उद्योग-धंधे थे।

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गुप्त युग में व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। व्यवसाय के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। व्यवसाय एवं उद्योग का संचालन श्रेणियाँ करती थी। श्रेणी एक ही प्रकार के व्यवसाय अथवा शिल्प का अनुसरण करने वाले लोगों की समिति होती थी। मंदसोर के लेख में पट्टवायश्रेणी (रेशमी सूत बुनने वालों की समिति) तथा इंदौर लेख में तैलिक श्रेणी का उल्लेख मिलता है।

श्रेणियाँ बंकों का भी काम करती थी, और इस रूप में अपने सदस्यों को सूद पर धन देती थी। प्रत्येक श्रेणी का एक प्रधान तथा चार या पाँच व्यक्तियों की एक कार्यकारिणी होती थी। बृहस्पति स्मृति से पता चलता है, कि ईमानदार, वेदों तथा अपने कर्त्तव्यों के ज्ञाता योग्य, आत्मसंयमी और कुलीन व्यक्ति ही श्रेणियों के प्रबंध अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। श्रेणियां स्वायत्तशासी संस्थायें थी, जिनके अपने नियम और कानून होते थे।

राज्य सामान्य तौर से उनका सम्मान करता था। स्मृतियों में राजा को निर्देश दिया गया है, कि वह श्रेणियों के रीति-रिवाजों का पालन करवाये। अपने सदस्यों के झगङों का निपटारा वे स्वतः करती थी। प्रत्येक श्रेणी के पास अपनी अलग – अलग मुहर होती थी। वैशाली से एक संयुक्त श्रेणी की 274 मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। इसमें साहूकार, व्यापारी तथा सौदागर सम्मिलित हैं। व्यापार व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हुआ। गुप्त राजाओं ने सोने, चाँदी, ताँबे के बहुसंख्यक सिक्के चलवाये। इस समय सोने तथा चांदी के सिक्कों का अनुपात 1ः16 था। सामान्य लेन-देन कौङियों में होता था।

व्यापारिक विकास

गुप्त युग में व्यापारिक प्रगति हुई। लंबी एवं चौङी सङकों द्वारा प्रमुख नगर जुङे हुये थे। भङौंच, उज्जयिनी, प्रतिष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशांबी आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी द्वितीय राजधानी के रूप में विकसित किया था। इसने शीघ्र ही वैभव तथा समृद्धि में पाटलिपुत्र का स्थान ले लिया।

मृच्छकटिकम से पता चलता है,कि यहाँ एनेक धनाढ्य श्रेष्ठि तथा सौदागर निवास करते थे। माल ढोने के लिये गाङियों तथा जानवरों का प्रयोग किया जाता था। गंगा, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी नदियों द्वारा भी व्यापार होता था। भारतीयों ने मालवाहक जहांजों का निर्माण किया था।

कुछ जहांजों में एक साथ 500 तक व्यक्ति बैठ सकते थे। विविध प्रकार के कपङे, मसाले, खाद्यान्न, नमक, बहुमूल्य पत्थर आदि सामग्रियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाई जाती थी। इस समय बंगाल में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह था, जहाँ से चीन, लंका, जावा, सुमात्रा आदि देशों के साथ व्यापार होता था।

पश्चिमी भारत का प्रमुख बंदरगाह भृगुकच्छ (भङौच) था, जहाँ से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होता था।

स्थल मार्ग के द्वारा भी भारत का व्यापार यूरोप के साथ होता था। दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न देशों के साथ भी भारत का व्यापार उन्नति पर था। कपङे, बहुमूल्य पत्थर, हाथी-दाँत की विस्तुएँ, गरम मसाले, नारियल, सुगंधित द्रव्य, नील, दवायें आदि निर्यात की प्रमुख वस्तुएँ थी।

व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान को माल लेकर जाते समय समूह में चलते थे। इसे सार्थ तथा इसके नेता को सार्थवाह कहा जाता था। व्यापारियों की समिति भी होती थी, जिसे निगम कहा जाता था। निगम का प्रधान श्रेष्ठि कहलाता था।

रोम के साथ व्यापारिक संबंध-

रोम के साथ स्थल मार्ग से व्यापार किया जाता था। तथा यह चौथी शदी में इतना अधिक विकसित हुआ कि सिल्क जो आर्लियन के काल (161-80 ईस्वी) में सोने से तौल कर बिकता था। तथा धन एवं कुलीन वर्ग की विलासिता की वस्तु था, वह जूलियन के काल (361-63 ईस्वी) में इतना सस्ता हो गया कि सामान्य मुनष्य भी उसे खरीद सकता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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