मौर्य सम्राट अशोक का धम्म क्या था
अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिये अशोक ने जिन आचारों की संहिता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखों में धम्म कहा गया है। धम्म संस्कृत के धर्म का ही प्राकृत रूपांतर है, परंतु अशोक के लिये इस शब्द का विशेष महत्त्व है। वस्तुतः यदि देखा जाये तो यही धम्म तथा उसका प्रचार अशोक के विश्व इतिहास में प्रसिद्ध होने का सर्वप्रधान कारण है।अशोक की मृत्यु कब हुई?
अपने दूसरे स्तंभ-लेख में अशोक स्वयं प्रश्न करता है – कियं चु धम्मे? (धम्म क्या है?)। इसका उत्तर वह दूसरे एवं सातवें स्तंभ लेखों में स्वतः देता है। वह हमें उन गुणों को गिनाता है, जो धम्म का निर्माण करते हैं। इन्हें हम इस प्रकार रख सकते हैं –
अपासिनवेबहुकयानेदयादानेसचेसोचयेमाददेसाधवे अर्थात् धम्म-
- अल्प पाप (अपासिनवे) है।
- अत्यधिक कल्याण (बहुकयाने) है।
- दया है।
- दान है।
- सत्यवादिता है।
- पवित्रता (सोचये) है।
- मृदुता (मादवे) है।
- साधुता (साधवे) है।
इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिये निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं –
- अनारंभो प्राणानाम् (प्राणियों की हत्या न करना)।
- अविहिंसा भूतानाम् (प्राणियों को क्षति न पहुँचाना)।
- मातरि-पितरि सुस्रूसा (माता-पिता की सेवा करना)।
- थेर सुस्रूसा (वृद्धों की सेवा करना)।
- गुरूणाम अपचिति (गुरुजनों का सम्मान करना)।
- मित संस्तुत नाटिकानां बहमण-समणांना दानं संपटिपति (मित्रों, परिचितों, ब्राह्मणों तथा श्रमणों के साथ अच्छा व्यवहार करना)।
- दास-भतकम्हि सम्य प्रतिपति(दासों एवं नौकरों के साथ अच्छा बर्ताव करना)।
- अप – व्ययता (अल्प व्यय)।
- अपभांडता (अल्प संचय)।
ये धम्म के विधायक पक्ष हैं। इसके अतिरिक्त अशोक के धम्म का एक निषेधात्मक पक्ष भी है, जिसके अंतर्गत कुछ दुर्गुणों की गणना की गयी है। ये दुर्गुण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं। इन्हें आसिनव शब्द में व्यक्त किया गया है। आसिनव को अशोक तीसरे -स्तंभ-लेख में पाप कहता है। मनुष्य आसिनव के कारण सद्गुणों में विचलित हो जाता है। उसके अनुसार निम्नलिखित दुर्गुणों से आसिनव हो जाते हैं-
- चंडिये अर्थात् प्रचंडता।
- निठुलिये अर्थात् निष्ठुरता।
- कोधे अर्थात् क्रोध।
- मनो अर्थात् घमंड।
- इस्सा अर्थात् ईर्ष्या।
अतः धम्म का पूर्ण परिपालन तभी संभव हो सकता है, जब मनुष्य उसके गुणों के साथ ही साथ इन विकारों से भी अपने को मुक्त रखे। इसके लिये यह भी आवश्यक है, कि मनुष्य सदा आत्म-निरीक्षक करता रहे ताकि उसे अधः पतन के मार्ग में अग्रसर करने वाली बुराइयों का ज्ञान हो सके।
तभी धम्म की भावना का विकास हो सकता है। धम्म के मार्ग का अनुसरण करने वाला व्यक्ति स्वर्ग की प्राप्ति करता है और उसे इहलोक तथा परलोक दोनों में पुण्य की प्राप्ति होती है।
धम्म तथा उसके उपादान अशोक को बहुत प्रिय थे। साधारण मनुष्यों में धम्म को बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से वह इसकी तुलना भौतिक जीवन के विभिन्न आचरणों से करता है, तथा धम्म को उनमें सर्वश्रेष्ठ घोषित करता है। नवें शिलालेख में वह मानव जीवन के विविध अवसरों पर किये जाने वाले मंगलों का उल्लेख करता है तथा उन्हें अल्पफल वाला बताता है। उनके अनुसार धम्म-मंगल महाफल वाला है।
यह दासों तथा नौकरों के साथ उचित व्यवहार, गुरुजनों के प्रति आदर, प्राणियों के प्रति दया आदि आचरणों में प्रकट होता है। शिलालेख 11 में धम्मदान की तुलना सामान्य दान से की गयी है। तथा धम्मदान को श्रेष्ठतर बताया गया है।
धम्मदान का अर्थ है – धम्म का उपदेश देना, धम्म में भाग लेना तथा धम्म से अपने को संबोधित कर लेना। इसी प्रकार तेरहवें शिलालेख में अशोक सैनिक विजय की तुलना धम्म-विजय से करता है। इस प्रसंग में वह कलिंग विजय में होने वाली व्यापक हिंसा एवं संहार की घटनाओं पर भारी पश्चाताप करता है। उसके अनुसार प्रत्येक सैनिक-विजय में घृणा, हिंसा एवं हत्या की घटनायें होती हैं। इसके विपरीत धम्म-विजय प्रेम, दया, मृदुता एवं उदारता आदि से अनुप्राणित होती हैं।कलिंग कहाँ स्थित है ? कलिंग के युद्ध के परिणाम।
Reference : https://www.indiaolddays.com/