इतिहासगुप्तोत्तर कालप्राचीन भारत

बलभी का मैत्रक वंश

550 ईस्वी अर्थात् ईसा की 6वीं शता. के मध्य शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गया। गुप्त साम्राज्य के पतन ने एक बार पुनः भारतीय राजनीति में विकेन्द्रीकरण और विभाजन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित किया। अनेक स्थानीय सामंतों एवं शासकों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और सत्ता की दौड में तेजी से आगे बढे।

हर्ष के उदय के समय तक उत्तर तथा पश्चिम भारत की राजीनीति में निम्नलिखित शक्तियाँ विशेष रुप से सक्रिय थी-

  • बलभी के मैत्रक,
  • पंजाब के हूण,
  • मालवा का यशोधर्मन्,
  • मगध और मालवा के उत्तरगुप्त,
  • कन्नौज के मौखरि

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बलभी का मैत्रक वंश

बलभी के मैत्रक वंश की स्थापना भट्टार्क नामक व्यक्ति ने की थी, जो गुप्तों के समय में एक सैनिक पदाधिकारी था। ईसा की पाँचवी शती के अंत तक उसके उत्तराधिकारियों ने सुराष्ट्र (काठियावाङ) में अपना शक्तिशाली राज्य स्थापित कर लिया। इस वंश के प्रारंभिक नरेश गुप्त सम्राटों के सामंत थे।

भारत में आकर उन्होंने ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्मों को अपना लिया।

मैत्रक वंश के शासक

मैत्रक वंश के प्रारंभिक दो राजा-

  1. भट्टार्क
  2. भट्टार्क के पुत्र धरसेन

अपने आप को सेनापति कहते थे। इतिहास में धरसेन के उत्तराधिकारियों को महाराज अथवा महासामंत कहा गया है।

द्रोणसिंह

इस वंश का तीसरा राजा द्रोणसिंह था। उसके बारे में कहा गया है, कि वह अपने सार्वभौम शासक (गुप्त शासक) द्वारा महाराज के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। यह सार्वभौम शासक बुधगुप्त था।

बुधगुप्त का इतिहास।

ध्रुवसेन प्रथम

द्रोणसिंह के बाद उसका भाई ध्रुवसेन प्रथम महाराज बना। इन दोनों ने भूमि दान में दी थी। वह अपने को परमभट्टारकपादानुध्यात कहता है, जिससे स्पष्ट है, कि ध्रुवसेन प्रथम के समय अर्थात् 545 ईस्वी तक बलभी के मैत्रक सम्राट गुप्तवंश की अधीनता स्वीकार करते थे।

ध्रुवसेन प्रथम के सोलह दान पात्र प्राप्त हुये हैं।

इसके बाद महाराज धरनपट्ट तथा फिर गुहसेन राजा हुये।

गुहसेन के दान पात्रों में परमभट्टारकपादानुध्यात का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे पता चलता है, कि 550 ईस्वी के आस-पास मैत्रक वंश गुप्त सम्राटों की अधीनता से मुक्त हो गया था। इसी समय गुप्तों का पतन भी हो गया।

गुहसेन के बाद उसका पुत्र धरसेन द्वितीय(571-590 ईस्वी) तथा फिर धरसेन द्वितीय का पुत्र विक्रमादित्य प्रथम धर्मादित्य (606-612 ईस्वी) मैत्रक वंश का राजा हुआ।

शिलादित्य

चीनी यात्री हुएनसांग मो-ला-पो (मालवा) के राजा शिलादित्य का उल्लेख करता है, जो एक बौद्ध था। इस प्रकार ऐसा स्पष्ट होता है, कि इस समय तक मैत्रकों का राज्य संपूर्ण गुजरात, कच्छ तथा पश्चिमी मालवा तक विस्तृत हो गया था तथा बलभी पश्चिमी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन गया था। हुएनसांग शिलादित्य के शासन की प्रशंसा करता है। उसके अनुसार वह एक योग्य तथा उदार शासक था। उसने एक बौद्ध मंदिर का निर्माण करवाया था।

धरसेन तृतीय

शिलादित्य प्रथम के बाद खरग्रह तथा फिर धरसेन तृतीय शासक हुये। उन्होंने 623 ईस्वी के लगभग तक राज्य किया।

इसके बाद ध्रुवसेन द्वितीय बालादित्य राजा हुआ। वह हर्ष का समकालीन था। उस के काल में हुएनसांग भारत आया था। उसके अनुसार वह उतावले स्वभाव तथा संकुचित विचार का व्यक्ति था, लेकिन बौद्ध धर्म में उसका विश्वास था। वह महाराजा हर्ष का दामाद था। उसका नाम ध्रुवभट्ट भी मिलता है। उसने हर्ष के कन्नौज और प्रयाग के धार्मिक समारोह में भाग लिया था।

ध्रुवसेन द्वितीय ने लगभग 629 ईस्वी से 640-41 ईस्वी तक शासन किया।

धरसेन चतुर्थ

ध्रुवसेन द्वितीय के बाद उसका पुत्र धरसेन चतुर्थ (646-650 ईस्वी) शासक बना। मैत्रक वंश का वह प्रथम शासक था, जिसने परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, चक्रवर्त्तिन् जैसी सार्वभौम नरेश की उपाधियाँ धारण की थी।

उसने गुर्जर प्रदेश (भङौंच) पर अधिकार कर लिया था।

मैत्रक वंश का अंतिम ज्ञात शासक शिलादित्य सप्तम है, जो 766 ईस्वी में शासन कर रहा था। इस प्रकार आठवीं शती के अंत तक बल्लभी का मैत्रक वंश स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। अंततः अरब आक्रमणकारियों ने मैत्रक वंश के राजा की हत्या कर बलभी को पूर्णतया नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

सिंध पर अरब आक्रमणकारियों के आक्रमण के कारण

मैत्रक वंशी शासकों का धर्म

मैत्रक वंशी नरेश बौद्ध धर्म में आस्था रखते थे तथा उन्होंने बौद्ध विहारों को दान दिया। उनके शासन काल में बलभी शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ एक विश्वविद्यालय था, जिसकी पश्चिमी भारत में वही प्रसिद्धि थी, जो पूर्वी भारत में नालंदा विश्वविद्यालय की थी।

सातवीं शती के चीनी यात्री इत्सिंग ने इस शिक्षा केन्द्र की प्रशंसा की है। उसके अनुसार यहाँ एक सौ विहार थे, जिनमें छः हजार भिक्षु रहते थे। देश के विभिन्न भागों से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। यहाँ न्याय, विधि, अर्थशास्त्र, साहित्य, धर्म आदि विविध विषयों की शिक्षा दी जाती थी। सातवीं शता. में यहाँ के प्रमुख आचार्य गुणमति और स्थिरमति थे। यहाँ पर्याप्त बौद्धिक स्वतंत्रता एवं धार्मिक सहिष्णुता थी। यहाँ के शिक्षित विद्यार्थी ऊँचे-2 प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किये जाते थे। इस विश्वविद्यालय का विनाश भी बलभी राज्य के साथ ही अरब आक्रमणकारियों द्वारा कर दिया गया।

शिक्षा के विख्यात केन्द्र होने के साथ ही साथ बलभी व्यापार तथा वाणिज्य का भी प्रमुख केन्द्र था।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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