इतिहासइस्लाम धर्ममध्यकालीन भारत

हिन्दू धर्म तथा इस्लाम का संबंध

हिन्दूओं तथा मुसलमानों के साथ-साथ रहने के कारण दोनों के धर्मों का भी एक दूसरे के ऊपर न्यूनाधिक प्रभाव पङा। ताराचंद के इस कथन से सहमत होना कठिन है, कि भारतीय धर्म में भक्ति-भावना, गुरु के सम्मान की भावना का विकास, धर्म के कर्मकाण्डीय पक्षों की उपेक्षा के सिद्धांत आदि के पीछे इस्लाम धर्म का ही प्रभाव था। यह भी उचित नहीं लगता कि शंकर का अद्वैतवाद का सिद्धांत इस्लामएकेश्वरवाद से लिया गया है। इन सिद्धांतों का मूल हमें प्राचीन हिन्दू धर्म में ही देखने को मिलता है। भक्ति तथा प्रपत्ति के सिद्धांत हमें विकसित रूप से भगवदगीता में प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार बौद्ध तथा शाक्त तथा सिद्ध मतों में गुरु के प्रति अतिशय सम्मान का भाव मिलता है। उपनिषदों में धर्म कर्मकाण्डीय पक्ष की आलोचना की गयी है। कालांतर में सिद्ध संप्रदाय के संतों ने भी धर्म के बाह्य कर्मकाण्डों की कङी निंदा की थी। जहाँ तक शंकर के अद्वैतवाद का प्रश्न है, उसे इस्लामी एकेश्वरवाद से संबंध करना कोरी कल्पना की उङान प्रतीत होता है। शंकर ने वेदों तथा उपनिषदों में वर्णित एकेश्वरवादी विचारधारा को ही पूर्णता प्रदान की तथा उनके मत के पीछे किसी प्रकार की इस्लामी प्रेरणा नहीं थी। यदि शंकर इस्लाम से तनिक भी प्रभावित होते तो वे मूर्ति-पूजा का खंडन अवश्य करते, जो इस्लाम धर्म का एक प्रमुख सिद्धांत है। ताराचंद ने स्वयं यह स्वीकार किया है, कि उनके इस निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिये कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।

यद्यपि हिन्दू धर्म के मूल तत्वों पर इस्लाम को कोई क्रांतिकारी प्रभाव नहीं पङा तथापि इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य रहा। इस्लामी प्रभाव के कारण हिन्दू धर्म के अंदर कुछ नवीन संप्रदायों का उदय हुआ। पूर्व मध्यकाल के भक्ति आंदोलन की इस्लाम के आगमन का अप्रत्यक्ष प्रभाव माना जा सकता है, क्योंकि भक्ति के मूल तत्व हिन्दू धर्म में बहुत पहले से ही विद्यमान रहे हैं।

कुछ विद्वान चैतन्य तथा बल्लभ के कृष्ण सम्प्रदाय के ऊपर इस्लाम के सूफी मत का प्रभाव बताते हैं, किन्तु यह विवादास्पद है। इसी प्रकार गेरेट की इस अवधारणा के पीछे भी कोई आधार नहीं है, कि आर्य समाज ने मूर्ति पूजा के विरोध तथा दूसरे धर्मावलंबियों को अपने मत में दीक्षित करने का सिद्धांत इस्लाम से ही ग्रहण किया था। हम जानते हैं, कि आर्य-समाज का उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म का पुनरुत्थान करना था और यही कारण है, कि इसने इस्लाम धर्म का विरोध किया।

मुसलमानों के साहचर्य से हिन्दुओं के मन में उनके धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे सूफी संतों का सम्मान करते थे।उन्होंने मुस्लिम पीरों तथा मजारों की पूजा करना प्रारंभ कर दिया। अजमेर के शेख मुइनुद्दीन चिश्ची के भक्तों में हिन्दुओं की संख्या ही अधिक थी। इस्लाम धर्म के उदार एवं जनवादी दृष्टिकोण ने हिन्दू धर्म की कट्टरता को कम किया, जिससे समाज के निम्न वर्गों के प्रति धार्मिक मामलों में नरम बर्ताव किया जाने लगा। शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति दे दी गयी। ऐसा लगता है, कि शैव मत का लिंगायत सम्प्रदाय इस्लाम धर्म से कुछ प्रभावित था। इस सम्प्रदाय के लोगों ने वेदों का खंडन किया तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। वे जाति-पांति को भी नहीं मानते थे तथा मुसलमानों के ही समान अपने मृतकों को दफनाते थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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