इतिहासप्राचीन भारत

पाल युगीन कला एवं स्थापत्य का इतिहास

पालवंशी नरेश महान निर्माता थे। नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी, सोमपुरी आदि में उनके द्वारा बौद्ध विहार एवं भवन बनवाये गये। तारानाथ के अनुसार इस वंश के संस्थापक राजा गोपाल ने नालंदा में बौद्ध विहार बनवाया था। उसने सोमपुरी तथा ओदंतपुरी में भी मठों का निर्माण करवाया था। सारनाथ लेख (वि.सं.1083 अर्थात् 1016 ई.) से पता चलता है, कि महीपाल ने काशी में सैकङों भवन एवं मंदिर स्थापित करने के लिये अपने भाइयों स्थिरपाल और वसंतपाल को रखा था।

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रामपाल ने रामावती नामक एक नया नगर बसाकर वहाँ भवन तथा मंदिर बनवाये थे। 8 वी. शता. के बाद धर्मपाल ने विक्रमशिला महाविहार की स्थापना करवायी थी तथा वहाँ अनेक व्याख्यान कक्ष बनवाये थे। पालयुगीन भवन एवं स्मारकों के अवशेष पहाङपुर की खुदाई में प्राप्त होते हैं। यहाँ से एक विशाल मंदिर का अवशेष मिलता है, जो उत्तर – दक्षिण में 356 फुट तथा पूरब-पश्चिम में 314 फुट लंबा है। इसी स्थान पर सोमपुर विहार स्थित था। इस मंदिर में कई चबूतरे हैं। भवन के चारों ओर चौङे मुंडेरे से घिरा हुआ प्रदक्षिणापथ है। प्रथम दो चबूतरों पर चढने के लिये सीढियां बनाई गयी हैं। मध्य भाग में वर्गाकार मिट्टी का थूहा था, जो चबूतरों से ऊपर उठा हुआ है। दीवारें सूखे ईंट की बनी हुयी हैं। इन ईंटों को गारे से जोङा गया है। ईंट-गारे के मंदिर आज भी भूतल से 70 फुट की ऊंचाई पर विद्यमान हैं। इस मंदिर का निर्माण धर्मपाल के शासनकाल में करवाया गया था। मार्शल के अनुसार यह गर्भचैत्य से युक्त था। जबकि आर.डी.बनर्जी ने इसे खुले छत वाला प्रकोष्ठ कहा है। इस प्रकृति का दूसरा मंदिर इतिहास में नहीं दिखाई देता है। बी.डी.चट्टोपाध्याय हमारा ध्यान बृहत्संहिता एवं मत्स्यपुराण में उल्लेखित सर्वतोभद्र नामक भवन की ओर आकर्षित करते हैं, जिसमें चौकोर गर्भगृह, प्रत्येक दिशा में प्रवेश द्वार तथा चारों कोनों में छोटे कक्ष बने होते थे। इसे चतुःशाला गृह कहा जाता था। पहाङपुर का मंदिर इसी प्रकार का लगता है। इसमें कई चबूतरे हैं। प्रत्येक एक मंजिल की ऊँचाई वाला है तथा इसके चारों ओर पूजागृह निर्मित है। इस मंदिर का प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया तथा बर्मा के मंदिरों पर भी पङा। पाल शासकों ने बर्दवान जिले में भी मंदिर बनवाये थे। इस जिले के बरकर नामक स्थान पर मंदिरों का समूह है, जिनका निर्माण 10वी.11वी. शता. में करवाया गया था। इस समूह में सिद्धेश्वर मंदिर सबसे अलंकृत है।

ये ईंटों के बने हैं तथा इनका समस्त बाहरी भाग भी ईंटों से ही ढका है। दीवारों की संपूर्ण सतह पर मृण्मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। प्रचुर सज्जा केवल रेखाओं का लालित्य प्रकट करती है। कुछ मंदिर बंगाल की देशी शैली जिसमें बांस की सहायता से झोपङियाँ तैयार की जाती थी, के अनुकरण पर भी बनाये गये हैं। मंदिर के बाहरी भाग में उभरी हुयी मिट्टी की मूर्तियों के चौकोर खंड (फलक मूर्तियों) लगाये गये हैं। वक्र कंगूरे तथा ओतली इनकी खास विशेषता है, जिन्हें बास निर्मित झोंपङियों से सीधे ग्रहण किया गया है। सामान्य लोग बांस के छप्पर वाली झोपङियों के ऊपर दोनों ओर ढालू छज्जे निकालते थे, ताकि बार-2 होने वाली वर्षा के पानी को आसानी से बहाया जा सके। यह प्रथा दक्षिणी बंगाल में अधिक प्रचलित थी। इसी का अनुकरण मंदिरों में भी किया गया। ऐसे मंदिरों का निर्माण संभवतः मल्ल राजाओं के समय में करवाया गया, जो मंदिर निर्माण के प्रेमी थे। विष्णुपुर में इस प्रकार के मंदिर समूह के ध्वंसावशेष मिले हैं। इनके बाह्य दीवारों में खुदी हुयी मृण्मूर्तियाँ लोक-जीवन एवं अभिरुचि के विविध पक्षों पर सुंदर प्रकाश डालती हैं।

इस प्रकार पाल वास्तुकला इतिहास में सर्वथा नया प्रतिमान स्थापित करती है।

तक्षण कला के क्षेत्र में भी पालकालीन कलाकारों ने एक सर्वथा नवीन शैली का सूत्रपात किया, जिसे मगध वंग शैली कहा जाता है। तारानाथ इसे पूर्वी भारतीय शैली की संज्ञा देते हैं, तथा इसका प्रवर्त्तक धीमान तथा विपत्तपाल को मानते हैं। इसकी विशेषता यह है, कि इसमें चिकने काले रंगा के कसौटी वाले पाषाण तथा धातुओं की सहायता से मूर्तियों का निर्माण किया गया है। बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म से संबंधित अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। ये बिहार एवं बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों से मिलती हैं। नालंदा, बोधगया, पटना, लखनऊ एवं लंदन, पेरिस, बर्लिन आदि संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

ये सभी मूर्तियाँ हाथ से बनायी जाती थी। इस समय के कलाकारों ने अपने शिल्प में गरिमा को समेटने का प्रयास किया है, लेकिन पालकालीन मूर्तियों में सहज सौन्दर्य दिखाई नहीं देता, जो गुप्तकालीन मूर्तियों में दिखाई देता है। पाल मूर्तियों में मौलिकता का भी अभाव है। मूर्तियों को आभूषणों से लाद दिया गया है, जिससे कृत्रिमता का स्पष्ट आभास मिलता है। पाल शैली की मूर्तियों में किरीट, मुकुट, हार, कंगन बाजूबंद आदि दिखाई देते हैं। अंग-प्रत्यंग का चपल आभंग इस शैली की विशेषता बन गयी है। देव मूर्तियों में मानवीय सौन्दर्य को आकर्षक ढंग से उभारने का प्रयत्न किया गया है। तंत्रपान के प्रभाव से पुरुष मूर्तियों के शरीर में नारी सौन्दर्य को आकर्षक ढंग से उभारने का प्रयत्न किया गया है। बोधिसत्व तथा दूसरे देवताओं की मूर्तियों में नारी सौन्दर्य तथा शक्ति का समावेश दिखायी देता है। कुछ मूर्तियों को देखने से धार्मिक असहिष्णुता एवं कट्टरता का आभास मिलता है। अनेक बुद्ध मूर्तियों को हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित करते हुये दिखाया गया है। गणेश, पार्वती, भैरव जैसे देवता बौद्ध मूर्तियों द्वारा मर्दित होते हुये प्रदर्शित किये गये हैं, जिससे द्वेष एवं कट्टरता की भावना उजागर होती है। इस दृष्टि से पाल कला में भारतीय संस्कृति में व्याप्त सहिष्णुता एवं समन्वयवादिता नहीं दिखायी देती है।

इस प्रकार पालकालीन वास्तु एवं तक्षण कला के जो थोङे बहुत नमूने मिलते हैं, उनके आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है, कि यह साधारण कोटि की थी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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