दक्षिण भारत में प्रागैतिहासिक काल
उत्तर भारत के ही समान दक्षिण भारत में भी मानव सभ्यता का प्रारंभ पाषाणकाल से ही हुआ था। सबसे पहले 13 मई, 1863 ई. में भारतीय सर्वेक्षण विभाग के विद्वान राबर्ट ब्रुसफुट ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल के एक पाषाणोपकरण (क्लीवर) की खोज की। उसके बाद डी.टेरा पीटरसन, कृष्णास्वामी,एच.डी. संकालिया, अल्चिन आदि विद्वानों ने खोज की परंपरा जारी रखी, जिसके परिणामस्वरूप प्रागैतिहासिक मानव द्वारा प्रयुक्त उपकरणों तथा उसकी सभ्यता के विषय में जानकारी बढी। आज से लगभग दो लाख वर्ष पूर्व मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्रों में मानव सभ्यता का प्रारंभ हो चुका था।
प्रागैतिहासिक काल एवं आद्यैतिहासिक काल।
मद्रास से जो भी पाषाणोपकरण मिले हैं, वे मुख्यतः हस्तकुठार (हैण्डऐक्स) तथा तराशने के उपकरण (क्लीवर्स) हैं।इन्हें मद्रास के समीप बदमदूरै तथा अत्तिरपक्कम् से प्राप्त किया गया है। ये साधारण पत्थरों से कोर तथा फ्लेक प्रणाली द्वारा निर्मित किये गये हैं। इन्हें मद्रासीय संस्कति नाम दिया जाता है।
इस संस्कृति के उपकरण सर्वाधिक मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुये हैं। इसी कारण इसे मद्रासीय संस्कृति भी कहा जाता है। सर्वप्रथम 1863 ईस्वी में रावर्ट ब्रूसफुट ने मद्रास के पास पल्लवरम् नामक स्थान से पहला हैन्डऐक्स प्राप्त किया था। उनके मित्र किंग ने अतिरमपक्कम् से पूर्व पाषाणकाल के उपकरण खोज निकाले। इसके बाद डी.टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने इस क्षेत्र में अनुसंधान प्रारंभ किया। वी.डी. कृष्णास्वामी, आर.वी.जोशी तथा के.डी.बनर्जी जैसे विद्वानों ने भी इस क्षेत्र में अनुसंधान का कार्य किया है।
दक्षिणी भारत की कोर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक सामग्रियों के लिये महत्त्वपूर्ण है। इसकी घाटी में स्थित वदमदूरै नामक स्थान से निम्न पूर्व पाषाणकाल के बहुत से उपकरण मिले हैं। जिनका निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है। वदमदुरै के पास कोर्तलयार नदी की तीन वेदिकायें मिली हैं। इन्हीं से उपकरण एकत्र किये गये हैं।
इन वेदिकाओं को तीन भागों में बाँटा गया है-
सबसे नीचे की वेदिका को बोल्डर काग्लोमीरेट कहा जाता है। इससे कई हथियार तथा औजार मिलते हैं। इन्हें भी दो श्रेणियों में रखा गया है। प्रथम श्रेणी में भारी तथा लंबे हैन्डऐक्स और कोर उपकरण हैं। इन पर सफेद रंग की काई जमी हुई है। इन उपकरणों के निर्माण के लिये काफी मोटे फलक निकाले गये हैं। हैन्डऐक्सों की मुठियों के सिरे काफी मोटे हैं। कोर उपकरणों के किनारे टेढे-मेढे हैं तथा उन पर गहरी फ्लेकिंग के चिन्ह दिखाई देते हैं। हैन्डऐक्स फ्रांस के अबेवीलियन परंपरा के हैन्डऐक्सों के समान हैं।
द्वितीय श्रेणी में भी हैन्डऐक्स तथा कोर उपकरण ही आते हैं, किन्तु वे कलात्मक दृष्टि से अच्छे हैं। इन पर सुव्यवस्थित ढंग से फलकीकरण किया गया है।
दूसरे वर्ग के उपकरण कलात्मक दृष्टि से विकलित तथा सुंदर हैं। चूँकि बीच की वेदिका लाल रंग के पाषाणों से निर्मित हैं, इस कारण इनके संपर्क से उपकरणों का रंग भी लाल हो गया है। इस कोटि के हैन्डऐक्स चौङे तथा सुडौल हैं। इन पर सोपान पर फलकीकरण अधिक हैं। तथा पुनर्गठन के भी प्रमाण मिलते हैं। इन्हें मध्य अश्यूलियनकोटि में रखा गया है। तीसरे वर्ग के उपकरणों का रंग न तो लाल है तथा न उनके ऊपर काई लगी हुई है। तकनीकी दृष्टि से ये अत्यन्त विकसित हैं। अत्यन्त पतले फलक निकालकर इनको सावधानीपूर्वक गढा गया है। हैन्डऐक्स अण्डाकार तथा नुकीले दोनों प्रकार के हैं। वदमदुरै से कुछ क्लीवर तथा कोर उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।
कोर्तलयार-घाटी का दूसरा महत्त्वपूर्ण पाषाणिक स्थल अत्तिरम्पक्कम् है। यहाँ से भी बङी संख्या में हैन्डऐक्स, क्लीवर तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं, जो पूर्व पाषाणकाल से संबंधित हैं। हैन्डऐक्स पतले, लंबे, चौङे था फलक निकालकर तैयार किये गये हैं। यहां के हैन्डऐक्स अश्यूलियन प्रकार के हैं। भारत के अन्य भागों से भी मद्रासीय परंपरा के उपकरणों की खोज की गयी है। नर्मदा घाटी, मध्यप्रदेश की सोन घाटी, महाराष्ट्र की गोदावरी तथा उसकी सहायक प्रवरा घाटी, कर्नाटक की कृष्णा – तुंगभद्रा घाटी, गुजरात की साबरमती तथा माही नदी घाटी, राजस्थान की चंबल घाटी, उत्तर प्रदेश की सिंगरौली बेसिन, बेलन घाटी आदि से उपकरण मिलते हैं। ये सभी पूर्व पाषाणकाल की प्रारंभिक अवस्था के हैं।
आंध्र प्रदेश में नागार्जुन कोंड, गिद्दलूर तथा रेनिगुन्टा प्रमुख स्थल हैं, जहाँ से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में लाये गये हैं। कर्नाटक के बेल्लारी जिले में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान पर सुब्बाराव तथा संकालिया द्वारा क्रमशः 1946 तथा 1969 में खुदाइयाँ करवायी गयी, जिसके परिणामस्वरूप अनेक उपकरण प्राप्त हुए। तमिलनाडु के तिरुनेल्वेलि जिले में स्थित टेरी पुरास्थलों से भी बहुसंख्यक लघुपाषाणोपकरण मिलते हैं।
कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु से भी नव पाषाणकाल के कई पुरास्थल प्रकाश में आये हैं, जहाँ की खुदाइयों से इस काल के अनेक उपकरण, मृदभांड आदि प्राप्त किये गये हैं। कर्नाटक में स्थित प्रमुख पुरास्थल मास्की, ब्रह्मिगिरि, उतनूर, फलवाय एवं सिंगनपल्ली हैं। पैय्यपल्ली तमिलनाडु का प्रमुख पुरास्थल है। ये सभी कृष्णा तथा कावेरी नदियों की घाटियों में बसे हुए हैं। इन स्थानों से पालिशदार प्रस्तर कुल्हाहियां, सलेटी या काले रंग के मिट्टी के बर्तन तथा हड्डी के बने हुये कुछ उपकरण प्राप्त होते हैं। इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे। मिट्टी तथा सरकंडे की सहायता से वे अपने निवास के लिये गोलाकार अथवा चौकोर घर बनाते थे। हाथ तथा चाक दोनों से वे बर्तन तैयार करते थे। कुछ बर्तनों पर चित्रकारी भी की जाती थी। खुदाई में घङे, तश्तरी, कटोरे आदि मिले हैं। कुथली, रांगी, चना,मूंग आदि अनाजों का उत्पादन किया जाता था। गाय, बैल, भेङ, बकरी, भैंस, सूअर उनके प्रमुख पालतू पशु थे। दक्षिणी भारत के नव पाषाणयुगीन सभ्यता की तिथि ईसा पूर्व 2500 से 1000 के लगभग निर्धारित की जाती है।
नवपाषाणकालीन संस्कृति अपनी पूर्वगामी संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी। इस काल का मानव न केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही था, वरन् वह उनका उत्पादक भी बना। वह कृषि-कर्म से पूर्णतया परिचित हो चुका था। कृषिकर्म के साथ-साथ पशुओं को मनुष्य ने पालना भी प्रारंभ कर दिया। गाय, बैल, कुत्ता, घोङा, भेङ, बकरी आदि जानवरों से उनका परिचय बढ गया।
इस काल के मनुष्यों का जावन खानाबदोश अथवा घुमक्कङ न रहा। उसने एक निश्चित स्थान पर अपने घर बनाये तथा रहना प्रारंभ कर दिया। कर्नाटक प्रांत के ब्रह्मगिरि तथा संगलकल्लु (बेलारी) से प्राप्त नव-पाषाणयुगीन अवशेषों से पता चलता है, कि वर्षों तक मनुष्य एक ही स्थान पर निवास करता था। इस काल के मनुष्य मिट्टी के बर्तन बनाते थे तथा अपने मृतकों को समाधियों में गाङते थे। अग्नि के प्रयोग से परिचित होने के कारण मनुष्य का जीवन अधिक सुरक्षित हो गया था। कुछ विद्वानों का अनुमान है, कि इस युग के मनुष्य जानवरों की खालों को सीकर वस्र बनाना भी जानते थे।
ईसा पूर्व एक हजार के बाद दक्षिण भारत के प्रागैतिहासिक से संबंधित बहुत कम अवशेष हमें प्राप्त होते हैं। एक हजार ईसा पूर्व से प्रथम शता. ईस्वी के बीच हमें दक्षिण भारत में एक ऐसी संस्कृति का पता चलता है, जिसके निर्माता अपने मृतकों को सम्मानपूर्वक समादियों में गाङते थे तथा उनकी सुरक्षा के लिये बङे-बङे पत्थरों क उपयोग करते थे। इसी कारण इसे वृहत्पाषाणिक संस्कृति (मेगालिथिक कल्चर) कहा जाता है। सर्वप्रथम 1944 ईस्वी में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के वी.डी.कृष्णास्वामी के नेतृत्व में दक्षिण भारत की वृहत्पाषाणिक समाधियों की खोज की गयी, जिसके फलस्वरूप विद्वानों को इनके संबंध में विधिवत जानकारी प्राप्त हुई। 1947 ईस्वी में ह्वीलर ने ब्रह्मिगिरि (कर्नाटक में स्थित) की खुदाई से इनके विषय में प्रमाणिक विवरण प्रस्तुत कर दिया।
वृहत्पाषाणिक समाधियाँ आंध्र, कर्नाटक, केरल तथा तमिलनाडु के विभिन्न स्थानों से प्राप्त की गयी हैं। इनमें ब्रह्मगिरि, मास्की, संगनकल्लू, पिकलीहाल, नागार्जुनीकोण्डा, चिंगलपुत्त, शाणूर, कुन्नत्तूर, पैय्यमपक्की, कोकैई आदि प्रमुख हैं। वृहत्पाषाणिक संस्कृति के निर्माता काले तथा लाल रंग के बर्तनों का उपयोग करते थे। बर्तनों में थाली, कटोरे, घङे, मटके आदि मिलते हैं। इनका भीतरी तथा गर्दन का भाग काले रंग और शेष भाग लाल रंग का मिलता है। समाधियों की खुदाई में लोहे के औजार-हथियार जैसे – कुल्हाङी, फावङा, चाकू, छेनी, त्रिशूल, तलवार, कटार आदि प्रचुरता से मिलते हैं, जो इस बात का सूचक हैं, कि इस संस्कृति के लोग लोहे के व्यापक रूप से प्रयोग करते थे। वे कृषिकर्म तथा पशुपालन करते थे। कृषि द्वारा जौ, धान, चना, रागी आदि फसलें पैदा की जाती थी। गाय, बैल, भैंस, भेङ, बकरी आदि उनके प्रमुख पालतू पशु थे। कृषि क्षेत्र में लौह उपकरणों के प्रयोग के कारण पैदावार काफी बढ गयी होगी, जिससे उनका भौतिक जीवन अधिक सुखी एवं सुविधापूर्ण हो गया था।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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