इतिहासप्राचीन भारतसोलंकी वंश

सोलंकी वंश के शासक कुमारपाल का इतिहास

गुजरात के सोलंकी शासक जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था। उसकी मृत्यु के बाद कुमारपाल राजा बना। विभिन्न स्रोतों से उसके राज्यारोहण के पूर्व के जीवन के बारे में सूचना मिलती है, इन स्रोतों के अनुसार वह निम्न कुल (हीन उत्पत्ति) का था। इसी कारण जयसिंह उससे घृणा करता था। किन्तु जैन आचार्यों तथा मंत्री उदयन एवं सेनापति कान्हङदेव की सहायता से उसने राजगद्दी प्राप्त कर ली। बाद में वह कान्हङदेव (जो उसका बहनोई भी था) के व्यवहार से सशंकित हो उठा तथा उसे अपंग एवं अंधा करवाकर उसके घर भिजवा दिया। किन्तु मंत्री उदयादित्य उसका विश्वासपात्र बना रहा तथा उसे मुख्यमंत्री बना दिया गया।

कुमारपाल भी एक महान विजेता एवं कुशल योद्धा था। राज्यारोहण के बाद अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये उसने अपना सैनिक अभियान प्रारंभ कर दिया। उसकी विजयों का अत्यंत विस्तृत विवरण हेमचंद्र सूरि के कुमारपाल चरित में मिलता है। उसका पहला संघर्ष चाहमान शासक अर्णोराज के साथ हुआ। इसमें अर्णोराज का सहायक बाहङ, उदयन का दत्तक पुत्र था। बाहङ स्वयं सोलंकी गद्दी का दावेदार था। उसने जयसिंह के कुछ अधिकारियों को भी अपनी ओर मिला लिया था। दोनों कुमारपाल के विरुद्ध अभियान करते हुये गुजरात की सीमा तक चढ गये। किन्तु कुमारपाल ने बाहङ को बंदी बना लिया। जैन श्रोतों से पता चलता है, कि अर्णोराज के साथ उसका संघर्ष लंबा चला। इसमें कुमारपाल ने अर्णोराज को हराया था। अर्णोराज ने अपनी पुत्री जल्हणादेवी का विवाह उसके साथ कर मैत्री संबंध स्थापित किया।

कुमारपाल ने आबू तथा नड्डुल में अपनी ओर से सामंत शासक नियुक्त किये। चित्तौङगढ में सज्जन नामक उसका सामंत था। ऐसी स्थिति में अर्णोराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज चतुर्थ के साथ भी उसका संघर्ष अवश्यंभावी था। विग्रहराज ने चौलुक्यों को अपने क्षेत्रों से हटाने के लिये अभियान छेङ दिया। उसने चित्तौङगढ पर आक्रमण कर कुमारपाल द्वारा नियुक्त सामंत सज्जन को मार डाला तथा चौलुक्यों द्वारा पूर्व में जीते गये अपने कुछ अन्य प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। चाहमान लेखों में यह दावा किया गया है, कि विग्रहराज चतुर्थ ने कुमारपाल को पराजित कर दिया था। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है, कि दोनों के बीच एक प्रकार की संधि हो गयी। उसके बाद कुमारपाल ने उत्तर की ओर ध्यान दिया। जैन ग्रंथ हमें बताते हैं, कि कुमारपाल ने मालवा के शासक बल्लाल के ऊपर आक्रमण कर उसे मार डाला तथा कोंकण के शिलाहारवंशी शासक को युद्ध में जीता था। इस बल्लाल की पहचान निश्चित नहीं है, क्योंकि परमार लेखों में उसका नाम नहीं मिलता। ऐसा लगता है, कि वह कोई स्थानीय शासक था, जिसने मालवा पर अधिकार कर लिया था। कुमारपाल के विरुद्ध युद्ध में उसने चाहमान शासक अर्णोराज का साथ दिया था। शिलाहार वंश पराजित राजा मल्लिकार्जुन था।

कुमारपाल चरित से पता चलता है, कि आबू क्षेत्र के चंद्रावती में परमार वंश की कोई शाखा शासन करती थी। यहाँ का शासक विक्रमसिंह था, जिसने कुमारपाल के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। कुमारपाल ने वहाँ आक्रमण कर उसे बंदी बना लिया तथा अपनी ओर से उसके भांजे यशोधवल को राजा बना दिया। अब यशोधवल वहाँ कुमारपाल का सामंत बन गया। कुमारपाल को सुराष्ट्र में भी एक अभियान करना पङा। वहाँ का राजा सुम्बर था। मेरुतुंग के विवरण से पता चलता है, कि उसने कुमारपाल के प्रधानमंत्री उदयन को पराजित कर घायल कर दिया। किन्तु बाद में कुमारपाल ने उसे अपने नड्डल कु चाहमान सामंत आल्हदान की सहायता से पराजित कर दिया। संबर के पुत्र को सुराष्ट्र का राजा बनाया गया,जिसने चालुक्य नरेश की अधीनता मान ली थी।

कुमारपाल का धर्म

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार कुमारपाल जैन धर्म का अनुयायी था। उसने हेमचंद्र के प्रभाव में आकर जैन धर्म ग्रहण कर लिया था।

हेमचंद्र द्वारा रचित कुमारपाल चरित से पता चलता है, कि कुमारपाल ने अभक्ष नियम स्वीकार किया तथा अपना मन जैव धर्म में लगा लिया । कुमारपाल ने मास-मदिरा का त्याग कर दिया था तथा अपने राज्य में पशुओं की हत्या पर रोक लगा दी थी। राज्य में अहिंसा का पूरे जोर-शोर से प्रचार किया गया तथा उसके लिये राजाज्ञा प्रसारित कर दी गयी थी।

कुमारपाल स्वयं जैन तीर्थस्थलों में गया तथा चैत्य एवं मंदिरों का निर्माण करवाया। जैन धर्म के प्रभाव से उसने निःसंतान मरने वालों की संपत्ति का राज्य द्वारा अधिग्रहण कर लेने का अधिकार समाप्त कर दिया। सम्राट प्रतिदिन मंत्रों का जाप किया करता था। वह पूर्णतया जैन धर्म के प्रभाव में आ गया।

चैत्य किसे कहते हैं?

जैन धर्म के साथ ही साथ कुमारपाल शैव धर्म में भी विश्वास रखता था। उसने सोमनाथ के मंदिर में जाकर भगवान शिव की उपासना की थी तथा उसने कुछ शैव मंदिरों का भी निर्माण करवाया था। उसके सभी लेखों में शिव की स्तुति की गयी है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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