इतिहासमध्यकालीन भारत

जेजाकभुक्ति के चंदेल शासक

जेजाकभुक्ति के चंदेल प्रारंभिक चंदेल शासक नन्नुक, वाक्पति, जयशक्ति (जिसके नाम पर बुंदेलखंड का नाम जेजाकभुक्ति पङा), विजयशक्ति, राहिल और हर्ष कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों के सामंत थे। इस वंश के अधिकांश अभिलेख बांदा जिले (उत्तर प्रदेश) के कालिंजर तथा मध्यप्रदेश में स्थित खजुराहो, महोबा तथा अजयगढ में मिले हैं।

हर्ष (900-925ई.) के उत्तराधिकारी यशोवर्मन (925-50 ई.) के समय चंदेल राज्य ने पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली थी। उसने (राष्ट्रकूटों से) कालिंजर विजय करके अपने राज्य की सीमा यमुना तथा गंगा तक बढा ली। दक्षिण में यशोवर्मन ने त्रिपुरी के कलचुरी युवराज प्रथम तथा परमार सियक द्वितीय को हराकर अपने को चेदि तथा मालवा तक विस्तृत कर लिया। उसने दक्षिण कोसल के सोमवंशी शासकों को भी हराया और गौङ (बंगाल) तथा मिथिला पर भी विजय प्राप्त की थी। खजुराहो अभिलेख के अनुसार उसने खश (कश्मीर में लोहर राज्य) तथा कश्मीरी योद्धाओं से भी टक्कर ली थी। अभिलेख में उसे कुरु प्रदेश (जो प्रतिहारों के अधीन था) के लिए झंझावत और गुर्जरों के लिए अग्नि के समान कहा गया है। किंतु इस राजा की इतनी अधिक प्रशंसा ठीक नहीं है, क्योंकि इस राजा ने नाममात्र के लिए ही सही प्रतिहार शासक देवपाल की अधीनता स्वीकार की थी। यशोवर्मन को विष्णु की एक मूर्ति प्राप्त हुई थी जिसकी स्थापना के लिए उसने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था, जिसे खजुराहो का वर्तमान चतुर्भुज मंदिर माना जाता है। ऐसी स्थिति में खजुराहो अभिलेख में दिए गए विजय क्षेत्र में प्रशंसातिरेक के बावजूद चंदेल की शक्ति की अभिवृद्धि का आभास अवश्य होता है।

धंगदेव (950-1007 ई.)

धंगदेव अपने वंश का बहुत प्रसिद्ध शासक था। कालांतर में वह कन्नौज के प्रतिहारों की अधीनता से भी मुक्त हो गया था। महाराजाधिराज विरुद से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। धंग अपने पिता यशोवर्मन की ही भाँति महत्वाकांक्षी, पराक्रमी तथा वीर योद्धा था।

मऊ अभिलेख से पता चलता है, कि गंडदेव के पिता (धंग) ने कन्नौज के प्रतिहार नरेश को पराजित किया था। नन्योर अभिलेख के अनुसार उसने वाराणसी में ग्राम दान किए थे जो पहले प्रतिहार राज्य में थे। किंतु धंग के प्रसिद्ध खजुराहो अभिलेख में क्रथ (बरार के निकट), सिंघल (लंका ) तथा कांची के नरेशों को उसके द्वारा पराजित करने का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। यह सच है कि कोसल के सोमवंशी नरेशों को उसने पराजित किया। आंध्र के चालुक्यों के साथ भी उसका भयंकर युद्ध हुआ। उसने राढ (पश्चिमी बंगाल) तथा अंग (भागलपुर) पर सफल आक्रमण किया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि पहले ये क्षेत्र बंगाल के पालों के अधीन थे। महोबा अभिलेख में उसे हम्मीर (अमीर) के बराबर शक्तिशाली कहा गया है। फरिश्ता के अनुसार सुबुक्तगीन के विरुद्ध शाही शासक जयपाल को 989 ई. में कालिंजर के शासक ने सहायता दी थी। ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह सहायता देने वाला व्यक्ति धंग ही हो सकता है। हम्मीर के समान होने का यही ऐतिहासिक संदर्भ उचित भी लगता है।

धंग एक प्रसिद्ध विजेता के साथ ही साथ उच्चकोटि का निर्माता भी था। उसके काल में निर्मित खजुराहो का विश्वविद्यालय मंदिर स्थापत्यकला का अनुपम उदाहरण है। एक कथा के अनुसार धंग ने 1002 ई. में संगम (प्रयाग) में जल समाधि ले ली थी।

गंडदेव (1002-1019 ई.)

शाही वंश के आनंदपाल की सहायता के लिए महमूद गजनवी के विरुद्ध कालिंजर के शासक ने 1008 ई. में सेना भेजी थी। यह धंग के उत्तराधिकारी गंडदेव का काल है। उसने अपने लङके विद्याधर को महमूद के आक्रमण के समय (1019 ई.) प्रतिहार शासक राज्यपाल को (कायरता से भाग जाने के कारण) दंडित करने भेजा था। राज्यपाल की हत्या करने के बाद विद्याधर ने उसके लङके त्रिलोचनपाल को कन्नौज का शासक बना दिया।

चंदेल शासकों के इस कार्य के कारण 1019 ई. तथा पुनः 1022 ई. में महमूद ने चंदेलों पर आक्रमण किया। निजामुद्दीन गर्दजी तथा फरिश्ता के अनुसार विद्याधर ने महमूद से युद्ध नहीं किया था किंतु ताजुल मआसिर से पता चलता है कि एक दिन युद्ध करने के बाद विद्याधर युद्ध क्षेत्र से भाग गया था। इसके बाद 1022 ई. में महमूद के आक्रमण करने पर विद्याधर ने उससे शांति समझौता कर लिया और दोनों ने एक दूसरे को उपहार दिए। चंदेल शासक ने महमूद को तीन सौ हाथी भी दिए थे। विद्याधर के बाद विजयपाल (1030-1050 ई.),देववर्मन (1050-60 ई.), कीर्तिवर्मन (1060-1100 ई.), सल्लक्षणवर्मन (1100-1115 ई.), जयवर्मन तथा पृथ्वीवर्मन आदि इस वंश के शासक हुए थे। किंतु भारतीय इतिहास में इनकी कोई विशेष उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं है।

पृथ्वीवर्मन के बाद मदनवर्मन (1129-1163 ई.) एक पराक्रमी शासक हुआ। इसके कई अभिलेख तथा मुद्राएँ प्राप्त होती हैं, जिनसे पता चलता है, कि इस राजा ने चाँद वंश के नरेश गयकर्ण से रीवाँ प्रदेश तथा मालवा के यशोवर्मन परमार से भिलसा प्रदेश जीत लिया था। किंतु वह कुछ समय के लिये ही इस पर आधिपत्य रख सका। मालवा के परमार, काशी के गहङवाल गोविंदचंद्र, गुजरात के चालुक्य जयसिंह सिद्धराज से उसके साथ युद्ध होने के वर्णन भी मिलते हैं। उसका साम्राज्य उत्तर में यमुना नदी, दक्षिण में नर्मदा, पूर्व में रीवाँ क्षेत्र तथा दक्षिण-पश्चिम में बेतवा तक विस्तृत था, जिसके अंतर्गत कालिंजर, महोबा, खजुराहो, अजयगढ, छत्तरपुर, मऊ आदि क्षेत्र सम्मिलित थे। उसके उत्तराधिकारी पौत्र परिमर्दिदेव (1162-1202 ई.) को चालुक्य, चौहान तथा तुर्कों के आक्रमण का सामना करना पङा था। किंतु उसने 1173 ई. के बाद चालुक्यों से भिलसा को पुनः अपने आधिपत्य में कर लिया। 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान ने उसके राज्य पर आक्रमण करके उसे बङा नुकसान पहुँचाया था हालांकि विजित प्रदेशों पर पृथ्वीराज का आधिपत्य स्थायी नहीं रह सका।

1202 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर आक्रमण किया और वहाँ पर तुर्कों का अधिकार हो गया।

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