इतिहासप्राचीन भारतवाकाटक वंश

वाकाटक शासक हरिषेण का इतिहास

बासीम शाखा का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक हरिषेण हुआ। जिसने 475-510 ईस्वी तक शासन किया। हरिषेण के राज्यारोहण के समय ही वाकाटकों की प्रधान शाखा के पृथ्वीसेन द्वितीय की मृत्यु हुई। चूँकि पृथ्वीसेन का कोई पुत्र नहीं था, अतः उस शाखा का शासन भी हरिषेण के हाथों में ही आ गया।

अजंता गुहालेख में उसकी विजयों का वर्णन मिलता है, जिसके अनुसार कुंतल, अवंति, कोसल, त्रिकूट, लाट, आंध्र आदि के शासन उसके प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत आते थे।

वाकाटकों का साम्राज्य विस्तार

इससे स्पष्ट होता है, कि उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कुंतल तक तथा पूर्व में बंगाल की खाडी से लेकर पश्चिम में अरबसागर तक का विशाल भू भाग सम्मिलित था।

यह साम्राज्य सम्राट प्रवरसेन प्रथम द्वारा स्थापित किये गये साम्राज्य से भी बङा था। वस्तुतः कोई भी समकालीन राज्य इतना विस्तृत तथा शक्तिशाली नहीं था। हरिषेण की मृत्यु के समय वाकाटक राज्य अपने प्रभाव, शक्ति एवं प्रतिष्ठा की चोटी पर पहुँचा हुआ था।

हरिषेण वाकाटक वंश का अंतिम शासक था।उसकी मृत्यु के बाद 550 ईस्वी के लगभग तक वाकाटक साम्राज्य पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गया। इसके बाद दक्षिण में उसका स्थान चालुक्यों ने ग्रहण कर लिया।

हरिषेण के निर्बल उत्तराधिकारियों के काल में कर्नाटक के कदंब, उत्तरी महाराष्ट्र के कलचुरि तथा बस्तर के नल शासकों ने वाकाटक राज्य के अधिकांश भागों पर अपना अधिकार कर लिया था। चालुक्य नरेशों ने इन सभी शक्तियों को परास्त कर दक्षिण में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया।

वाकाटक शासक विद्या एवं कला प्रेमी थे

इस प्रकार वाकाटकों ने मध्य प्रदेश, बरार तथा ऊपरी दक्षिण में तीन शताब्दियों तक शासन किया। इस वंश के शासक विद्या-प्रेमी तथा कला और साहित्य के उदार संरक्षक थे। इस वंश के प्रवरसेन द्वितीय ने मराठी प्राकृतकाव्य सेतुबंध की रचना की थी तथा सर्वसेन ने हरविजय नामक प्राकृत काव्य ग्रंथ लिखा। संस्कृत की वैदर्भी शैली का पूर्ण विकास वाकाटक नरेशों के दरबार में ही हुआ। कुछ विद्वानों का मत है, कि चंद्रगुप्त द्वितीय के राजकवि कालिदास ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय की राजसभा में निवास किया था। वहाँ उन्होंने उसके सेतुबंध का संशोधन किया तथा वैदर्भी शैली में अपना काव्य मेघदूत लिखा था।

वाकाटकों का धर्म

वाकाटक नरेश ब्राह्मण धर्मावलंबी थे। वे शिव और विष्णु के अनन्य उपासक थे। इस वंश के राजाओं ने अश्वमेघ, वाजपेय आदि अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उनकी उपाधियाँ परममाहेश्वर तथा परमभागवत की थी। परंतु वे किसी भी अर्थ में असहिष्णु नहीं थे।

वाकाटक युग में कला कौशल की भी उन्नति हुई। वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय के सामंत व्याघ्रदेव ने नचना के मंदिर का निर्माण करवाया था। अजंता की 16वीं तथा 17वीं गुहा-विहार और 19वें गुहा-चैत्य का निर्माण इसी युग में हुआ था। इसमें भव्य चित्रकारियाँ प्राप्त होती हैं।

इस प्रकार साहित्य, धर्म और कला के विकास की दृष्टि वाकाटक नरेशों का शासन काल प्रसिद्ध रहा है।

वाकाटकों से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर

वाकाटकों की बासीम शाखा का सबसे शक्तिशाली शासक कौन था

Correct! Wrong!

वाकाटक वंश का अंतिम शासक कौन था

Correct! Wrong!

वाकाटक शक्ति के बाद दक्षिण भारत में किस शक्ति का उदय हुआ

Correct! Wrong!

मराठी प्राकृतकाव्य सेतुबंध की रचना किसने की थी

Correct! Wrong!

हरविजय नामक प्राकृत काव्य ग्रंथ किसने लिखा

Correct! Wrong!

संस्कृत की वैदर्भी शैली का पूर्ण विकास किस वंश में हुआ

Correct! Wrong!

वाकाटक नरेश किस धर्म के अनुयायी थे

Correct! Wrong!

नचना के मंदिर का निर्माण किस वाकाटक शासक ने करवाया था

Correct! Wrong!

Reference : https://www.indiaolddays.com

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