इतिहासप्राचीन भारत

भारत का पाश्चात्य विश्व के साथ व्यापारिक संबंध

भारत का पाश्चात्य विश्व के साथ व्यापारिक संबंध

व्यापार तथा वाणिज्य भारत के आर्थिक जीवन का प्रमुख तत्व रहा है। वस्तुतः यह वहाँ के निवासियों की समृद्धि का प्रधान कारण था। अत्यन्त प्राचीन काल से ही यहां निवासियों ने व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई। राज्य की ओर से भी व्यापारियों को पर्याप्त प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किया गया। परिणामस्वरूप यहां का आंतरिक एवं बाह्य दोनों ही व्यापार विकसित हुआ। जहाँ विश्व के अन्य देशों के साथ भारत का संबंध सांस्कृतिक एवं राजनीतिक था, वहाँ पश्चिमी विश्व के साथ यह प्रधानतः व्यापार-परक था।

भारत के पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक संबंधों की प्राचीनता प्रागैतिहासिक युग तक जाती है। पता चलता है, कि सिन्धु सभ्यता के निवासियों का मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता के निवासियों के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। उर, किश, लगश, निप्पुर, तेल अस्मर, टेपे, गावरा, हमा आदि मेसोपोटामियन नगरों से लगभग एक दर्जन सैन्धव मुहरें प्राप्त होती हैं, जो व्यापारिक प्रसंग में वहाँ पहुँचायी गयी थी।

मुहरों के अलावा सोने, चाँदी तथा तांबे के आभूषण, करकेतन के मनके, मोती, हाथी दाँत के कंघे, मिट्टी के विभिन्न प्रकार के बर्तन, लकङी की वस्तुयें आदि भी मेसोपोटामियन नगरों से मिलती हैं। वे वहाँ की बाजारों में बिक्री के निमित्त व्यापारियों द्वारा ले जाई जाती थी तथा वहाँ से मिश्र,अनातोलिया, क्रीट आदि देशों को जाती थी। बेहरीन द्वीप की खुदाई में मिले सैन्धव सभ्यता के कुछ अवशेषों के आधार पर यह कहा जा सकता है, कि यहां के व्यापारी सिन्धु तथा मेसोपोटामिया के व्यापारियों के मध्य बिचौलियों का काम किया करते थे।

दूसरी ओर सुमेरियन शासक सारगोन (2371-2316 ई.पू.) के समय के कुछ लेखों से पता चलता है, कि उर तथा अन्य नगरों के व्यापारियों का मेलुहा के व्यापारियों के साथ संबंध था तथा वे वहाँ से आबूस तथा अन्य इमारती लकङियाँ, सोना, चाँदी, ताँबा, लाजावर्द, माणिक्य के मनके, हाथी दांत की बनी रंगीन कंघी, पशु-पक्षी, आभूषण अंजन, मोती आदि वस्तुएँ मँगाते थे। मेलुहा का समीकरण सिन्ध प्रदेश अथवा इसमें स्थित मोहनजोदङो से किया जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है, कि सैन्धव सभ्यता के समय में ही भारत का पश्चिमी जगत के साथ व्यापारिक संबंध न केवल स्थापित हो चुका था, अपितु यह अत्यन्त विकसित भी था। यह व्यापार मुख्यतः जल-मार्ग से होता था। लोथल उस काल का प्रसिद्ध समुद्री बंदरगाह था, जैसाकि वहाँ से प्राप्त गोदीबाङा(Dock-yard) से स्पष्ट होता है।

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वैदिक युग में भी पश्चिमी जगत के साथ व्यापारिक संबंध चलता रहा। भारत के व्यापारी फारस की खाङी तक जाते थे, तथा वहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया करते थे। इस काल में सिन्धु प्रदेश में उत्तम कोटि के वस्त्रों का निर्माण होता था। ऋग्वेद से सूचित होता है, कि सिन्धु प्रदेश के पानीदार घोङे, शक्तिशाली रथ तथा ऊनी वस्त्र, हाथी-दांत की वस्तुयें, रत्न तथा सुगंधित द्रव्य भारत से पश्चिमी देशों को भेजे जाते थे। ये वस्तुयें वहाँ काफी लोकप्रिय थी।

बौद्ध साहित्य से पता चलता है, कि भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। पश्चिमी भारत में इस समय सोपारा तथा भृगुकच्छ प्रसिद्ध बंदरगाह थे, जहाँ विभिन्न देशों के व्यापारी अपनी जहाजों में माल भरकर लाते तथा ले जाते थे। बाबेरू जातक से पता चलता है, कि भारतीय व्यापारी बेबीलोन में कौवे तथा मोर की बिक्री करते थे। जातक ग्रंथों में कई स्थानों पर व्यापारियों द्वारा समुद्री यात्रा करने तथा कभी-कभी जहाजों के दुर्घनाग्रस्त होने के उल्लेख हैं।

क्लासिकल लेखकों के विवरण भी भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक संबंधों की पुष्टि करते हैं। ईसा पूर्व छठीं-शती के मध्य साईरस महान के नेतृत्व में ईरान में हखामनी साम्राज्य की स्थापना हुई। उसके उत्तराधिकारी दारा प्रथम (522-486 ई.पू.) ने सिन्धु तथा पंजाब को जीतकर भारत को अपने साम्राज्य का एक प्रांत बना लिया।

इस समय भारत का पश्चिमी देशों के साथ व्यापारिक संबंझ बढा। दारा के नौसेनाध्यक्ष स्काइलैक्स ने दोनों देशों के बीच एक नये समुद्री मार्ग का पता लगाया। यह लाल सागर से होकर गुजरता था। इससे होकर भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों में गये तथा उन्होंने काफी धन कमाया। पश्चिमोत्तर सीमा से कुछ ईरानी सिक्के मिलते हैं। इनसे भी ईरान के साथ भारतीय व्यापार की पुष्टि हो जाती है।

भारतीय व्यापारी ईरान होते हुये मिश्र तथा यूनान तक जाते और व्यापार करते थे। सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत तथा यूनान के बीच व्यापारिक संबंध तेज हो गया। क्सालिकल विवरणों से पता चलता है, कि भारत में नौकाओं तथा पोतों का निर्माण प्रचुर रूप में होता था, जिनसे होकर व्यापारी पश्चिमी देशों को जाते थे। टालमी के अनुसार भारत के पश्चिमी प्रदेशों से दो हजार नौकाओं में लादकर अश्व तथा अन्य पदार्थ नियार्कस भेजे गये थे।

मौर्य युग में भारत ने अभूतपूर्व राजनैतिक एकता का साक्षात्कार किया। इस काल की सुदृढ राजनीतिक परिस्थितियों ने व्यापार-वाणिज्य की प्रगति में महान योगदान दिया। इस समय भारत का व्यापार सीरिया, मिश्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ स्थापित हुआ। यूनानी-रोमन लेखक भारत भारत के समुद्री व्यापार का वर्णन करते हैं।

एरियन लिखता है, कि भारतीय व्यापारी मुक्ता बेचने के लिये यूनान के बाजारों में जाते थे। व्यापारिक पोतों का निर्माण इस काल का एक प्रमुख उद्योग था। अर्थशास्त्र से पता चलता है, कि इस समय व्यापारी वेदश जाते थे। नवाध्यक्ष तथा पण्याध्यक्ष नामक अधिकारी विदेश जाने वाले व्यापारियों की देख-रेख किया करते थे।

विदेशी सार्थवाहों का भी उल्लेख मिलता है, जो उत्तरी-पश्चिमी भारत के स्थल मार्गों से व्यापार के लिये आते थे। मौर्य युग में भारत तथा मिश्र के बीच व्यापार उन्नत दशा में था। मिश्र के राजा टालमी ने इस व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिये तट पर बरनिस नामक एक बंदरगाह बनवाया था। यहां से मिश्र के प्रसिद्ध बंदरगाह सिकन्दरिया के लिये तीन स्थल मार्ग जाते थे।

अशोक के लेखों से पता चलता है, कि सीरिया, एशिया माइनर, यूनान, मिश्र आदि देशों के साथ उसके संपर्क थे। इन देशों में उसने अपने धर्म प्रचारक भेजे थे। कहा जा सकता है, कि धर्म प्रचार के साथ ही साथ इनके साथ व्यापारिक संबंध भी स्थापित हुये होंगे।

अर्थशास्त्र से पता चलता है, कि मौर्यों की राजधानी में विदेशी नागरिकों की देख-रेख के लिये एक अलग समिति थी।

मौर्य साम्राज्य के पतनोपरांत दकन में सातवाहनों तथा उत्तर-पश्चिम में कुषाणों का मजबूत शासन स्थापित हुआ। इस काल में भारत का मध्य एशिया तथा पश्चिमी देशों, विशेषकर रोम के साथ व्यापारिक संबंध काफी बढ गया।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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