इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन काल में भारत एवं चीन के संबंध

प्राचीन काल में भारत एवं चीन के संबंध

अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीयों को चीन के विषय में ज्ञान था। महाभारत तथा मनुस्मृति में चीनी का उल्लेख मिलता है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में चीनी सिल्क का विवरण प्राप्त होता है। सामान्यतः ऐसा माना जाता है, कि चीन देश का नामकरण वहाँ चिन वंश (121 ईसा पूर्व से 220 ईस्वी तक) की स्थापना के बाद हुआ, अतः भारत-चीन संपर्क तृतीय शताब्दी के लगभग प्रारंभ हुआ।

ईसा के बहुत पहले से ही भारत तथा चीन के बीच जल एवं थल दोनों ही मार्गों से व्यापारिक संबंध थे। प्रथम शताब्दी ईस्वी के एक चीनी ग्रंथ से पता चलता है, कि चीन का हुआंग-चे (कांची) के साथ समुद्री मार्ग से व्यापार दूतमंडल चीन भेजने को कहा। इस विवरण से स्पष्ट होता है, कि ईसा पूर्व की द्वितीय अथवा प्रथम शताब्दियों में भारत तथा चीन के बीच समुद्री मार्ग द्वारा विधिवत् संपर्क स्थापित हो चुका था।

मैसूर से दूसरी शती ईसा पूर्व का चीनी सिक्का मिलता है। इस प्रकार भारत और चीन के प्रारंभिक संबंध पूर्णतया व्यापारपरक थे।चीनी सिल्क की भारत में बङी माँग थी। कालिदास ने भी चीनी रेशमी वस्त्र (चीनांशुक)का उल्लेख किया है। परंतु शीघ्र ही व्यापार का स्थान धर्म प्रचार ने ग्रहण कर लिया तथा बौद्ध प्रचारकों के प्रयत्नों के फलस्वरूप भारतीय सभ्यता चीन में व्यापक रूप से फैल गयी।

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चीनी परंपराओं के अनुसार भारत के बौद्ध प्रचारक चीन में 217 ईसा पूर्व में ही पहुँच गये थे। एक अन्य विवरण से पता चलता है, कि 121 ईसा पूर्व में एक चीनी सेनानायक ने मध्य एशिया में सैनिक अभियान किया। वहाँ से वह भगवान बुद्ध की एक स्वर्ण प्रतिमा चीन लाया तथा इस प्रकार चीनियों को बौद्ध धर्म के विषय में ज्ञात हुआ।

यद्यपि इन विवरणों की ऐतिहासिकता संदेहास्पद है तथापि इतना स्पष्टतः ज्ञात है, कि दो ईसा पूर्व में आक्सस घाटी के यू-ची (कुषाण) शासकों ने चीनी दरबार में कुछ बौद्ध ग्रंथ भेंट किये थे। चीन के राजकीय स्त्रोतों से पता चलता है, कि 65 ईस्वी में हनवंश के शासक मिंगती ने स्वप्न में एक स्वर्णिम पुरुष के दर्शन किये।

उसके दरबारियों ने इस पुरुष की पहचान बुद्ध से की। फलस्वरूप उसने पश्चिम में अपने राजदूत भेजे तो अपने साथ धर्मरत्न तथा काश्यप मातंग नामक दो बौद्ध भिक्षु ले गये। ये भिक्षु अपने साथ बहुसंख्यक पवित्र ग्रंथ तथा अवशेष एक श्वेत अश्व पर लादकर ले गये।

चीनी सम्राट ने उनके रहने के लिये राजधानी में एक विहार का निर्माण करवाया जिसे श्वेताश्व विहार कहा गया। यह चीन का प्राचीनतम बौद्ध विहार था। इस प्रकार ईसा की प्रथम शताब्दी तक बौद्ध धर्म चीन में निश्चित आधार प्राप्त कर चुका था। चीनी शासकों तथा कुलीनवर्ग ने बौद्ध धर्म को अपनाया और उसके प्रचार-प्रसार में अभिरुचि दिलाई। प्रारंभ में बौद्ध धर्म को कनफ्यूसिसय मतानुयायियों के विरोध का सामना करना पङा।

किन्तु शीघ्र ही उसने उनको अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। अनेक चीनी विद्वानों ने भी बौद्धधर्म का समर्थन किया। प्रसिद्ध दार्शनिक मोत्सू (द्वितीय शताब्दी ईस्वी) ने तो इसे कनफ्यूसियस के धर्म से श्रेष्ठतर घोषित किया। पश्चिमी सिन्वंश के शासक बौद्ध धर्म के संरक्षक थे।

सम्राट वु (265-290ईस्वी) तथा मिन् (313-316 ईस्वी) के कालों में अनेक मठों तथा विहारों का निर्माण हुआ तथा चीन में इस समय लगभग 37,000 भिक्षु हो गये थे। इस समय नानकिंग तथा चंगन बौद्धधर्म के प्रमुख केन्द्र थे। लगभग सौ वर्षों बाद दक्षिणी चीन के राजा लियांग-वूती ने इसे राजधर्म बनाया तथा उसका प्रचार प्रारंभ किया।

वेईवंश के समय में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार बढा तथा चीन में बौद्ध भिक्षुओं और विहारों की संख्या अधिक हो गयी। उसके बाद सुई एवं तांग राजवंश का काल आया। इस समय तक बौद्धधर्म चीनियों के जीवन का अभिन्न अंग बन गया था। तांग काल को चीन का बौद्ध काल भी कहा गया है।

चीन में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का प्रधान कारण धर्म प्रचारकों का उत्साह था। ये प्रचारक भिन्न-भिन्न स्थानों से वहां गये थे। मध्य एशिया के बौद्ध प्रचारकों में धर्मरक्ष और कुमारजीव के नाम प्रमुख हैं। भारत के प्रारंभिक प्रचारकों में धर्मक्षोम, गुणभद्र, धर्मगुप्त, उपशून्य, परमार्थ आदि उल्लेखनीय हैं। तांगकाल में प्रभाकरमित्र, दिवाकर, बौधिरुचि, अमोघवज्र, वज्रमित्र जैसे बौद्ध प्रचारक चीन पहुँचे।

कश्मीर में बौद्धों का प्रसिद्ध मठ था, जहाँ से संगभूति, धर्मयशस, बुद्धयशस, विमलाक्ष, बुद्धजीव, धर्ममित्र आदि बौद्ध विद्वान चीन गये। इन सभी के प्रयासों के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म चीन का अत्यन्त लोकप्रिय धर्म बन गया।

बौद्धधर्म की सरलता एवं व्यावहारिकता से प्रभावित होकर अनेक चीनी यात्रियों ने बौद्ध ग्रंथों की प्रतियाँ लेने तथा पवित्र बौद्ध स्थानों के दर्शनार्थ भारत की यात्रा की। इनमें फाहियान, ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। फाहियान चतुर्थ शती में यहाँ आया तथा विभिन्न स्थानों की यात्रा की इस समय चंद्रगुप्त द्वितीय का शासन था।

अपने यात्रा-विवरण में उसने गुप्तकालीन समाज एवं संस्कृति का सुन्दर चित्र खींचा है। ह्वेनसांग हर्षवर्धन के समय में भारत आया तथा उसने हर्षकालीन भारत की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दशा का वर्णन किया है। इत्सिंग सातवीं शती (671 ईस्वी) में भारत आया। अपनी यात्रा विवरण में उसने नालंदा विश्वविद्यालय का वर्णन किया है।

भारत-चीन संबंधों के फलस्वरूप चीनवासियों के जीवन पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव पङता स्वाभाविक ही था। बौद्धधर्म की अहिंसा, दया, करुणा, विनय आदि ने चीनवासियों के जीवन में विलक्षण परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। बौद्ध संपर्क से चीन में मूर्तिपूजा, मंदिर-निर्माण, भिक्षुजीवन, पुरोहितवाद आदि का प्रारंभ हुआ।

अनेक विद्वानों ने बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया, जिसके फलस्वरूप चीनी साहित्य की वृद्धि हुई। भारतीय ज्योतिष एवं चिकित्सा से भी चीनीवासी प्रभावित हुये। तांग राजाओं के दरबार में भारतयी ज्योतिषी रहते थे। एक भारतीय विद्वान ने तांग सम्राट को एक भारतीय पंचाङ्ग समर्पित किया था। भारत के तान्त्रिक योगी चीनी शासकों के दरबार में जाकर रोगों का निदान प्रस्तुत करते थे।

भारतीय गंधार कला का प्रभाव चीन की कला पर पङा। बुद्ध तथा बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनाई गयी तथा स्तूपों और मंदिरों का निर्माण हुआ। अजंता के गुहा-चित्रों के समान तुल-हुआंग में गुहा-चित्र प्राप्त होते थे। चीन के पगोडा भारतीय स्तूपों की नकल प्रतीत होते हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति के विविध तत्वों का चीनी संस्कृति पर प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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