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पल्लव शासकों का धार्मिक जीवन

हिन्दू धर्म में मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के तीन साधन बताये गये हैं – कर्म, ज्ञान, भक्तिवेद कर्मकांडी हैं, उपनिषदों में ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन है तथा गीता में इन तीनों के समन्वय की जानकारी मिलती है। कालांतर में इन तीनों साधनों के आधार पर विभिन्न सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ। अनेक विचारकों तथा सुधारकों ने भक्ति को साधन बनाकर सामाजिक-धार्मिक जीवन में सुधार लाने के लिये एक आंदोलन का सूत्रपात किया। भारतीय जन-जीवन में इस आंदोलन ने एक नवीन शक्ति तथा गतिशीलता का संचार किया।

भक्ति आंदोलन क्यों हुआ था

सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का आविर्भाव पल्लव तथा चोल राजाओं के संरक्षण में चलाया गया। इसके सूत्रधार नायनार, आलवार एवं आचार्य थे। शिव तथा विष्णु इस आंदोलन के आराध्य देव थे।

पल्लव राजाओं का शासन काल दक्षिण भारत के इतिहास में ब्राह्मण धर्म की उन्नति का काल रहा। इस काल के प्रारंभ में ब्राह्मण धर्म के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन धर्म भी तमिल प्रदेश में लोकप्रिय थे। स्वयं ब्राह्मण धर्मावलंबी होते हुये भी पल्लव शासकों में सहिष्णुता दिखायी देती है। उन्होंने अपने राज्य में जैनियों अथवा बौद्धों के ऊपर किसी भी प्रकार के अत्याचार नहीं किये। पल्लव नरेश नरसिंहवर्मा प्रथम के समय में चीनी यात्री ह्वेनसांग काञ्ची में कुछ समय ठहरा था। उसके अनुसार यहाँ सौ से अधिक बौद्ध विहार थे, जिनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे।उन्हें राज्य की ओर से सारी सुविधायें प्रदान की गयी थी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है, कि धीरे-धीरे तमिल समाज में शैव तथा वैष्णव धर्मों का प्रचलन हो गया और दोनों धर्मों के आचार्यों – शैव नायनार तथा वैष्णव आलवार ये जैन एवं बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित कर इन धर्मों की जङों को तमिल देश से उखाङ फेंका। नायनारों तथा आलवारों ने दक्षिण में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात किया। उनके प्रयासों का फल अच्छा निकला तथा दक्षिण के शासकों तथा सामान्य जनता ने धीरे-धीरे जैन एवं बौद्ध धर्मों का परित्याग कर भक्तिपरक शैव एवं वैष्णव धर्मों को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार तमिल देश से जैन एवं बौद्ध धर्मों का विलोप हो गया।

पल्लव राजाओं का शासन काल नायनारों तथा आलवरों के भक्ति-आंदोलन के लिये विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह आंदोलन ईसा की छठी शता. से प्रारंभ होकर नवीं शता. तक चलता रहा। इस काल में दोनों संप्रदायों के अनेक संतों का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने अपने-अपने प्रवचनों द्वारा जनता के ह्रदय में भक्ति की लहर दौङा दी।इनके प्रभाव में आकर पल्लव शासकों ने शैव एवं वैष्णव धर्मों को अपना लिया तथा शिव और विष्णु के सम्मान में मंदिर एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया। भक्ति आंदोलन के फलस्वरूप सुदूर दक्षिण में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, यज्ञ, कर्मकांड आदि का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ।

नयनवार संत

पल्लव काल में शैव धर्म का प्रचार नायनारों द्वारा ही किया गया। नायनार संतों की संख्या 63 बतायी गयी है, जिनमें अप्पर, तिरुज्ञान, संबंदर, सुन्दरमूर्ति, मणिक्कवाचगर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके भक्तीगीतों को एक साथ देवारम में संकलित किया गया है। इनमें अप्पार जिसका दूसरा नाम तिरूनाबुक्करशु भी मिलता है, पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम का समकालीन था। उसका जन्म तिरुगमूर के बेल्लाल परिवार में हुआ था। बताया जाता है, कि पहले वह एक जैन मठ में रहते हुए भिक्षु जीवन व्यतीत करता था। बाद में शिव की कृपा से उसका एक असाध्य रोग ठीक हो गया, जिसके परिणामस्वरूप जैन मत का परित्याग कर निष्ठावान शैव बन गया। अप्पर ने दास भाव से शिव की भक्ति की तथा उसका प्रचार जनसाधारण में किया।

तिरुज्ञान संबंदर, शियाली (तंजोर जिला) के एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। उसके विषय में एक कथा में बताया गया है, कि तीन वर्ष की आयु में ही पार्वती की कृपा से उसे दैवीज्ञान प्राप्त हो गया था।उसके पिता ने उसे सभी तीर्थों का भ्रमण कराया। कहा जाता है कि पाण्ड्य देश की यात्रा कर उसने वहाँ के राजा तथा प्रजा को जैन धर्म से शैव धर्म में दीक्षित किया था। संबंदर का बौद्ध आचार्यों के साथ वाद-विवाद भी होता था। तथा सभी को उसने शास्त्रार्थ में पराजित किया। उसने कई भक्ति गीत गाये तथा इस प्रकार उसकी मान्यता सबसे पवित्र संत के रूप में हो गयी। आज भी तमिल देश के अधिकांश शैव मंदिरों में उसकी पूजा की जाती है।

सुन्दरमूर्ति का जन्म नावलूर के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसका पालन पोषण नरसिंह मुवैयदरेयन नामक सेनापति ने किया। यद्यपि उसका जावन काल मात्र 18 वर्षों का रहा फिर भी वह अपने समय का अनन्य शैवभक्त बन गया। उसने एक सहस्त्र भक्तिगीत लिखे थे। सुन्दरमूर्ति को ईश्वरमिश्र की उपाधि से संबोधित किया गया। इसी प्रकार मणिक्कवाचगर, मदुरा के समीप एक गाँव के ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। चिदंबरम में उसने लंका के बौद्धों को वाद-विवाद में परास्त कर ख्याति प्राप्त की थी। उसने भी अनेक भक्तिगीत लिखे, जिन्हें तिरुवाशगम में संग्रहीत किया गया है। उसके गीतों में प्रेम तत्व की प्रधानता है।

इन सभी शैव संतों ने भजन, कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेशों आदि के माध्यम से तमिल समाज में शैवभक्ति का जोरदार प्रचार किया तथा भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया। वे जाति-पाँति के विरोधी थे तथा उन्होंने समाज के सभी वर्णों के बीच जाकर अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। नायनार संतों ने पल्लव शासकों तथा अन्य राजकुल के सदस्यों के सदस्यों को भी प्रभावित किया। जिसके परिणामस्वरूप वे न केवल शैव बने अपितु उन्होंने इस धर्म के प्रचार-प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण सहयोग किया। महेन्द्रवर्मन प्रथम ने शिव की उपासना में कई मंदिर बनवाये थे। परमेश्वरवर्मन प्रथम शिव का अनन्य उपासक था, जिसकी उपाधि परममाहेश्वर की थी। नरसिंहवर्मन द्वितीय ने भी शैवधर्म ग्रहण किया। तथा उसने शिव का एक विशाल मंदिर बनवाया था। इन शासकों के अनुकरण पर सामान्य जनता भी शैव धर्म की ओर आकर्षित हो गयी। इस धर्म के सामान्य सिद्धांतों के साथ-साथ कालांतर में शैव धर्म का भी प्रचार हुआ।

आलवार संत

शैवधर्म के साथ-साथ पल्लवकालीन समाज में वैष्णव धर्म का भी प्रचार हुआ। तमिल देश में इस धर्म का प्रचार का प्रचार मुख्यतः आलवार संतों द्वारा किया गया। आलवार शब्द का अर्थ है- अंतर्ज्ञान रखने वाला वह व्यक्ति जो ईश्वरीय चिन्तन में पूर्णतया विलीन हो गया हो। इनकी संख्या बारह बताई गयी है – भूतयोगी (भतत्तार),सरोयोगी(पोयगी),महायोगी (पेय),भक्तिसार(तिरुमलिशई),परांकुश मुनि या शठकोप (नम्मालवार),मधुरकवि, कुलशेखर(पेरूमाल), परकाल (तिरुमंगै आलवार)। इनका आविर्भाव सातवी से नवीं शता. के मध्य हुआ। प्रारंभिक आलवार संतों में पोयगई, पोडिय तथा पेय के नाम मिलते हैं। जो क्रमशः कांची, मल्लई तथा मयलापुरम के निवासी थे। इन्होंने सीधे तथा सरल ढंग से भक्ति का उपदेश दिया। इनके विचार संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिक तनाव से रहित थे। इनके बाद तिरुमलिशई का नाम मिलता है, जो सभवतः पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम के समय में हुआ। तिरुमंगई अत्यन्त प्रसिद्ध आलवार संत हुआ। अपनी भक्तिगीतों के माध्यम से जैन तथा बौद्ध धर्मों पर आक्रमण करते हुये उसने वैष्णव धर्म का जोरदार प्रचार किया। कहा जाता है, कि श्रीरंगम के मठ की मरम्मत के लिये उसने नेगपट्टम के बौद्ध विहार से एक स्वर्ण मूर्ति चुरायी थी। शैवों के प्रति उसका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार था।

आलवारों में एकमात्र महिला साध्वी आण्डाल का नाम मिलता है। जो कृष्ण की प्रेम दीवानी थी।

आलवार संतों की अंतिम कङी के रूप में नाम्मालवार तथा उसके प्रिय शिष्य मधुर कवि के नाम मिलते हैं। नाम्मालवार का जन्म तिनेवेली जिले के एक वेल्लाल कुल में हुआ था। उसने बङी संख्या में भक्तिगीत लिखे। उसके गीतों में गंभीर दार्शनिक चिन्तन देखने को मिलता है। विष्णु को अनंत एवं सर्वव्यापी मानते हुये उसने बताया कि उसकी प्राप्ति एक मात्र भक्ति से ही संभव है।

नाम्मालवार के शिष्य मधुर कवि ने अपने गीतों के माध्यम से गुरु महिमा का बखान किया।आलवार संतों ने ईश्वर के प्रति अपना उत्कृष्ट भक्ति-भावना के कारण अपने को पूर्णरूपेण उसमें समर्पित कर दिया। उनकी मान्यता थी, कि समस्त संसार ईश्वर का शरीर है, जो अपने प्रियतम के विरह वेदना में अपने प्राण खो देती है। आलवारों ने भजन, कीर्तन, नामोच्चारण, मूर्तिदर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया। वे गोपीभाव को सर्वोत्तम मानते हैं तथा भगवान के प्रति विरह में तन्मय हो जाते हैं। भगवान के प्रति उत्कृष्ट प्रेम ही भक्ति है। अज्ञानी व्यक्तियों की जिस प्रकार विषयभोगों में उत्कृष्ट प्रीति होती है, उसी प्रकार की उत्कृष्ट प्रीति जब नित्य भगवान में होती है, तब भक्ति का उदय होता है। जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रियतम के विरह में निरंतर उसका चिन्तन किया करती है। वैसे ही भक्त की मनोदशा अपने प्रियतम परमात्मा के मिलने के लिये होती है।

आलवार संत भक्ति को काम कहते हैं, किन्तु यह लौकिक काम से भिन्न सच्चिदानंद भगवान के प्रति दिव्य प्रेम है। जिस प्रकार कालिदास के यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रियतमा के पास भेजा था, उसी प्रकार आलवार संत भी उङते हुये हंसों तथा पक्षियों को दूत बनाकर उनसे निवेदन करते हैं, कि यदि उन्हें कहीं उनके प्रियतम कृष्ण दिखाई पङे तो उनसे कहें कि वे क्यों उन्हें भूल गये और उनके पास नहीं आते। आलवार संत नश्वर संसार के विषयों से उसी प्रकार संपृक्त नहीं होते जैसे कीचङ से कमल।

इस प्रकार आलवार संत सच्चे विष्णु भक्त थे। श्रीमदभागवत में आत्मनिवेदन अर्थात् ईश्वर में पूर्ण समर्पण को सर्वोत्तम भक्ति माना गया है। आलवार संतों ने प्रेमाभक्ति द्वारा आत्म-समर्पण को ही सर्वाधिक महत्व प्रदान किया। लगता है, कि वैष्णव आंदोलन का प्रारंभ सर्वप्रथम पल्लवों के राज्य से ही हुआ तथा उसके बाद यह दक्षिण के अन्य भागों में पहुँचा। आलवार संतों के प्रभाव में आकर कई पल्लव राजाओं ने वैष्णव धर्म को ग्रहण कर उसे राजधर्म बनाया तथा विष्णु के सम्मान में मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया। सिंहविष्णु ने मामल्लपुरम् में आदिवराह मंदिर का निर्माण करवाया था। नरसिंहवर्मन द्वितीय के समय में काञ्ची में बैकुण्ठपेरुमाल मंदिर का निर्माण करवाया गया। दंतिवर्मा भी विष्णु का महान उपासक था। लेखों में उसे विष्णु का अवतार बताया गया है।

इस प्रकार पल्लवकालीन समाज में नायनार तथा आलवार संतों द्वारा परिवर्तित भक्ति आंदोलन बङे वेग से प्रचलित हुा। संतों ने अनेक भक्तिगीत लिखे, जिन्हें मंदिरों में गाया जाता था। वस्तुतः मंदिर इस काल की धार्मिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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