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प्राचीन काल में भारत-रोम संबंध कैसे थे

प्राचीन काल में भारत-रोम

भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच संपर्क के प्राचीनतम संदर्भ मिलते हैं, तथापि इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं, कि भारत का पाश्चात्य जगत विशेषकर रोम के साथ घनिष्ठ वाणिज्यिक संबंध ईस्वी सन् के प्रारंभ के लगभग आरंभ हुआ। पाम्पेई नगर की खुदाई में भारतीय शैली में निर्मित हाथीदाँत की बनी यक्षिणी की एक मूर्ति मिली है, जिसका काल ईसा पूर्व दूसरी शती माना जाता है।

उपलब्ध साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है, कि आगस्टन काल (ई.पू.27-14) में उत्तर-पश्चिम तथा भारतीय उपमहाद्वीप के प्रायद्वीपय क्षेत्रों, दोनों के साथ रोम का व्यापारिक संबंध विकसित हो गया था। ये आर्थिक गतिविधियाँ ईसा की प्रथम दो शताब्दियों तक तेज हो गयी तथा आगामी सदियों में भी कुछ कम मात्रा में चलती रही, जबकि शक, पह्लव, कुषाणों के अधीन उत्तर भारत का व्यापार स्थल मार्ग से होता था तथा वाणिज्य मुख्यतः परिवहन व्यापार जैसा था।

भारत के दक्षिणी क्षेत्रों तथा रोम के बीच व्यापार सीमान्त प्रकृति का था। इस व्यापार में रोमन प्रजा तथा भारतीय व्यापारियों दोनों ने गहरी अभिरुचि ली तथा उन्हें अपने शासकों से भी सहायता प्राप्त हुयी, क्योंकि उन्हें भी इससे प्रभूत लाभ मिलता था।

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पेरीप्लस, प्लिनी के विवरण आदि से पता चलता है, कि भारत के व्यापारी तथा नाविक अफ्रिका तथा अरबियन समुद्र तट पर उपस्थित रहते थे। वरमिंगटन क्लासिकल विवरण के आधार पर चार ऐसे दूतमंडलों का उल्लेख करता है, जो भारत के विभिन्न भगों – उत्तर पश्चिम, भङौंच (काठियावाङ क्षेत्र) तथा दक्षिण के चेर और पाण्डय राज्यों से आगस्टन के शासनकाल में रोम गये थे।

मार्क अन्तोजी से जस्टिनियन (ई.पू.30 ई. 550)तक भारत – रोम संबंध सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रहा। ट्रेजन के विषय में एक प्रसंग मिलता है, जिसके अनुसार 116 ई. में भारत की ओर जाने वाले एक जहाज को देखकर उसने यह इच्छा व्यक्त करते हुये कहा था, – यदि मैं युवा होता तो, अभी इस पर कूद कर बैठ जाता।

दक्षिण भारत में प्राप्त सिक्कों का अध्ययन करने के बाद सेवेल का निष्कर्ष है, कि इस व्यापार का चरमोत्कर्ष आगस्टन काल में हुआ था। तथा नीरो के समय (65 ई.) तक यह बना रहा। इसी समय भारत से विलासिता-सामग्री बहुत अधिक भेजी गयी। किन्तु वरमिंगटन ने इससे असहमति प्रकट करते हुये लिखा है, कि इसका कोई प्रमाण नहीं है, कि व्यापार में गिरावट आई, अपितु इसके प्रमाण है, कि नीरो के बाद भी व्यापार अबाध गति से चलता रहा।

पता चलता है, कि आगस्टस ने एक दूतमंडल का स्वागत टर्रक्को (स्पेन)में ईसा पूर्व 26-25 तथा दूसरे का समोस में ई.पू.21 में किया था। स्ट्रेबो लिखता है, कि किसी भारतीय शासक ने आगस्टस के दरबार में अपना दूतमंडल भेजा था। इस शासक की पहचान पोरस से की जाती है। मार्ग की कठिनाइयों के कारण मात्र तीन व्यक्ति ही वहां पहुँच सके। वे अपने साथ एक भुजाहीन व्यक्ति, साँप कछुआ ले गये थे।

सुदूर दक्षिण के पाण्ड्य शासकों ने भी आगस्टस के दरबार में अपने दूत भेजे थे। आगस्टस के बाद भी भारतीय दूतमंडलों का रोम जाना बना रहा। टर्जन (107ई.)तथा हेडियन (117-118 ई.) ने भी भारतीय दूतमंडलों का स्वागत किया। स्पष्टतः ये दूतमंडल वाणिज्यिक प्रकृति के थे, जिनका उद्देश्य रोमन व्यापारियों को सुविधा प्रदान करना था।

इससे पता चलता है, कि भारत के लोग रोम के साथ बढते हुये व्यापार में स्थायी रुचि रखते लगे थे, क्योंकि यह उनके लिये लाभकारी था। प्रथम शताब्दी (लगभग 45 ई.) में एक यूनानी नाविक हिप्पोलस ने भारतीयों को अरब सागर में चलने वाली मानसूनी हवाओं के विषय में जानकाली दी। इस खोज ने भारत-रोम व्यापार के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। गहरे समुद्र में यात्रा करना संभव हुआ तथा भारतीय व्यापारी अरब सागर होकर पश्चिमी एशिया के बंदरगाह पर पहुँचने लगे।

बताया गया है, कि हिप्पोलस की इस खोज के पूर्व जहाँ मिश्र के नगरों से पूर्व की ओर समय की बचत हुई तो दूसरी ओर समुद्री डाकुओं से भी छुटकारा मिला, जो पहले तटवर्ती जहाजों को लूटा करते थे। भारत-रोम व्यापार का दबाव प्रधानतः दक्षिण तथा प्रायद्वीपीय क्षेत्रों पर ही था।

पेरीप्लस से हमें पश्चिमी तथा पूर्वी समुद्र तट पर स्थित बंदरगाहों एवं बाजारों के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है तथा आयात-निर्यात की वस्तुओं की भी सूचना दी गयी है। स्पष्ट होता है, कि संपूर्ण दकन तथा तमिल देश इसमें शामिल था। पश्चिमी तट के बंदरगाह बेरीगाजा(भङौंच), सोपारा, कल्याण, मुजिरिसी, नेल्सिन्डा तथा पूर्वी तट के बंदरगाह एवं मंडियाँ आदि थे।

भारत-रोम व्यापार का संतुलन हमेशा भारत के पक्ष में रहा। चूंकि रोम साम्राज्य भारतीय माल के बराबर माल नहीं दे पाता था, अतः बदले में उसे दुर्लभ सोने तथा चांदी के सिक्के देने पङते थे। प्लिनी लिखता है, कि भारतीय माल रोम के बाजारों में अपनी मूल लागत के सौ गुने दाम पर बिकते थे। वह भारत को बहुमूल्य पत्थरों एवं रत्नों का प्रमुख उत्पादक बताता है। उसके अनुसार रोम प्रतिवर्ष भारत में विलासिता सामग्रियाँ खरीदने में दस करोङ सेस्टर्स व्यय करता था।

अपने देशवासियों की इस अपव्ययता के लिये वह निन्दा करता है। भारत के वस्त्र, प्रसाधन सामग्री, आभूषण आदि की रोम के बाजार में भारी खपत थी। रोम की नारियाँ भारतीय वस्त्रों एवं प्रसधान सामग्रियों की बङी शौकीन थी। भारतीय वस्त्रों एवं प्रसाधनों से सुसज्जित वे युवा वर्ग के आकर्षण का केन्द्र बनी तथा रोमन युवक विलासिता में निमग्न हो गये। चिन-शु इतिवृत्तियों से भी इसकी पुष्टि होती है, जहाँ बताया गया है, कि रोम साम्राज्य से व्यापार में पार्थियनों तथा भारतीयों को सौ गुना लाभ होता था।

जायोन क्राइस्टोम भारतीयों की गणना उन लोगों में करता है, जो रोमनों की मूर्खता के कारण उनसे कर प्राप्त करते थे तथा रोमनों की गणना उन लोगों में करता है, जो अपनी विलासी इच्छाओं की पूर्ति के लिये जानबूझकर कर ऐसे दूरस्थ भूमि एवं समुद्र के लोगों के पास धन भेजते हैं, जो आसानी से उनकी भूमि पर कदम नहीं रख सकते। यह वस्तुतः एक अनैतिक एवं निर्लज्ज कार्य है। रोमन शासक टाइबेरियस ने इस प्रकार धन के बहिर्गमन पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुये सीनेट में शिकायत दर्ज कराई थी।

पेरीप्लस से भी पता चलता है, कि भारत से मसाले, मोती, मलमल, हाथी-दाँत की वस्तुयें, औषधियाँ, चंदन, इत्र आदि बहुतायत से रोम पहुँचते थे, तथा बदले में रोम का सोना भारत आता था। पेरीप्लस के अनुसार शायद ही कोई वर्ष ऐसा हो जब भारतीय व्यापारी रोम से कम से कम, साढे पाँच करोङ सेस्टर्स न प्राप्त करते हों।

पेरीप्लस में भी बेरीगाजा, मुजिरिसी तथा नेलसिन्डा के बंदरगाहों पर आयातित होने वाले बङी मात्रा में रोमन स्वर्ण तथा रजत सिक्कों का विवरण मिलता है। यह स्थिति ईसा की प्रथम दो शताब्दियों में विद्यमान रही। उत्तरी भारत के रोम का व्यापार अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष था। तक्षशिला अधिकांशतः भिन्न-भिन्न भागों से आने वाले माल का संग्रह स्थल था। रेशम मध्य एशिया होते हुये चीन से आता था। पार्थिया तथा रोम के संघर्ष के कारण वह चीनी माल को सीधे रास्ते रोम तक नहीं जाने देता था। चीन तथा रोम के बीच विलासिता सामग्रियों के व्यापार में भारतीय व्यापारी मध्यस्थता करने लगे जो एक लाभ का सौदा था।

चीन को रोमन साम्राज्य के पश्चिमी प्रांतों को जोङने वाला मार्ग मध्य एशिया से ही गुजरता था। इसे सिल्क मार्ग कहा जाता था, क्योंकि चीन से होने वाले रेशम का समस्त व्यापार अधिकतर इसी मार्ग से होता था। कुषाणों के इस क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लेने के कारण ही संभव हो सका। गांधार तथा तक्षशिला के बाजारों में रोमन साम्राज्य के माल की काफी खपत थी, लेकिन रोमन व्यापारियों को बदले में देने के लिये यहाँ बहुत कम माल होता था।

अतः संभवतः यहाँ के व्यापारियों ने कुषाण शासकों से समान मूल्य एवं मान के सिक्के निर्गत करने के लिये प्रार्थना की होगी, जिससे विनिमय संबंधी बाधा दूर की जा सके। कुषाणों ने यह मांग पूरी कर दी, क्योंकि उनके स्वर्ण सिक्के रोमन व्यापारियों को आसानी से मान्य हो गये।

तमिल क्षेत्र में काली मिर्च, हाथीदाँत, मोती, मलमल, रेशम आदि का प्रचुर उत्पादन होता था, तथा इन वस्तुओं की रोम में बङी मांग थी। चूंकि इसके बदले में देने के लिये रोमनों के पास कोी उत्पाद नहीं थाष अतः वे सिक्कों के रूप में स्वर्ण का निर्यात करते थे।1775 से अब तक रोमन स्वर्ण रजत सिक्कों की 68 निधियां तमिल क्षेत्र से प्राप्त हो चुकी हैं। ने केवल महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक तक के दक्षिणी क्षेत्र से अपितु उत्तर में विदर्भ तक के क्षेत्र से भी रोमन सिक्के मिले हैं। इनकी सौराष्ट्र क्षेत्र में काफी मांग थी, जहाँ से रोम के साथ नियमित वाणिज्य संपर्क था।

वरमिंगटन का विचार है, कि दक्षिण में प्राप्त रोमन सिक्के उस विशाल मात्रा के छोटे भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय व्यापारी अपने माल के बदले रोमनों से प्राप्त करते थे। स्वर्ण सिक्के विदेशी व्यापार में तथा चाँदी के सिक्के छोटी लेन-देन में प्रयुक्त होते थे। रोमन जानबूझकर अपनी मुद्रा का निर्यात करते थे, ताकि भारत में वाणिज्यिक मुद्रा की कमी को पूरा करने के लिये रोमन मुद्रा का निर्माण किया जा सके।

सातवाहन राजाओं गौतमीपुत्र, यज्ञश्री आदि के सीसे से कुछ सिक्कों पर दो मस्तूलों वाले जहाजी बेङे का चित्रण मिलता है। यह सघन भारतीय-रोमन व्यापार का सूचक है, जिसमें सातवाहनों के अधीन क्षेत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती थी। रोमन सिक्कों पर भी जहाज का अंकन मिलता है।

संगम साहित्य से भी भारत-रोम के बीच घनिष्ठ वाणिज्यिक संपर्क सूचित होता है।

तमिल देश के प्रसिद्ध बंदरगाहों पुहार, कोर्कई, शालियूर, बंदर आदि का उल्लेख मिलता है। जहाँ रोमन व्यापारियों के गोदाम एवं कार्यालय थे। कोर्कई मोती खोजने का प्रमुख पत्तन था।मुशिरी, पुहार, तोण्डी आदि में यवन व्यापारियों की बस्तियां थी। पता चलता है, कि वे अपने जहाजों में सोना भरकर मुशिरी बंदरगाह पर उतरते थे। तथा उसके बदले में काली मिर्च एवं समुद्री रत्नें ले जाते थे।

साहित्यिक विवरण की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से भी हो जाती है। सुदूर दक्षिण के कई स्थानों से रोमन सम्राटों आगस्टन, नीरो, टाइबेरियस आदि के स्वर्ण सिक्के मिले हैं। कोरोमंडल समुद्र तट पर पाण्डिचेरी के पास अरिकामेडु पुरास्थल की खुदाई से भारत-रोम संबंधों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पङता है। यहाँ एक विशाल रोमन बस्ती का पता चलता है,जो व्यापारिक केन्द्र थी, तथा इसी के पास एक बंदरगाह भी था।

ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ तक इसका उपयोग होता रहा। यहाँ से सबसे बङा मालगोदाम, दो छोटे-छोटे जलकुण्ड (रंगाई के हौज), रोमन दीप के टुकङे, कांच के कटोरे, मनके, रत्न तथा बर्तन पाये गये हैं। एक मनके के ऊपर आगस्टन का चित्र बना हुआ है। इनसे सूचित होता है, कि यहाँ एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था, जहां देश के विभिन्न भागों से व्यापारिक वस्तुयें एकत्र की जाती थी, तथा फिर उन्हें रोम भेजा जाता था। मनके के निर्माण का यहाँ कारखाना भी था।

यहां मलमल तथा अन्य वस्तुओं का निर्माण संभवतः रोमन लोगों की पसंद के अनुसार किया जाता था,जो जहाजों में भरकर रोम भेजा जाता था। उत्तरी-पश्चिमी भारत में स्थित तक्षशिला से भी रोमन उत्पत्ति की कई वस्तुयें – मनके, रत्न, धातु के बर्तन, काँच के कटोरे, धूपदानी आदि मिलती हैं। ऐसा लगता है, कि तक्षशिला स्थल मार्ग से रोम आने-जाने वाले व्यापारियों का प्रमुख स्थल था। सेवेल के मतानुसार भारत तथा रोम का यह व्यापारिक संबंध पहली शती ई. से तीसरी शती ई. तक अपने विकास की पराकाष्ठा पर था।

कुछ विद्वानों की मान्यता है, कि कुषाण राजवंश के पतनोपरांत भारत-रोम व्यापार संबंधों में गिरावट आई। प्रमाण स्वरूप मंदसोर लेख (पाँचवी शती) के उस संदर्भ की चर्चा की जाती है, जिसके अनुसार रेशम का व्यापार करने वाली बुनकरों की श्रेणी (पट्टवाय शती) ने लाट प्रदेश से दशपुर में प्रवजन किया था।

एस.के.मैती का विचार है, कि इससे लगता है, कि रोम के साथ स्थल मार्ग से भी व्यापार होता था तथा यह चौथी शताब्दी में इतना विकसित हुआ कि सिल्क जो आर्लियन के काल (161-180ई.) में सोने से तौलकर बेचा जाता था तथा धनी और कुलीन वर्ग की विलासिता की वस्तु था, वह जूलियन के काल (361-363 ई.) में इतना सस्ता हो गया कि सामान्य मनुष्य भी उसे खरीद सकता था।

अतः यह नहीं कहा जा सकता कि गुप्त युग में भारत-रोम व्यापार पतनोन्मुख रहा। रोमन इतिहास से पता चलता है, कि 408 ई.में हूण आक्रान्ता एलरिक ने फिरौती के रूप में तीन हजार पौण्ड गोल मिर्च तथा चार हजार थान रेशमी वस्त्र रोमन नरेश ले लिया था। इससे सूचित होता है, कि पांचवी शती में भी रोम में भारतीय माल की प्रचुरता बनी हुई थी। रोम के पतन के बाद उसका स्थान कान्स्टैनटिनोपुल अथवा बैजेन्टियम ने ग्रहण किया। कान्स्टेनटाइन महान ने 330 ई. में उसे अपने शासन का केन्द्र बनाया।

इस समय से भारत – रोम संबंध और प्रगाढ हुए। चिकित्सा प्रबंधों में पता चलता है, कि वहां के बाजारों में सभी प्रकार के भारतीय मसाले प्रचुरता में प्राप्त थे। जस्टिनियन लॉ डाइजेस्ट में आयातित वस्तुओं की जो सूची मिलती है, उनमें अधिकतर भारतीय मूल की है। भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त बैजेन्टियम सिक्के भी दोनों देशों के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंधों की गवाही देते हैं।

अतः साहित्यिक तथा पुरातात्विक दोनों प्रमाणों से सूचित होता है, कि भारत तथा रोम के बीच संबंध ईसा की प्रारंभिक शती से प्रारंभ होकर पाँचवी शती तक निरंतर बना रहा। व्यापार की दो सबसे महत्त्वपूर्ण सामग्रियाँ थी, – रेशमी वस्त्र तथा गरम मसाला। इनके साथ-साथ मोती, शंख, चंदन, इत्र, हाथी दांत की वस्तुयें, जटामासी, जवाहरात आदि का भी रोमवासी भारत से आयात करते थे। इनके बदले में भारत पहुँचने वाली रोमन साम्रगियाँ थी, रत्न, मनके, मदिरा पात्र (एम्फोरे), ओपदार अरेटाइन मृदभांड, दीप, कांच की वस्तुयें, स्वर्ण-रजत सिक्के, कांसे के बर्तन एवं मूर्तियाँ आदि। व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था।

भारतीय वस्तुओं के बदले रोमन व्यापार का आर्थिक प्रभाव सुस्पष्ट था, किन्तु उत्तर में रोम-यूनानी विचारों तथा कला-कौशल का प्रभाव ही अधिक देखने को मिलता है। पण्य-वस्तुओं के विनिमय के फलस्वरूप विचारों तथा कला-कौशल का प्रभाव हुआ तथा दोनों ओर से अधिकांशतः तकनीकी शब्दों का आदान-प्रदान इस विनिमय का प्रत्यक्ष परिणाम था। भारतीय लोक कथायें तथा आख्यायिकायें पश्चिम की ओर गई तथा उन्हें यूरोपीयन साहित्य में स्थान दिया गया।

क्लासिकल लेखकों स्ट्रेबो, एरियन, प्लिनी आदि ने भारत के विषय में काफी लिखा। सर्वाधिक प्रत्यक्ष एवं दर्शनीय प्रभाव कला के क्षेत्र में पङा, जबकि पश्चिमोत्तर भारत में गंधार शैली का विकास हो गया। इस पर यवन-रोमीय (ग्रीको-रोमन) शैली का स्पष्ट प्रभाव था। धर्म के क्षेत्र में भारत तथा रोम की कुछ विचारधाराओं में समानता दिखाई देती है। रोम के देवता जूपिटर भारतीय देवता द्यौस के निकट हैं।

रोमन दार्शनिक सिसरो पर भारतीय दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है, कि ईसाई धर्म में समानता, भाईचारा, दया आदि को जा भाव देखाई देता है, वह भारतीय बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है। बौद्ध संघ के गठन के आधार पर ईसाई चर्च का गठन हुआ। इसी प्रकार बौद्ध चैत्य-गृहों का आकार ईसाई गिरजाघरों से बहुत कुछ मिलता है, जिसमें नेव (मंडप),आइल (प्रदक्षिणापथ) तथा एप्स (गर्भगृह) होते हैं।

भारतीय भाषा के विभिन्न शब्द भी रोम की भाषा में मिलते हैं,जैसे – भारतीय शर्करा एवं कर्पूर के लिये रोम में सकरुम तथा कैसर शब्द प्रचलित थे। इसी प्रकार भारतीय ज्योतिष का रोमन सिद्धांत रोम विचारों से ही प्रभावित लगता है। रोमन राजाओं के अनुकरण पर भारतीय कुषाण राजाओं ने भी मृत शासकों की स्मृति में मंदिर तथा मूर्तियाँ (देवकुल) बनवाने की प्रथा का आरंभ किया था।

गुप्त राजाओं ने अपने सिक्कों की तौल रोमन डेनेरियस नामक स्वर्ण मुद्राओं के आधार पर निर्धारित किया। कुछ विद्वान भारतीय स्वर्णमुद्रा दीनार की उत्पत्ति रोमन डेनेरियस से ही मानते हैं।

गुप्त युग में भी भारत का व्यापार पश्चिमी जगत के साथ अबाधगति से चलता रहा। कुमारस्वामी के अनुसार यह काल पोत निर्माण के लिये सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस काल के कुछ जहाजों में एक साथ 500 व्यक्ति यात्रा कर सकते थे। इस समय जल तथा थल दोनों ही मार्गों से पश्चिमी देसों के साथ व्यापार होता था। भारत से जहाज फारस तथा अरब के समुद्रतट से होते हुये लाल सागर तथा वहां से रोम को जाते थे।

रोम के अलावा यूनान, मिश्र तथा पश्चिमी एशिया, ईरान आदि के साथ भी भारत का व्यापारिक संबंध था। पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित भृगुकच्छ इस समय भी प्रसिद्ध बंदरगाह था, जहाँ से भारतीय व्यापारी जहाजों में माल लादकर पश्चिमी देशों को ले जाते थे।हाथी-दाँत, गोमेद, लाल मलमल, मोटा वस्त्र, रेशम, सूत, लंबी पीपल आदि वस्तुयें पश्चिमी बंदरगाहों से विदेशों को जाती थी।

ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है, कि उत्तर-पश्चिम में कपिशा एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। यहाँ भारत के विभिन्न भागों से वस्तुयें आती थी तथा उन्हें ईरान के मार्ग से यूरोप तक ले जाया जाता था। एस.के.मैती तथा आर.अस. शर्मा जैसे कुछ विद्वानों का विचार है, कि गुप्तकाल में भारत तथा रोम के बीच व्यापारिक संबंधों में गिरावट आई और इस प्रकार यह काल आर्थिक दृष्टि से पतन का काल रहा।

हर्ष काल (सातवीं शताब्दी)को विद्वानों ने आर्थिक दृष्टि से पतन का काल निरूपित किया है। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है, कि इस समय तक कई नगर तथा शहर वीरान हो चुके थे।इस काल में मुद्रायों तथा मुहरों का घोर अभाव था। इससे सिद्ध होता है, कि यह व्यापार-वाणिज्य के पतन का काल था तथा समाज उत्तरोत्तर कृषिमूलक होता जा रहा था।

पूर्व मध्यकाल (650-1200ई.)में भी भारतीय मालवाहक जहाज अरब, फारस, मिश्र आदि देशों को जाया करते थे। हेमचंद्र के अनुसार अरब से भारत में घोङे मँगाये जाते थे। परसिया से रंग भारत को आता था। इब्न-खुर्दद्वा के विवरण से पता चलता है, कि चंदन, कपूर, लौंग, जायफल, कबाब, नारियल, मखमली कपङे, हाथीदाँत, मोती, बिल्लौर, कालीमिर्च, शीशा, बांस आदि से ईराक तथा अरब के देशों को जाते थे।

किन्तु ऐसा प्रतीत होता है, कि इस युग में अलावा उत्पादन के अभाव ने दूरवर्ती देशों के साथ व्यापार को प्रभावित किया तथा यह सीमित हो गया। राजपूत काल में सामंतों के छोटे-छोटे राज्य स्थापित हुये जो अपनी शक्ति और प्रभाव बढाने के लिये परस्पर संघर्ष में उलझ गये। सामंतों ने व्यापार-वाणिज्य को हतोत्साहित किया तथा आत्म-निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया। निरंतर युद्धों के कारण भी व्यापार की प्रगति में बाधा पहुँची।

विद्वानों ने आर्थिक विकास की दृष्टि से पूर्व मध्यकाल को दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम भाग (650-1000ई.)में व्यापार-वाणिज्य का पतन हुआ। रोम साम्राज्य का इस समय तक पतन हो चुका था। इस कारण पश्चिमी देशों के साथ भारत का व्यापार बंद हो गया। इस्लाम के उदय के कारण भी भारत के स्थल मार्ग से होने वाला व्यापार प्रभावित हुआ। इसी कारण इस काल में हमें स्वर्ण मुद्राओं तथा मुहरों का अभाव देखने को मिलता है।

स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन बंद हो गया तथा चाँदी एवं तांबे की मुद्रायें भी बहुत कम ढलवायी गयी। नगरों के पतन के कारम व्यापारी गांवों की ओर उन्मुख हुये। किन्तु इस काल के दूसरे भाग (1000-1200ईस्वी)में व्यापार-वाणिज्य की स्थिति में सुधार हुआ। इस समय कुछ बङे राज्यों – चौहान, परमार, चंदेल आदि की स्थापना हुई। तथा विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा। इन राजवंशों के सम्राटों ने व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन प्रदान किया। सिक्कों का प्रचलन पुनः प्रारंभ हो गया।

मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के बाद से मुसलमान व्यापारियों तथा सौदागरों की गतिविधियाँ तेज हो गयी, जिसके फलस्वरूप उत्तरी भारत में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति हुई। ग्यारहवीं शती तक आते-आते भारत का पश्चिमी देशों के साथ व्यापार पुनः तेज हो गया तथा देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हुआ। यही कारण है, कि इस काल के सिक्के तथा मुहरें बङी संख्या में मिलती हैं।

उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत में चालुक्य, पल्लव, पाण्ड्य तथा चोल राजाओं के काल में भी भारत का पाश्चात्य जगत के साथ व्यापार अत्यन्त विकसित रहा। चोलों के समय में फारस के साथ घनिष्ठ व्यापारिक संबंध स्थापित हो गया। फारस की खाङी के पूर्वी तट पर स्थित सिरफ प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। आबूजैद के विवरण से पता चलता है, कि भारत के व्यापारी बङी संख्या में वहाँ जाते थे तथा मुसलमान व्यापारियों के साथ संपर्क स्थापित करते थे।

उन्होंने यह भी लिखा है, कि सिरफ से व्यापारी जहाज लाल सागर होकर चीन नहीं जाते अपितु जेद्दा से लौटकर भारत चले जाते थे। कारण कि भारत के समुद्र में मोती तथा अम्बर पाये जाते थे तथा यहां के पहाङों में रत्नों और सोने की खानें थी। दकन के राष्ट्रकूट शासकों ने अरब व्यापारियों के साथ मधुर संबंध बनाये रखा, क्योंकि उनसे माल खरीदने में उन्हें लाभ होता था। दक्षिण भारत में इस समय कई प्रसिद्ध बंदरगाह थे, जिससे होकर पश्चिमी देशों को जाया जाता था।

इनमें खंभात, भङौंच, सोमनाथ, कोलम आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कोलम सुदूर दक्षिण में पश्चिमी तट पर बसा हुआ था। सुदूर दक्षिण तथा समुद्र पार के पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियों का यह प्रमुख केन्द्र था। पश्चिमी देशों से आने वाले जहाज यहां रुकते थे। अरब जाने वाले चीनी जहाजों का भी यह विश्राम-स्थल था।

भारत से पश्चिमी देशों को जाने के लिये तीन प्रमुख व्यापारिक मार्ग थे। पहला मार्ग सिन्धु नदी के मुहाने से समुद्रतट होते हुये फारस की खाङी में स्थित दजला-फरात तक जाता था। दूसरा थल मार्ग था, जो हिन्दुकुश दर्रों से होकर बल्ख और ईरान होते हुये अन्तियोक तक पहुँचता था तथा तीसरा जल मार्ग फारस तथा अरब के तटवर्ती प्रदेशों से होते हुये लाल सागर को पार कर यूनान तथा मिश्र की ओर जाता था। भारतीय व्यापारियों ने अधिकांशतः जल मार्गों का ही उपयोग किया।

इस प्रकार भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच व्यापारिक संबंध प्रागैतिहासिक युग से प्रारंभ होकर बारहवीं शती तक निर्बाध रूप से चलता रहा। यह अधिकांशतः भारत के लिये लाभकारी सिद्ध हुआ तथा उसकी समृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण साधन बना।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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