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गुप्त साम्राज्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

गुप्त साम्राज्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

गुप्त साम्राज्य का संस्थापक श्रीगुप्त था। समुद्रगुप्त ने स्वयं को प्रयाग प्रशस्ति में श्रीगुप्त का प्रपौत्र कहा है। श्रीगुप्त के बाद घटोत्कच गुप्त शासक हुआ। इसकी उपाधि महाराज थी। गुप्तकाल में केवल ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी। गुप्तकालीन समाज में अन्तर्राजीय विवाह प्रचलित थे। गुप्तकाल में नृत्य एवं संगीत में निपुण तथा काम-शास्त्र में पारंगत महिलाओं को गणिका कहते थे। गुप्तकाल में हिन्दू धर्म की अत्यधिक उन्नति हुई। इस काल में हिन्दू धर्म की दो प्रमुख शाखाएं प्रचलित थी – वैष्णव एवं शैव

गुप्तकाल में त्रिमूर्ति के अंतर्गत ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की पूजा आरंभ हुई। इसमें ब्रह्मा को सृजन, विष्णु को पालन तथा महेश को संहार का प्रतीक माना गया है।

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गुप्तकाल में कापालिक व कालामुख सम्प्रदाय अस्तित्व में आ चुके थे। गुप्तकाल में जैन धर्म को भी विशेष स्थान प्राप्त था। जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा की दो सभाओं का आयोजन हुआ था, पहली सभा मथुरा में 313 ई. में तथा दूसरी सभा 453 ई. में वल्लभी में बुलाई गयी थी। गुप्तकाल में भारत के पूर्वीय देशों को स्वर्णभूमि कहा जाता था। इनसे अच्छे व्यापारिक संबंध थे। गुप्तकाल में बंगाल, गुजरात, तथा दक्षिण का कुछ भाग कपङा उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे। गुप्तकाल में पश्चिम में भङौंच एवं पूर्व में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह थे।

गुप्तकाल में घोङों का अरब एवं ईरान से आयात किया जाता था। गुप्तकाल में निर्मित श्रेष्ठी सार्थवाह-कुलिक निगम की 274 मुहरें वैशाली से प्राप्त हुई हैं। गुप्तकाल में कदूर, परपाल आंध्र प्रदेश के बंदरगाह थे। गुप्तकाल में कावेरीपत्तनम, तोन्दर, चोल प्रदेश के बंदरगाह थे। गुप्तकाल में कोकई, सलिलपुर पांड्य प्रदेश के बंदरगाह थे।

गुप्तकाल में कोत्रयम, मुजरिस मालाबार के बंदरगाह थे। गुप्तकाल में सिन्धु, ओरहोथ, कल्याण, मिबोर प्रमुख बंदरगाह थे, जिनसे व्यापार किया जाता था। गुप्तकाल में शील, भट्टारिका विदुषी महिलाएँ थी। गुप्तकाल में प्रसिद्ध गद्य लेखक सुबन्धु था, जिसने स्वप्नवासवदत्ता की रचना की थी।

भट्टिकाव्य अथवा रावणवध के रचयिता भट्टि गुप्तकाल के प्रसिद्ध कवि थे। भर्तृहरि द्वारा लिखित नीतिशतक, श्रृंगारशतक एवं वैराग्यशतक गुप्तकाल के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। कुन्तलेश्वरदौत्यम् नामक नाटक कालिदास को गुप्तयुगीन सिद्ध करता है। वात्स्यायन द्वारा लिखित कामसूत्र गुप्तकाल का कामशास्त्र संबंधी प्रसिद्ध ग्रंथ है।

वैभाषिक तथा संघ भद्र नामक गुप्तयुगीन आचार्य वैभाषिक सम्प्रदाय के साहित्यिक ग्रंथ के रचयिता थे। गुप्तकाल में ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम के मुखिया को ग्रामिक अथवा महत्तर कहा जाता था।

चंद्रगुप्त प्रथम(319ई.-324ई.)

गुप्त अभिलेखों से पता चलता है, कि चंद्रगुप्त प्रथम ही गुप्त वंश का प्रथम शासक था, जिसकी उपाधि महाराजाधिराज थी।

चंद्रगुप्त प्रथम, गुप्त वंश के द्वितीय शासक घटोत्कच का पुत्र था।

समुद्रगुप्त (325 ई.-375 ई.)

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना। वह लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से उत्पन्न हुआ था। समुद्रगुप्त पर प्रकाश डालने वाली अत्यन्त प्रमाणिक सामग्री प्रयाग-प्रशस्ती के रूप में उपलब्ध है।

राजसिंहासन पर आसीन होने के बाद समुद्रगुप्त ने दिग्विजय की योजना बनाई। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार इस योजना का ध्येय धरणि-बंध (भूमंडल को बाँधना)था। समुद्रगुप्त गुप्त वंश का एक महान योद्धा तथा कुशल सेनापति था। इसी कारण उसे भारत का नेपोलियन कहा जाता है।

समुद्रगुप्त का साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र, दक्षिण में नर्मदा तथा उत्तर में कश्मीर की तलहटी तक विस्तृत था। प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है, कि समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों के शासकों को अपना दास बना लिया था। ये आटविक राज्य उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले थे। दरबारी कवि हरिषेण ने उसकी सैनिक सफलताओं का विवरण इलाहाबाद प्रशस्ति में लिखा है।

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (380-412ई.)

समुद्रगुप्त के बाद रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व की जानकारी गुप्त वंशावली में निहित है, तत्पश्चात् चंद्रगुप्त द्वितीय का नाम है। चंद्रगुप्त द्वितीय, रामगुप्त का अनुज भ्राता था। चंद्रगुप्त द्वितीय के अभिलेखों व मुद्राओं से उसके अनेक नामों व विरुदों के विषय में पता चलता है। उसे देवश्री, विक्रम, विक्रमादित्य, अप्रतिरथ, सिंहविक्रम, सिंहचंद्र, परमभागवत, अजित विक्रम, विक्रमांक आदि विरुदों से अलंकृत कहा गया है।

चंद्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी, ये दोनों ही नगर गुप्तकालीन शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र थे।

चंद्रगुप्त द्वितीय का काल साहित्य और कला का स्वर्ण युग कहा जाता है।चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्न थे – इनमें कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बैताल भट्ट, घटकर्पर, वराहमिहिर और वररुचि उल्लेखनीय थे। चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चीनी यात्री फाह्यान (399-412 ई.)भारत यात्रा पर आया था एवं उसने भारत का वृतांत लिखा।

कुमारगुप्त प्रथम

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य का शासक बना। कुमारगुप्त की माता का नाम ध्रुव देवी था। गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं। कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों व मुद्राओं से पता चलता है, कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण की थी। उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्रीमहेन्द्रसिंह, महेन्द्रकर्म, अजित महेन्द्र और गुप्तकुल व्योम आदि उपाधियाँ धारण की थी।

उसकी सर्वप्रमुक उपाधि महेन्द्रादित्य थी। कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धर्म-सहिष्णुता की नीति का पालन किया था। कुमारगुप्त प्रथम ने अधिकाधिक संख्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएँ प्रचलित की थी। कुमारगुप्त प्रथम के शासन काल में विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी थी।

स्कंदगुप्त (455 ई.-467ई.)

पुष्यमित्र के आक्रमण के दौरान गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका प्रतापी पुत्र स्कंदगुप्त सिंहासनारूढ हुआ। स्कंदगुप्त गुप्त वंश का अंतिम प्रतापी शासक था। स्कंदगुप्त ने देवराज, विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण की थी।

विभिन्न उपाधियों के कारण ही आर्यमंजूश्रीमूलकल्प से उसे विविधाख्य (अनेक नामों वाला नरेश) कहा गया है।

स्कंदगुप्त ने मौर्यों द्वारा निर्मित सुदर्शन झील को जीर्णोद्धार करवाया था।

स्कंदगुप्त वैष्णव धर्मावलंबी था, किन्तु उसने धर्म-सहिष्णुता की नीति का पालन किया। स्कंदगुप्त की मृत्यु 467 ई. में हुई।

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