इतिहासभक्ति आंदोलनमध्यकालीन भारत

नयनार एवं आलवार संतों के बारे में जानकारी

भक्ति आंदोलन हिन्दुओं का सुधारवादी आंदोलन था। इसमें ईश्वर के प्रति असीम भक्ति, ईश्वर की एकता, भाई चारा, सभी धर्मों की समानता तथा जाति व कर्मकांडों की भर्त्सना की गई है। वास्तव में भक्ति आंदोलन का आरंभ दक्षिण भारत में 7 वी. शता. से 12वी. शता. के मध्य हुआ, जिसका उद्देश्य नयनार(शैव) तथा आलवार(विष्णु) संतों के बीच मतभेद को समाप्त करना था। इस आंदोलन के प्रथम प्रचारक शंकरचार्य माने जाते हैं। शंकराचार्य के उपरांत बारह तमिल संतों ने जो संयुक्त रूप से अलवार के नाम से प्रसिद्ध थे, ने भक्ति को काफी लोकप्रिय बनाया।

  • शैव नयनारों तथा वैष्णव अवलारों ने जैनियों और बौद्धों के अपरिग्रह को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मुक्ति का मार्ग बताया। उन्होंने प्रेम और व्यक्तिगत ईश्वर भक्ति का संदेश समस्त दक्षिण भारत में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करके पहुंचाया।
  • वैष्णव संतों से शंकर के अद्वैत और ज्ञानमार्ग का विरोध किया। इन संतों के अनुसार परमात्मा निर्गुण नहीं सगुण है। इन्होंने ब्रह्म और जीव की पूर्ण एकता को स्वीकार किया।

नयनार कौन थे

हिन्दू धर्म में नयनार भगवान शिव के भक्त सन्त थे। इनका उद्भव मध्यकाल में मुख्यतः दक्षिण भारत के तमिलनाडु में हुआ था। कुल 63 (अनय नयनार,आदिपत्त नयनार,अय्यडिगल् कडवर्कान् नयनार,अमरनीदि नयनार्,अप्पुदि अडिगळ्,अरिवट्टय नयनार,चंडीश्वर नयनार,दंडियदिगळ् नयनार,ऎनटिनाथ नयनार,ऎरिपात्त नयनार,अय्यर्कान् कालिक्काम नयनार,गणनाथ नयनार,डन् गाजि नयनार,इलयान् कुडिमारनायनारु, इयर् पगै नयनार, कलिकांब नयनार,कालिय नयनार,कानम पुल्ल नयनार,कन्नप्प नायनारु,करैक्कल् अम्मय्यारु(कारक्काल् अम्म),कज् हार् सिंग नयनार,कझरित्ररिवार् (चेरमान् पॆरुमाळ् नयनार),कोचॆन् गाट् चोळ नयनार,कूत्रुव नयनार,कोट्पुलि नयनार,कुलाचिरायि नयनार,मनकंचार नयनारगुग्गुलु कलश नयनार,मंगयार् करशियार्मॆ,य् पॊरुल् नयनार,मूर्ख नयनार,मूर्ति नयनार,मुनैयडुवारु,मुरुग नयनार,नामिनंदि अडिगळ्न,रसिंग मुनियारय्यरु,नेश नयनार,निन्राऋषि नॆडुमर नयनार,पॆरुमिजहलायि नयनार,पूसलार् नयनार,पूगल् चोळ नयनार,पूगज् तुनायि नयनार,सक्किय नयनार,सदय नायनारु,तिरुकुरिप्पु तॊंडनयनार,तिरुमूल नयनार,तिरुनालै पोवार् नयनार (नंदनार),तिरुनवुक्करसारु नयनार,तिरुनीलकंठ नयनार,तिरुनीलकंठ याज् पनार् नयनार,तिरुनीलनक्कार् नयनार,रुद्रपशुपति नयनार,वायिलारु नयनार,विराल् मिंड नयनार,इयर् कान् कलिकाम नयनार,करि नयनार,इसै ज्ञाननियार)।

नयनारों ने शैव सिद्धान्तों के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नयनार संतों में एक महिला संत भी थी जिसका नाम – करईक्कल अमय्यर था।

नयनार सातवीं एवं आठवीं सदी के तमिल भाषा के कवि या संगीतज्ञों में कोई भी हो सकते हैं।

नयनार संतों के बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य
  • नयनार संतों ने भगवान शिव के सम्मान में बहुत सुंदर भजनों की रचना की है।
  • कवि ज्ञानसंबंदर, अप्पार एवं सुंदरमूर्ति को दक्षिण भारत के मंदिरों में संत के रूप में पूजा जाता है।
  • चोल राजा राजराज प्रथम (985-1014) के एक शिलालेख में उनके द्वारा तंजावर के महामंदिर में भजनों के गायन की शुरुआत का जिक्र है।
  • अक्सर नयनारों से संबद्ध किये जाने वाले, हालांकि शायद कुछ समय बाद के श्रेष्ठ भक्ति कवि मणिक्कवसागर हैं, जिनके भजन तिरुवसगम,के रूप में संकलित हैं।
  • नयनारों के भजनों का संकलन 10वीं सदी में नांबी अनर नांबी ने तेवरम के रूप में किया तथा दक्षिण भारतीय मंदिरों में गायन के लिए उन्हें संगीतबद्ध किया।

आलवार संत कौन थे

विष्णु के भक्त सन्तों को आलवार कहते हैं।

आलवार शब्द का अर्थ ज्ञानी व्यक्ति होता है। आलवार संतों की संख्या बारह बताई गयी है, जिनमें तिरुमंगई, पेरिय अलवर, आण्डाल, नाम्मालवार आदि नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका आविर्भाव सातवीं से नवीं शताब्दी के मध्य हुआ। प्रारंभिक आलवार संतों में पोयगई, पूडम तथा पेय के नाम मिलते हैं, जो क्रमशः कांचीमल्लई तथा मयलापुरम् के निवासी थे। इन्होंने सीधे तथा सरल ढंग से भक्ति का उपदेश दिया। इनके विचार संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिकत तनाव से रहित थे। इनके बाद तिरुमलिशई का नाम मिलता है। जो संभवतः पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम के समय में हुआ। तिरुमंगई अत्यन्त प्रसिद्ध आलवार संत हुआ। अपनी भक्तिगीतों के माध्यम से जैन तथा बौद्ध धर्मों पर आक्रमण करते हुये उसने वैष्णव धर्म का जोरदार प्रचार किया। कहा जाता है, कि श्रीरंगम् के मठ की मरम्मत के लिये उसने नेगपट्टम् के बौद्ध विहार से एक स्वर्ण मूर्ति चुरायी थी। शैवों के प्रति उसका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार था। आलवरों में एकमात्र महिला साध्वी आंडाल का नाम मिलता है। जिसके भक्तिगीतों में कृष्ण-कथायें अधिक मिलती हैं। मध्ययुगीन कवयित्री मीराबाई की कृष्ण भक्ति के समान अंडाल भी कृष्ण की प्रेम दीवानी थी।

आलवार संतों की अंतिम कङी के रूप में नाम्मालवार तथा उसके प्रिय शिष्य मधुर कवि के नाम उल्लेखनीय हैं। नाम्मालवार का जन्म तिनेवेली जिले के एक वेल्लाल कुल में हुआ था। उसने बङी संख्या में भक्तिगीत लिखे। उसके गीतों में गंभीर दार्शनिक चिन्तन देखने को मिलता है। विष्णु को अनन्त एवं सर्वव्यापी मानते हुये उसने बताया कि उसकी प्राप्ति एक मात्र भक्ति से ही संभव है। विष्णु की स्तुति में लिखा गया उसका एक पद उल्लेखनीय है-

तू अभी इतना दयालू नहीं हुआ कि तू अपनी
करुणा अपनी प्रेयसी (गायकी) को दे सके।
तेरी उपेक्षा से निराश वह अपना शरीर त्याग दे
उससे पूर्व ही तू इतनी दया तो कर
कि अपने संदेशवाहक तथा वाहन गरुङ के द्वारा
उस प्रेमिका को संदेश भेज दे, हे दया के सागर,
कि वह बलांत न हो और कुछ हिम्मत से काम ले, जब तक
तू मेरे स्वामी, लौटकर आए प्रत्याशित,
निश्चय ही शीघ्र आएगा तू।

नाम्मालवार के शिष्य मधुर कवि ने अपने गीतों के माध्यम से गुरु महिमा का बखान किया। आलवर संतों ने ईश्वर के प्रति अपनी उत्कृष्ट भक्ति – भावना के कारण अपने को पूर्णरूपेण उसमें समर्पित कर दिया। उनकी मान्यता थी, कि समस्त संसार ईश्वर का शरीर है तथा वास्तविक आनंद उसकी सेवा करने में ही है। आलवार की तुलना उस विरहिणी युवती के साथ की गयी है, जो अपने प्रियतम के विरह वेदना में अपने प्राण खो देती है। इस प्रकार आलवार सच्चे विष्णुभक्त थे। इन्होंने भजन-कीर्तन, नामोच्चारण, मूर्ति दर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया। इनके उपदेशों में दार्शनिक जटिलता नहीं थी। उन्होंने एकमात्र विष्णु को ही आराध्य देव बताया, जो प्राणियों के कल्याण के निमित्त समय-समय पर अवतार लेते हैं। उनका कहना था, कि मोक्ष के लिये ज्ञान नहीं, अपितु विष्णु की भक्ति आवश्यकत है। वेदों को न जानने वाला व्यक्ति भी यदि विष्णु के नाम का कीर्तन करे तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आलवार संतों तथा आचार्यों के प्रभाव में आकर कई पल्लव राजाओं ने वैष्णव धर्म को ग्रहण कर उसे राजधर्म बनाया तथा विष्णु के सम्मान में मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया। सिंहविष्णु ने मामल्लपुरम् में आदिवराह मंदिर का निर्माण करवाया था। नरसिंहवर्मा द्वितीय के समय में कांजी में बैकुठ पेरूमाल मंदिर का निर्माण करवाया गया था। दंतिवर्मा भी विष्णु का महान उपासक था। लेखों में उसे विष्णु का अवतार बताया गया है। बादामी के चालुक्य नरेश भी वैष्णव मत के पोषक थे तथा कुछ ने परमभागवत की उपाधि ग्रहण कीथी। ऐहोल में विष्णु के कई मंदिर का निर्माण किया गया था।

चोल राजाओं के समय में शैव-धर्म के साथ-साथ वैष्णव धर्म की भी प्रगति हुई। इस काल में वैष्णव धर्म के प्रचार का कार्य आलवारों के स्थान पर आचार्यों ने किया। उन्होंने आलवारों की वैयक्तिक भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया तथा भक्ति का समन्वय कर्म और ज्ञान के साथ स्थापित करने का प्रयास किया। आचार्य तमिल तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे। अतः उन्होंने दोनों ही भाषाओं में वैष्णव सिद्धांतों का प्रचार किया। आचार्य परंपरा में सबसे पहला नाम नाथमुनि का लिया जाता है। उन्हें अंतिम आलवार मधुरकवि का शिष्य बताया गया है। इसके अलावा उन्होंने प्रेममार्ग के दार्शनिक औचित्य का प्रतिपादन किया। परंपरा के अनुसार नाथमुनि श्रीरंगम मंदिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे। दूसरे महान आचार्य आलवंदार हुये जिनका एक अन्य नाम यमुनाचार्य भी मिलता है। आगमों की महत्ता का प्रतिपादित करते हुये उन्होंने उन्हें वेदों के समकक्ष बताया। अपने गीतों के माध्यम से प्रपत्ति के सिद्धांत को उन्होंने अत्यन्त सुन्दर ढंग से अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया।

आलवार संतों की संख्या 12 थी जो इस प्रकार हैं – पोरगे आलवार, भूतत्तालवार, मैयालवार, तिरुमालिसै आलवार, नम्मालवार, मधुरकवि आलवार, कुलशेखरालवार, पेरियालवार,आण्डाल, तांण्डरडिप्पोड़ियालवार, तिरुरपाणोलवार, तिरुमगैयालवार।

References:
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक-के.सी.श्रीवास्तव

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