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वैष्णव (भागवत) धर्म की उत्पत्ति तथा विकास

वैष्णव (भागवत) धर्म की उत्पत्ति तथा विकास

वैष्णव धर्म का विकास भागवत धर्म से हुआ। परंपरा के अनुसार इसके प्रवर्त्तक वृष्णि (सात्वत) वंशी कृष्ण थे, जिन्हें वसुदेव का पुत्र होने के कारण वासु-देव कृष्ण कहा जाता है। वे मूलतः मथुरा के निवासी थे। छान्दोग्य उपनिषद् में उन्हें देवकी-पुत्र कहा गया है तथा घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण के अनुयायी उन्हें भगवत् (पूज्य)कहते थे। इस कारण उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म की संज्ञा भागवत हो गयी। महाभारत काल में वासुदेव कृष्ण का समीकरण विष्णु से किया गया तथा भागवत धर्म वैष्णव धर्म बन गया।

विष्णु एक ऋग्वैदिक देवता हैं तथा अन्य देवताओं के समान प्रकृति के देवता हैं। वे सूर्य के क्रियाशील रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। विष्णु का सर्वाधिक महत्त्व इस कारण है, कि उन्होंने तीन पगों से संपूर्ण पृथ्वी को नाप डाला है। उन्हें उरुगाय (महान गतिवाला) तथा उरुक्रम (विस्तृत पाद प्रक्षेपों वाला) बताया गया है। उनकी स्तुति में कहा गया है, कि जहाँ पर देवताओं की कामना करने वाले लोग हर्षित होते हैं, वही स्थान विष्णु का प्रिय है।
वहीं अमृत का उत्स (श्रोत) है। बाद की संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में हम विष्णु के प्रभाव में वृद्धि पाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उन्हें यज्ञ का प्रतिरूप माना गया है। तथा बताया गया है, कि देवताओं के युद्ध में वे सर्वशक्तिशाली सिद्ध हुए तथा सर्वाधिक प्रसिद्ध घोषित किये गये। ऐतरेय ब्राह्मण में भी विष्णु को सर्वोच्च देवता बताया गया है। महाभारत में हम विष्णु को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं।
वस्तुतः समस्त महाभारत ही विष्णु से व्याप्त है। इसमें विष्णु के विभिन्न अवतारों का उल्लेख मिलता है, जिनमें से एक अवतार कृष्ण वासुदेव हैं। इस समय से भागवत धर्म वैष्णव धर्म बन जाता है तथा विष्णु उसके अधिष्ठाता देवता हो जाते हैं। पतंजलि ने भी वासुदेव को विष्णु का रूप बताया है। विष्णु पुराण में वासुदेव को विष्णु का एक नाम बताते हुये कहा गया है, कि विष्णु सर्वत्र हैं, उनमें सभी का वास है, अतः वे वासुदेव हैं। इस प्रकार हम देखते हैं, कि प्राचीन भागवत धर्म ही कालांतर में वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया।
इसी प्रकार जब कृष्ण-विष्णु का तादातम्य नारायण से स्थापित हुआ तब वैष्णव धर्म की एक संज्ञा पांचरात्र धर्म हो गयी, क्योंकि नारायण के उपासक पांचरात्र कहे जाते थे। जहाँ एक नारायण का प्रश्न है, हम सर्वप्रथम उनका उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों में ही पाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उन्हें परमपुरुष बताया गया है, जिसमें सभी लोक, वेद, देवता, प्राण प्रतिष्ठित हैं। आगे बताया गया है, कि सभी का अतिक्रमण करने के लिये उन्होंने पांचरात्र यज्ञ किया तथा सर्वोच्च एवं सर्वव्यापी बन गये। महाभारत के शांतिपर्व में नारायण का तादात्म्य वासुदेव विष्णु के साथ स्थापित करते हुये उन्हें सर्वव्यापी एवं सभी को उत्पन्न करने वाला बताया गया है।

वासुदेव अथवा भागवत धर्म की प्राचीनता ईसा-पूर्व पांचवी शती तक जाती है। महर्षि पाणिनी ने भागवत धर्म तथा वासुदेव की पूजा का उल्लेख किया है। उन्होंने वासुदेव के उपासकों को वासुदेवक कहा है। प्रारंभ में मथुरा तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में यह धर्म प्रचलित था। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज शूरसेन (मथुरा) के लोगों को हेराक्लीज का उपासक बाताता है, जिससे तात्पर्य कृष्ण से ही है।
सिकंदर के समकालीन यूनानी लेखक हमें बताते हैं, कि पोरस की सेना अपने समक्ष हेराक्लीज की मूर्ति रखकर युद्ध करती थी। भागवत धर्म के कृष्ण को सर्वोच्च देवता मानकर उनकी भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति का विधान प्रस्तुत किया गया था। महावीर तथा बुद्ध की ही भाँति वासुदेव कृष्ण को भी अब ऐतिहासिक व्यक्ति माना जा चुका है। वे कृष्ण कबीले के प्रमुख थे। ईस्वी सन् के प्रारंभ होने से पूर्व ही उनकी देवता के रूप में पूजा प्रारंभ हो चुकी थी। गीता में स्वयं कृष्ण ने अपने को वृष्णियों में वासुदेव कहा है।

भागवत अथवा वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त राजाओं के शासन काल (319-550 ई.)में हुआ। गुप्त नरेश वैष्णव मतानुयायी थे तथा उन्होंने इसे राजधर्म बनाया था। अधिकांश शासक परम भागवत की उपाधि ग्रहण करते थे। विष्णु का वाहन गरुङ गुप्तों का राजचिह्न था। प्रयाग लेख से सूचित होता है, कि गुप्त शासनपत्रों के ऊपर गरुङ की मुद्रा लगी होती थी। विष्णु की उपासना में अनेक मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया गया। मेहरौली लेख से पता चलता है, कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवायी थी।
स्कन्दगुप्त कालीन भितरी (गाजीपुर) लेख में विष्णु की मूर्ति स्थापित किये जाने का वर्णन है। जूनागढ लेख से भी पता चलता है, कि चक्रपालित ने सुदर्शन झील के कट पर विष्णु की मूर्ति स्थापित करवायी थी। तिगवां (जबलपुर, मध्यप्रदेश), देवगढ (झांसी), मथुरा आदि से इस काल के बने हुये मंदिर तथा मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं। देवगढ की मूर्ति में विष्णु को शेषशय्या पर विश्राम करते हुये दिखाया गया है। गुप्तकाल में लिखे गये पुराणों में विष्णु के अवतारों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस युग के कोशकार अमरसिंह ने अपने ग्रंथ में विष्णु के 39 नाम गिनाये हुए उन्हें वसुदेव का पुत्र बताया है।

गुप्तकाल के बाद भी वैष्णव धर्म का उत्थान होता रहा। हर्षकाल में भी यह एक प्रमुख धर्म था। हर्षचरित में पांचरात्र तथा भागवत संप्रदायों का उल्लेख मिलता है। राजपूत काल में तो वैष्णव धर्म का अत्यधिक उत्कर्ष हुआ। विभिन्न लेखों में मंदिर तथा मूर्तियों का निर्माण करवाया था। चंदेल राजाओं ने खजुराहो में विष्णु के कई मंदिर बनवाये थे। चेदि, परमार, पाल तथा सेन राजाओं के शासन में भी विष्णु के कई मंदिर तथा मूर्तियों का निर्माण करवाया गया।
इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं तथा उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पदम है। साथ ही साथ लक्ष्मी और गरुङ की मूर्तियां भी निर्मित करवायी गयी थी। विष्णु के दस अवतारों की कथा का व्यापक प्रचलन हुआ तथा प्रत्येक की मूर्तियों का निर्माण हुआ। समाज में वैष्णव धर्म से संबंधित अनेक व्रतों एवं अनुष्ठानों का भी प्रचलन हो गया।

उत्तरी भारत के ही समान दक्षिणी भारत में भी वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ। संगम साहित्य से पता लगता है, कि ईसा की प्रथम शती में यह तमिल प्रदेश का एक महत्त्वपूर्ण धर्म था। दक्षिण भारत में विष्णु के कई मंदिर तथा मूर्तियाँ मिलती हैं। वेंगी के पूर्वी चालुक्य शासक वैष्णव मतानुयायी थे तथा उनका राजचिह्न गुप्तों के समान ही गरुङ था। उनके लेखों में वाराह की उपासना मिलती है। राष्ट्रकूट काल में भी दक्षिणापथ में वैष्णव धर्म का विकास हुआ, यद्यपि राष्ट्रकूट नरेश जैनमत के पोषक थे। दंतिदुर्ग ने एलौरा में दशावतार का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था, जिसमें विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित है।

तमिल प्रदेश में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार आलवार संतों द्वारा किया गया। आलवार शब्द का अर्थ ज्ञानी व्यक्ति होता है। आलवार संतों की संख्या बारह बताई गयी है, जिनमें तिरुमंगई, पेरिय अलवर, आण्डाल, नाम्मालवार आदि नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका आविर्भाव सातवीं से नवीं शताब्दी के मध्य हुआ। प्रारंभिक आलवार संतों में पोयगई, पूडम तथा पेय के नाम मिलते हैं, जो क्रमशः कांची, मल्लई तथा मयलापुरम् के निवासी थे। इन्होंने सीधे तथा सरल ढंग से भक्ति का उपदेश दिया।
इनके विचार संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिकत तनाव से रहित थे। इनके बाद तिरुमलिशई का नाम मिलता है। जो संभवतः पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम के समय में हुआ। तिरुमंगई अत्यन्त प्रसिद्ध आलवार संत हुआ। अपनी भक्तिगीतों के माध्यम से जैन तथा बौद्ध धर्मों पर आक्रमण करते हुये उसने वैष्णव धर्म का जोरदार प्रचार किया। कहा जाता है, कि श्रीरंगम् के मठ की मरम्मत के लिये उसने नेगपट्टम् के बौद्ध विहार से एक स्वर्ण मूर्ति चुरायी थी। शैवों के प्रति उसका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार था।
आलवरों में एकमात्र महिला साध्वी आंडाल का नाम मिलता है। जिसके भक्तिगीतों में कृष्ण-कथायें अधिक मिलती हैं। मध्ययुगीन कवयित्री मीराबाई की कृष्ण भक्ति के समान अंडाल भी कृष्ण की प्रेम दीवानी थी। आलवार संतों की अंतिम कङी के रूप में नाम्मालवार तथा उसके प्रिय शिष्य मधुर कवि के नाम उल्लेखनीय हैं। नाम्मालवार का जन्म तिनेवेली जिले के एक वेल्लाल कुल में हुआ था। उसने बङी संख्या में भक्तिगीत लिखे। उसके गीतों में गंभीर दार्शनिक चिन्तन देखने को मिलता है। विष्णु को अनन्त एवं सर्वव्यापी मानते हुये उसने बताया कि उसकी प्राप्ति एक मात्र भक्ति से ही संभव है। विष्णु की स्तुति में लिखा गया उसका एक पद उल्लेखनीय है-

तू अभी इतना दयालू नहीं हुआ कि तू अपनी
करुणा अपनी प्रेयसी (गायकी) को दे सके।
तेरी उपेक्षा से निराश वह अपना शरीर त्याग दे
उससे पूर्व ही तू इतनी दया तो कर
कि अपने संदेशवाहक तथा वाहन गरुङ के द्वारा
उस प्रेमिका को संदेश भेज दे, हे दया के सागर,
कि वह बलांत न हो और कुछ हिम्मत से काम ले, जब तक
तू मेरे स्वामी, लौटकर आए प्रत्याशित,
निश्चय ही शीघ्र आएगा तू।

नाम्मालवार के शिष्य मधुर कवि ने अपने गीतों के माध्यम से गुरु महिमा का बखान किया। आलवर संतों ने ईश्वर के प्रति अपनी उत्कृष्ट भक्ति – भावना के कारण अपने को पूर्णरूपेण उसमें समर्पित कर दिया। उनकी मान्यता थी, कि समस्त संसार ईश्वर का शरीर है तथा वास्तविक आनंद उसकी सेवा करने में ही है।
आलवार की तुलना उस विरहिणी युवती के साथ की गयी है, जो अपने प्रियतम के विरह वेदना में अपने प्राण खो देती है। इस प्रकार आलवार सच्चे विष्णुभक्त थे। इन्होंने भजन-कीर्तन, नामोच्चारण, मूर्ति दर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया। इनके उपदेशों में दार्शनिक जटिलता नहीं थी। उन्होंने एकमात्र विष्णु को ही आराध्य देव बताया, जो प्राणियों के कल्याण के निमित्त समय-समय पर अवतार लेते हैं।
उनका कहना था, कि मोक्ष के लिये ज्ञान नहीं, अपितु विष्णु की भक्ति आवश्यकत है। वेदों को न जानने वाला व्यक्ति भी यदि विष्णु के नाम का कीर्तन करे तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आलवार संतों तथा आचार्यों के प्रभाव में आकर कई पल्लव राजाओं ने वैष्णव धर्म को ग्रहण कर उसे राजधर्म बनाया तथा विष्णु के सम्मान में मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया। सिंहविष्णु ने मामल्लपुरम् में आदिवराह मंदिर का निर्माण करवाया था। नरसिंहवर्मा द्वितीय के समय में कांजी में बैकुठ पेरूमाल मंदिर का निर्माण करवाया गया था।
दंतिवर्मा भी विष्णु का महान उपासक था। लेखों में उसे विष्णु का अवतार बताया गया है। बादामी के चालुक्य नरेश भी वैष्णव मत के पोषक थे तथा कुछ ने परमभागवत की उपाधि ग्रहण कीथी। ऐहोल में विष्णु के कई मंदिर का निर्माण किया गया था।

चोल राजाओं के समय में शैव-धर्म के साथ-साथ वैष्णव धर्म की भी प्रगति हुई। इस काल में वैष्णव धर्म के प्रचार का कार्य आलवारों के स्थान पर आचार्यों ने किया। उन्होंने आलवारों की वैयक्तिक भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया तथा भक्ति का समन्वय कर्म और ज्ञान के साथ स्थापित करने का प्रयास किया। आचार्य तमिल तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे। अतः उन्होंने दोनों ही भाषाओं में वैष्णव सिद्धांतों का प्रचार किया। आचार्य परंपरा में सबसे पहला नाम नाथमुनि का लिया जाता है।
उन्हें अंतिम आलवार मधुरकवि का शिष्य बताया गया है। इसके अलावा उन्होंने प्रेममार्ग के दार्शनिक औचित्य का प्रतिपादन किया। परंपरा के अनुसार नाथमुनि श्रीरंगम मंदिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे। दूसरे महान आचार्य आलवंदार हुये जिनका एक अन्य नाम यमुनाचार्य भी मिलता है। आगमों की महत्ता का प्रतिपादित करते हुये उन्होंने उन्हें वेदों के समकक्ष बताया। अपने गीतों के माध्यम से प्रपत्ति के सिद्धांत को उन्होंने अत्यन्त सुन्दर ढंग से अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया।

आचार्य परंपरा में रामानुज का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उनका समय 1016-1137 ई. सामान्यतः माना जाता है। उसका जन्म कांची के पास श्रीपेरुम्बुदूर नामक स्थान में हुआ था। कांची में यादवप्रकाश से उन्होंने वेदान्त की शिक्षा ली थी। कुछ समय बाद उनका यादव प्रकाश से कुछ औपनिषदिक सूत्रों की व्याख्या के प्रश्न पर मतभेद हो गया तथा उन्होंने वैष्णव आचार्य यमुनाचार्य की शिष्यता ग्रहण कर ली। यमुनाचार्य की मृत्यु के बाद रामानुज उनके संप्रदाय के आचार्य बने। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा, जिसे श्रीभाष्य कहा जाता है। उनका मत विशिष्टाद्वैत के नाम से प्रसिद्ध है।

रामानुज सगुण ईश्वर में विश्वास करते थे। श्रीरंगम (त्रिचनापल्ली) के मठ में रहते हुये उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये महान कार्य किये। उनके प्रयासों के फलस्वरूप यह धर्म समाज में व्यापक रूप से प्रचलित हो गया। संभव है, इसका प्रभाव चोलों के कुल धर्म शैव पर पङा हो तथा इसी से क्षुब्ध होकर किसी कट्टर शैव चोल शासक ने उन्हें उत्पीङित किया हो। किन्तु इस चोल राजा की पहचान निश्चित नहीं है।
सामान्यतः चोल काल शैवों तथा वैष्णवों के परस्पर सदभाव एवं सम्मिलन का काल रहा तथा रामानुज की कथा अपवादस्वरूप थी। इस समय शिव के समान विष्णु के सम्मान में भी मंदिर बनवाये गये तथा मठों की स्थापना की गयी। मंदिर तथा मठ चोलयुगीन धार्मिक जीवन के केन्द्र बिन्दु ते। कई संत कवियों ने विष्णु की उपासना में तमिलभाषा में मंत्रों की रचना की थी।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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