इतिहासप्राचीन भारतमहाजनपद काल

महाजनपद युग महत्त्वपूर्ण तथ्य

छठी शताब्दी ई.पू. में सोलह महाजनपदों के अस्तित्व का उल्लेख बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में प्राप्त होता है। इन महाजनपदों में सर्वाधिक शक्तिशाली मगध था। जैन ग्रंथ भगवती सूत्र भी हमें सोलह(16) महाजनपदों की जानकारी प्रदान करता है।

16 महाजनपदों में अस्मक महाजनपद एकमात्र ऐसा महाजनपद था, जो दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के तट पर स्थित था। छठी शताब्दी ई.पू. अर्थात् गौतम बुद्ध के समय दस गणतंत्र भी स्थापित थे।

सोलह महाजनपद और उनकी राजधानी

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मगध साम्राज्य का उदय

मगध साम्राज्य (600 ई.पू.-335 ई.पू.) – 6 वीं शताब्दी ई.पू. में और उसके बाद उत्तर भारत में जिन राज्यों के मध्य राजनीतिक एकाधिकार के लिये संघर्ष चल रहा था, उनमें मगध, अवन्ति, वत्स, कोशल प्रमुख थे। इसी समय मगध ने अन्य तीन प्रमुख राज्यों पर अपना एकाधिकार स्थापित किया और अपने राज्य को साम्राज्य का स्वरूप प्रदान किया। प्राचीन मगध साम्राज्य में आधुनिक बिहार के दक्षिणी भाग में स्थित पटना तथा गया जिले के क्षेत्र थे।

मगध साम्राज्य के प्रारंभिक राजवंशों का परिचय

मगध पर शासन करने वाला प्राचीनतम ज्ञात राजवंश वृहद्रथ-वंश था। महाभारत पुराणों से पता चलता है, कि प्राक्-ऐतिहासिक काल में चेदिराज वसु के पुत्र वृहद्रथ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगध में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। वृहद्रथ द्वारा स्थापित राजवंश को वृहद्रथ वंश कहा जाता है। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक जरासंघ था, जो वृहद्रथ का पुत्र था। बिम्बिसार (544 ई.पू.-942 ई.पू.) हर्यंक वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था। इसे मगध साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसकी राजधानी गिरिव्रज (राजगृह) थी। बिम्बिसार ने ही मगध में पहली बार एक सुदृढ शासन व्यवस्था की नींव डाली थी। बिम्बिसार के बाद उसका पुत्र अजातशत्रु (492-460 ई.पू.) मगध का शासक बना। उसके बाद अजातशत्रु का पुत्र उदायिन हर्यंक वंश का शासक बना। उदायिन ने गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थापना की और राजगृह से अपनी राजधानी यहाँ स्थानान्तरित कर ली। इसके अलावा इस वंश के अन्य शासक थे – अनुरुद्र, मुण्ड और नागदशक।

हर्यंक वंश के एक अमात्य शिशुनाग ने हर्यंक वंश के अंतिम शासक नागदशक को पदच्युत कर शिशुनाग वंश की नींव डाली। उसने अवन्ति अथवा वत्स पर अधिकार कर उसे मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। शिशुनाग के बाद उसका पुत्र कालाशोक मगध का शासक बना, जिसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।

कालाशोक के शासनकाल के दसवें वर्ष में वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति आयोजित की गयी (383 ई.पू.), जिसने बौद्ध संघ में विभेद के उत्पन्न होने के कारण यह दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया – प्रथम स्थविर तथा द्वितीय महासांघिक

इस वंश का अंतिम शासक नंदिवर्द्धन था। महापद्ममनंद नामक व्यक्ति ने शिशुनाग वंश का अंत कर नंद वंश की नींव डाली। इस वंश का अंतिम शासक धननंद, सिकंदर का समकालीन था। 323 ई.पू. में चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु चाणक्य की सहायता से घननंद की हत्या कर मौर्य वंश की नींव डाली थी।

चंद्रगुप्त मौर्य

चंद्रगुप्त मौर्य चाणक्य की सहायता से अंतिम नंदवंशीय शासक धननंद को पारजित कर 25 वर्ष की आयु में (322 ई.पू.) मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। ब्राह्मण साहित्य चंद्रगुप्त मौर्य को शूद्र कुलोत्पन्न बताते हैं, जबकि बौद्ध और जैन साहित्य उसे क्षत्रिय बताते हैं। विशाखादत्त कृत मुद्राराक्षस नाटक में उसके लिये वृषल (निम्न कुल)उपनाम का प्रयोग किया गया है। फिलार्कस, स्ट्रैबो और जस्टिन ने चंद्रगुप्त को सैण्ड्रोकोट्स, एरियन और प्लूटार्क ने एण्ड्रोकोटस कहा है। सर्वप्रथम विलियन जोन्स ने सैण्ड्रोकोट्स का तादात्म्य चंद्रगुप्त मौर्य के साथ स्थापित किया। चंद्रगुप्त मौर्य ने व्यापक विजय करके प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। चंद्रगुप्त का संरक्षक एवं विश्वसनीय सलाहकार कौटिल्य था। इसे चाण्क्य भी कहा जाता था। इसका वास्तविक नाम विष्णुगुप्त था। चंद्रगुप्त मौर्य ने तत्कालीन यूनानी शासक सेल्युकस निकेटर को पराजित किया।सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त के साथ कर दिया। चंद्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कंधार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का दोआब, बिहार, बंगाल, गुजरात, विन्ध्य और कश्मीर का भू-भाग भी सम्मिलित था। वृद्धावस्था में चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन मुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ली थी और श्रवणबेलगोला में 298 ई.पू. में उपवास द्वारा अपना शरीर त्याग दिया था।

बिन्दुसार

बिन्दुसार, चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र था। इसकी माता का नाम दुर्धरा था। चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार (298 – 273 ई.पू.) उसका उत्तराधिकारी बना।

यूनानी लेखक बिन्दुसार को अमित्रोचेड्स कहते थे, जबकि वायु पुराण में उसे मद्रसार और जैन ग्रंथों में उसे सिंहसेन कहा गया है। चीनी ग्रंथ फान्यूएन-चु-लिन में उसे बिन्दुपाल कहा गया है। बिन्दुसार के राजदरबार में यूनानी शासक एन्टीयोकस प्रथम ने डायमेकस नामक व्यक्ति को राजदूत के रूप में नियुक्त किया। मिश्र नरेश फिलाडेल्फस-टॉलमी द्वितीय ने डियानीसियस नामक मिश्री राजदूत को बिन्दुसार के राजदरबार में नियुक्त किया था। बिन्दुसार की मृत्यु 273 ई.पू. में हुई थी।

अशोक

अशोक, मौर्य सम्राट बिन्दुसार का पुत्र था। अशोक की माता का नाम शुभद्रांगी था। शुभद्रांगी चंपा के ब्राह्मण की कन्या थी। अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ, जबकि उसने 273 ई.पू. में ही सत्ता पर कब्जा कर लिया था। राज्याभिषेक से पहले अशोक उज्जैन का राज्यपाल था। अपने राज्याभिषेक के 8 वें वर्ष (261 ई.पू.) में अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया था। कलिंग युद्ध में हुए व्यापक नरसंहार के बाद उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इससे पहले वह ब्राह्मण मतानुयायी था। अशोक, प्रथम शासक था, जिसने अभिलेखों के माध्यम से प्रजा को संबोधित किया। इसकी प्रेरणा उसने ईरानी शासक दारा प्रथम से ली थी। अशोक के अभिलेखों में शाहबाजगढी एवं मानसेहरा (पाकिस्तान)के अभिलेख खरोष्ठि लिपि में हैं। अशोक के तक्षशिला एवं लघमान (अफगानिस्तान)अभिलेख आरमेइक एवं ग्रीक (द्विभाषी एवं द्विलिपिक) में उत्कीर्ण है। अशोक ने अपने शासनकाल के 20 वें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की तथा लुम्बिनी को कर मुक्त कर दिया। अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिये जिन विचारों को प्रस्तुत किया था, उसे उसके अभिलेखों में धम्म कहा गया है। अशोक के समस्त शिलालेख, लघु शिलालेख, स्तंभ लेख एवं लघु स्तंभ लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं। सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के अभिलेखों को पढने में सफलता प्राप्त की थी। अशोक के जौगढ स्थित तेरहवें शिलालेख में कलिंग की विजय, तृतीय बौद्ध संगीति, यवन राजाओं के जीवित होने का उल्लेख मिलता है। सम्राट अशोक का येरागुङी लघु शिलालेख संपूर्ण रूप से दुतरफा शैली में लिखा गया है। मौर्यकालीन अशोक सम्राट का नाम गुर्जरा, मास्की, नासिक तथा जूनागढ अभिलेखों में अंकित है।

अशोक के अभिलेख

लघु शिलालेख

अशोक के लघु शिलालेख – सहसराम, बैराट, सिद्धपुर, जतिंग आदि स्थानों से प्राप्त हुये हैं।

भब्रू शिलालेख – यह शिलालेख बैराट (राजस्थान) से प्राप्त हुआ है। इस शिलालेख से अशोक के बौद्ध – धर्मानुयायी होने का पता चलता है।

चौदह शिलालेख

चौदह शिलालेखों में प्रमुख शिलालेख निम्नलिखित हैं-

शाहबाजगढी, मनसेहरा, जूनागढ, कालसी, सोपारा, धौली, जोगदा, इरागुङी।

कलिंग शिलालेख – यह शिलालेख धौली तथा जोगदा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।

तराई स्तंभ लेख – नेपाल की तराई में स्थित रुमिनदेई तथा निग्लीवा जैसे स्थानों से यह स्भंत लेख प्राप्त हुये हैं।

स्तंभ लेख ये संख्या में सात हैं, जो टोपरा, इलाहाबाद, लौरिया, नंदनगढ आदि स्थानों पर पाए गये हैं।

लघु स्तंभ लेख – सांची, सारनाथ एवं प्रयाग से लघु स्तंभ लेख प्राप्त हुये हैं।

गुफा लेख – गुफा लेख संख्या में तीन हैं, जो बिहार की बराबर की गुफाओं में हैं।

अशोक के उत्तराधिकारी

अधिकांश विद्वान कुणाल को अशोक का उत्तराधिकारी मानते हैं। कुणाल ने 8 वर्ष तक शासन किया था, सिंहासन पर बैठने से पहले वह गांधार का शासक था। कुणाल के बाद दशरथ शासक बना। दशरथ ने भी 8 वर्ष तक शासन किया। दशरथ के बाद सम्प्रति, शालिशुक, देववर्मन तथा शतधनुष शासक हुए थे। इन सभी के बाद बृहद्रथ शासक बना, जो मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक था। बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में उसकी हत्या कर दी तथा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। मैगस्थनीज कृत इंडिका मौर्य इतिहास का प्रमुख स्त्रोत है।

चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें राजशासन पर लिखा गया है। मौर्यकाल में फौजदारी न्यायालय में आमात्य को प्रदेष्टा कहा जाता था। नगर का मुखिया नगराध्यक्ष कहलाता था। प्रत्येक जनपद में न्यायालय स्थापित था, जिसके न्यायाधीश को राजुक कहा जाता था। अर्थशास्त्र और प्राचीन बौद्ध साहित्य में ग्राम के मुखिया के लिये प्रयुक्त शब्द ग्राम भोजक, ग्रामिक, ग्रामणी हैं। मौर्यकाल में परोपनिसदी काबुल को, आरिया हेरात को, अरखोसिया कन्दहार को तथा गदरोसिया बलूचिस्तान को कहते थे। मौर्यकाल में जिस भवन में मंत्रिपरिषद की बैठक होती थी, वह मंत्रभूमि कहलाता था। मौर्यकाल में जिलों के अलावा दुर्ग के आस-पास की भूमि कोट्टविषय कहलाती थी। मौर्यकाल में इन्स्पेक्टर वचभूमिक कहलाता था। सम्राट अशोक द्वारा आजीवक भिक्षुओं के बराबर नागार्जुनी पहाङियों की जो गुफाएँ दान में दी गयी थी, उनमें प्राचीनतम गुफा सुदामा की गुफा थी। मौर्यकाल में राजकीय आवासों का निर्माण मुख्यतया लकङी द्वारा किया जाता था। मौर्यकाल में ऊनी वस्त्र उत्पादन का प्रमुख केन्द्र गांधार था।

अशोक के 14 शिलालेख एवं उनके विषय

शिलालेख का अर्थ है, शिला पर लिखा गया लेख। ये लेख अशोक के 8 वृहद अभिलेखों पर क्रमानुसार लिखे हुए मिले हैं। जो निम्नलिखित हैं-

शिलालेख -1

इसमें पशु बलि की निंदा की गई।तथा समारोहों पर पाबंदी की बात कही गयी है।इस आदेश के बाद भी राजकीय पाकशाला में सैंकङों पशुओं के स्थान पर 2 मोर, 1 मृग मारा जाता है। (सिमित पशु हत्या)

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